उपेक्षा ऊलजलूलपन का सबसे अच्छा उत्तर है। परन्तु हम ऐसे समय में जीने के लिए अभिशप्त हैं, जबकि बेतुकी बातें भी विमर्श बन जाती हैं। इसलिए ऐसी बात बोलने वालों का प्रतिरोध अनिवार्य हो जाता है। अपने दमदार अभिनय से दर्शकों को प्रभावित करने वाली अभिनेत्री कंगना रनौत का विवादों से भी पुराना नाता है। अपने बड़बोलेपन के लिए जानी जाने वाली कंगना एकबार फिर विवादों के घेरे में हैं।
बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना रनौत ने अपने हालिया विवाद की शुरुआत ‘टाइम्स नाउ सम्मेलन’ में दिए बयान से की थी। उन्होंने कहा था कि 1947 में मिली आजादी ‘भीख’ थी और भारत ने वास्तविक आजादी 2014 में हासिल की है। उन्होंने कांग्रेस के 70 साल के शासन को ब्रिटिश शासन का ही विस्तार बताया है। अगर सचमुच ऐसा है तो फिर मोदी जी के नेतृत्व वाली भारत सरकार आजादी का अमृत महोत्सव इतनी धूमधाम से क्यों मना रही है? कंगना रनौत को इतिहासकार होने का स्वांग न करते हुए अपने फिल्मी कैरियर पर ही ध्यान देना चाहिए क्योंकि वे अच्छी अभिनेत्री होने के बावजूद बुद्धिजीवी या विचारक का अभिनय करने में बुरी तरह असफल होती हैं।
कंगना ने ऐसा कहकर न केवल महात्मा गाँधी और सरदार पटेल के नेतृत्व में स्वाधीनता आन्दोलन में भागीदारी करने वाले असंख्य सत्याग्रहियों का अपमान किया है, बल्कि सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, वीर सावरकर जैसे लाखों क्रांतिकारियों के बलिदान को भी तिरस्कृत किया है। उनके बयान 135 करोड़ भारतीयों और भारतमाता का ‘चीरहरण’ हैं।
इतना बड़ा विवाद खड़ा हो जाने के बावजूद कंगना ने आत्ममंथन करने और खेद व्यक्त करने के बजाय ऊलजलूल दावे करते हुए इस विवाद को और हवा ही दी है। इंस्टाग्राम पर की गई अपनी एक पोस्ट में उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को निशाना बनाते हुए उनका अपमान किया। कंगना ने एक पुराने अखबार के लेख को साझा करते हुए कहा कि, “या तो आप गाँधी के प्रशंसक हैं या नेताजी के समर्थक हैं। आप दोनों नहीं हो सकते, अपना नायक चुनें और निर्णय लें।” इस अखबार में 1940 का एक पुराना लेख था, जिसका शीर्षक था, “गाँधी और अन्य कांग्रेसी नेताजी को सौंपने के लिए सहमत हुए।”
कंगना ने दावा किया कि गाँधी जी से नेताजी सुभाषचंद्र बोस और सरदार भगत सिंह को कोई समर्थन नहीं मिला, और उन्हें उन लोगों द्वारा अंग्रेजों को सौंप दिया गया, जिनमें (अंग्रेजों के) उत्पीड़न से लड़ने का साहस नहीं था, लेकिन वे निश्चित रूप से सत्ता के भूखे थे। कंगना ने यह तक कहा कि इस बात के सबूत हैं कि गाँधी चाहते थे कि सरदार भगत सिंह को फांसी दी जाए।
उन्होंने महात्मा गाँधी पर कटाक्ष करने के लिए उनके ‘अहिंसा’ के मंत्र का उपहास उड़ाते हुए आगे लिखा, “ये वही हैं जिन्होंने हमें सिखाया है, अगर कोई थप्पड़ मारता है, तो एक और थप्पड़ के लिए दूसरा गाल पेश करो और इस तरह तुम्हें आजादी मिलेगी। इस तरह से किसी को आज़ादी नहीं मिलती, ऐसे सिर्फ भीख ही मिल सकती है।” ये आपत्तिजनक बयान इस बात की पुष्टि करते हैं कि कंगना की मानसिक दशा ठीक नहीं है। वे ‘सुपीरियोरिटी कॉम्प्लेक्स’ और ‘ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर’ जैसे असाध्य रोग से पीड़ित हैं। उन्हें तत्काल मनोचिकित्सा की जरूरत है।
गाँधी भारत के जीवन-दर्शन और चिंतन का सगुण सकर्मक रूप हैं। वे हिन्दू चेतना और भारतीय संस्कृति का सर्वोत्तम सारांश हैं। इस अर्थ में गाँधीवाद और एकात्म मानववाद सहोदर हैं। गाँधी का अपमान हिन्दू चेतना का अपमान है। कंगना के बयान न केवल लाखों स्वतन्त्रता सेनानियों, बल्कि 135 करोड़ भारतीयों और भारतमाता का भी अपमान हैं।
निश्चय ही, सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, शहीद उधम सिंह, नेताजी सुभाषचंद्र बोस और वीर सावरकर जैसे अनेक सपूतों ने स्वतन्त्रता संग्राम के लिए बेहिसाब कुर्बानियां दी थीं। लेकिन यह भी सच है कि स्वतन्त्रता संग्राम को ‘जन आन्दोलन’ – एक जनक्रांति – गाँधीजी ने ही बनाया था। गाँधी, भारत के स्वतन्त्रता संग्राम का केंद्रबिंदु थे। उन्होंने न केवल राजनीतिक, बल्कि सामाजिक जीवन में भी व्यापक बदलाव के लिए लोगों को एकजुट किया। वे भारत में समाज सुधार आन्दोलन के भी सूत्रधार थे।
गाँधीजी ने तत्कालीन समाज में मौजूद विभिन्न सामाजिक बुराइयों को दूर करने का काम किया। उन्होंने अछूतों और किसानों को समान अधिकार प्रदान करने और समाज में उनकी स्थिति सुधारने के लिए कई अभियान चलाए। उन्होंने महिला सशक्तिकरण और शिक्षा के लिए भी व्यापक काम किया और बाल विवाह का विरोध किया। मन, वचन और कर्म में ऐक्य उनकी विशेषता थी। सत्य, अहिंसा और बंधुत्व उनके मार्गदर्शक सिद्धांत थे। मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला जैसे असंख्य लोगों को गाँधी के इन आदर्शों से ही प्रेरणा मिली। उनसे उन्हें समानता के लिए लड़ने और लाखों लोगों का नेतृत्व करने की प्रेरणा और शक्ति भी मिली।
संविधान प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता देता है। लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की आड़ में ऐतिहासिक शख्सियतों के लिए अपमानजनक शब्दों के इस्तेमाल की अनुमति नहीं दी जा सकती है। कंगना लगातार महात्मा गाँधी के खिलाफ बयानबाजी करती रही हैं, उन्होंने यहां तक कह दिया कि सुभाषचंद्र बोस और महात्मा गाँधी के बीच सब कुछ ठीक नहीं था। इसके विपरीत, नेताजी सुभाषचंद्र बोस की बेटी ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि “यदि सुभाषचंद्र बोस भारत में किसी का सबसे अधिक सम्मान करते थे, तो वे महात्मा गाँधी थे।” वीर सावरकर, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और सरदार पटेल ने भी गाँधीजी को अत्यधिक सम्मान और महत्व दिया है।
हाल ही में, कंगना ने हमारे स्वतन्त्रता आन्दोलन में सावरकर की भूमिका की प्रशंसा की और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह स्थित सेलुलर जेल में उनके सेल का दौरा किया। निःसंदेह, अबतक हाशिये पर रहे क्रांतिकारियों/सत्याग्रहियों को महत्व और सम्मान देना प्रशंसनीय है। लेकिन ऐसा करने के लिए गाँधीजी को अपमानित और तिरस्कृत करना अनुचित है। इस स्वार्थप्रेरित विभाजन का ऐतिहासिक साक्ष्य क्या है? एक की प्रशंसा और दूसरे की निंदा करने का आधार क्या है?
इसके अलावा, पिछले 70 वर्षों की गलतियों के लिए कांग्रेस जिम्मेदार है, न कि गाँधीजी। इसलिए इसके लिए गाँधीजी को दोष देना और उनकी अवमानना करना मूर्खतापूर्ण है। गौरतलब है कि गाँधीजी ने आजादी के बाद कांग्रेस को भंग करने का प्रस्ताव रखा था। यह पहली बार नहीं है जब कंगना ने महात्मा जी के खिलाफ जहर उगला है। कुछ दिन पहले भी उसने उनके निजी जीवन पर हमला बोलतेे हुए एक बुरे पिता होने का आरोप लगाया था।
भारत की आज़ादी में गाँधी जी के असाधारण योगदान के प्रति आभारी होने के बजाय वे उन्हें सरेआम अपमानित कर रही हैं। गाँधी या स्वतन्त्रता आन्दोलन पर टिप्पणी करने का उनका अधिकार या हैसियत क्या है? कंगना रनौत ऐसे मामलों पर क्यों बोलती हैं जिनकी उन्हें कोई जानकारी नहीं है? वे बेसिर-पैर की बात करती हैं। कोई नहीं जानता कि वे किसके बारे में क्या कहेंगी, और इसका क्या असर होगा! क्या उन्हें प्रचार की भूख है? क्या वे राजनीति में जाना चाहती हैं?
यह तय है कि वे निकट भविष्य में राजनीति में जाने के लिए ही यह सब कर रही हैं। लेकिन, कंगना को यह समझने की जरूरत है कि स्वतन्त्रता सेनानियों और भारत की स्वतन्त्रता के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करने से कोई भी सच्चा भारतीय प्रभावित नहीं होगा! इतिहास को गलत तरीके से पेश करने के ये हथकंडे निश्चित रूप से उनकी राजनीतिक ताजपोशी के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा साबित होंगे, क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल मनोवैज्ञानिक रूप से अस्थिर व्यक्ति को अपने साथ जोड़ना नहीं चाहेगा। ऐसे व्यक्तियों के साथ टीम के रूप में काम करना, उन्हें दलीय अनुशासन में रखना चुनौतीपूर्ण होता है।
प्लास्टिक की तलवार हाथ में लेकर भाड़े के टट्टू पर सवार होने मात्र से कंगना स्वयं के रानी लक्ष्मीबाई होने की गलतफहमी न पालें, तो बेहतर होगा। वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई के जीवन को चित्रित करने वाली फिल्म में अभिनय करने मात्र से उन्हें लम्बे समय तक चले स्वतन्त्रता संग्राम और स्वतन्त्रता सेनानियों का अपमान करने का लाइसेंस नहीं मिल जाता है। महारानी लक्ष्मीबाई भी उनके स्वतन्त्रता आन्दोलन को नीचा दिखाने वाले मूर्खतापूर्ण बयानों से शर्मसार ही होंगी।
उनके ये बयान व्यक्तिगत लाभ के लिए स्वतन्त्रता सेनानियों को बाँटने की उनकी सोची समझी साजिश हैं। उनकी यह मानसिकता अंग्रेजों की ‘डिवाइड एंड रूल’ नीति का ही उत्तर-आधुनिक संस्करण है। विचारणीय बात यह है कि भारतवासियों को ‘भीख’ के रूप में आज़ादी मिली, या कंगना को ‘भीख’ के रूप में पद्मश्री मिला है? और अब वे राज्यसभा की सीट भी ‘भीख’ के रूप में ही हासिल करना चाहती हैं?
रसाल सिंह
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में प्रोफेसर हैं। सम्पर्क- +918800886847, rasal_singh@yahoo.co.in
Related articles

अनुसंधान की दिशा में बढ़ा कदम!
रसाल सिंहSep 12, 2023
समरथ को नहिं दोस गोसाईं!
रसाल सिंहMay 18, 2023
आत्मरक्षात्मक नहीं, आक्रामक होने का अवसर !
रसाल सिंहJan 07, 2023डोनेट करें
जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
विज्ञापन
