शिक्षा

पतनोन्मुखी शिक्षा का दौर

 

अबतक की हमारी सभ्यता की जो भी उपलब्धियाँ हैं वह सब शोध और शिक्षा की देन है। शोध और शिक्षा के क्षेत्र में जो देश पिछड़ गया उसका हर क्षेत्र में पिछड़ जाना तय है। वैश्वीकरण के बाद भारत की शिक्षा-व्यवस्था में जो गिरावट शुरू हुई वह आज भी बदस्तूर जारी है और आगे न जाने कहाँ जाकर थमेगी।

हमारी सभ्यता ने हमें सिखाया था कि शिक्षा का पहला उद्देश्य विद्यार्थी को अच्छा मनुष्य बनाना होता है। बंगाल में बच्चों को पढ़ा-लिखा कर योग्य बनाने के दायित्व को “मानुष कोरबो” कहा जाता है। किन्तु, इधर पढ़-लिख कर जो पीढ़ी तैयार हो रही है उसमें सबसे ज्यादा ह्रास मनुष्यता की ही देखा जा रहा है। आज पढ़-लिख कर हमारे बच्चे अपना वतन, जमीन, गाँव, नाते-रिश्ते और यहाँ तक कि अपने माता-पिता को भी उनके हाल पर छोड़कर कैरियर बनाने के लिए विदेश जाने में तनिक भी नहीं हिचकते। इस शिक्षा ने हमारे सामाजिक सम्बन्धों को छिन्न-भिन्न कर दिया है, बुजुर्ग बेहद अकेले पड़ गये हैं। वृद्धाश्रम तेजी से खुल रहे हैं जिनमें मध्यवर्ग की संख्या सर्वाधिक है। अब तो हमारी यह नयी पीढ़ी शादी करने और बच्चे पैदा करने में भी आनाकानी कर रही है। कोर्ट ने लिव-इन-रिलेशनशिप की छूट देकर इनका काम और भी आसान कर दिया है। फिर भी इस शिक्षा से हमारा मोह-भंग नहीं हो रहा है। इस शैतानी सभ्यता ने माँ-बाप की जेहन में भी बैठा दिया है कि सुख के लिए धन ही एकमात्र आधार है। जितना धन कमाओगे उतना ही सुखी रहोगे। पश्चिम की नकल ने हमें पश्चिम का दास बनाकर छोड़ दिया है।

अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने के बाद देश बुरी तरह बदहाल था। इसके बावजूद शिक्षा और स्वास्थ्य को सरकार ने अपने हाथ में ले रखा था। शिक्षा लगभग मुफ्त थी। प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक पढ़ने वाले विद्यार्थियों के मार्ग में पैसा कहीं बाधक नहीं था। इसी का परिणाम था कि मेरे जैसे सामान्य किसान-पुत्र को भी उच्च शिक्षा सहज ही सुलभ हो सकी। किन्तु वैश्वीकरण के बाद आज जब भारत दुनिया की तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था है तो दूसरी ओर शिक्षा को व्यापार के लिए निजी हाथों में सौंप दिया गया है। पहले विद्यालय ज्ञान के मंदिर कहे जाते थे। आज वे शिक्षा के व्यापारियों की दूकानें हैं। इसमें जितना पैसा लगाओगे उतनी बड़ी डिग्री पाओगे। अब डिग्री का मानक ज्ञान और बुद्धि नहीं है, उसपर खर्च किया गया रुपया है।

 आज सरकारी प्राथमिक विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक को आर्थिक बदहाली की ओर ढकेला जा रहा है। बजट में भयंकर कटौती की जा रही है, विश्वविद्यालयों को अपने संसाधन पैदा करने के लिए कहा जा रहा है। भला ये संसाधन कैसे जुटाएंगे? अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए फीस में बेतहासा वृद्धि करना, शिक्षकों और छात्रों को मिलने वाली सुविधाओं में कटौती करना इनकी मजबूरी है। अनेक तो अपनी जमीन, भवन आदि गिरवी रखने लगे हैं।

आज शहर से लेकर गाँवों तक में इंग्लिश मीडियम स्कूलों की बाढ़ आ गयी है। गाँवों के किसान-मजदूर भी अपने बच्चों को यहाँ पढ़ाने के लिए बाध्य हैं। उनकी कमाई का बड़ा हिस्सा उनके बच्चों की पढ़ाई में खर्च हो रहा है जबकि, पढ़ाई की पद्धति ऐसी है कि पढ़ने-लिखने के बाद वे सिर्फ डिग्री-धारी होकर रह जाते हैं। उनके पास न कोई हुनर होता है और न श्रम करने की क्षमता। बेरोजगारों की फौज में वे सहज ही शामिल हो जाते हैं।

आज से लगभग पचास साल पहले अपने जिस सार्वजनिक क्षेत्र के कॉलेज से मैंने ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की थी, उसमें उन दिनों जितने शिक्षक थे उसकी तुलना में आज वहाँ शिक्षकों की संख्या घट गयी है। दूसरी ओर क्षेत्र में प्राइवेट कॉलेजों की बाढ़ आ गयी है। सार्वजनिक क्षेत्र के शिक्षण संस्थानों को दिये जाने वाले बजट में कटौती इसीलिए की जा रही है ताकि निजी क्षेत्र के शिक्षण संस्थानों को फलने-फूलने का अवसर मिले।

शिक्षा की स्वायत्तता पर हमला शिक्षा की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है। सदियों पहले जब राजतन्त्र था तब भी शिक्षा की स्वायत्तता पर कोई आँच नहीं आती थी। रामायण और महाभारत काल के गुरुकुल तथा नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय इसके प्रमाण हैं। महाभारत के चक्रवर्ती सम्राट दुष्यंत भी जब कण्व ऋषि के आश्रम में पहुँचते हैं तो उस गुरुकुल के भीतर कदम रखने से पहले वे अपने धनुष-वाण उतारकर अपने सैनिकों के हवाले कर देते हैं और अकेले, खाली हाथ गुरुकुल के भीतर कदम रखते हैं। आज विश्वविद्यालयों में राजनीतिक हस्तक्षेप इतना बढ़ गया है कि शिक्षा का ढाँचा ही चरमरा गया है। कोर्स में क्या रखना है इसे भी शासन में बैठे अपढ़-कुपढ़ नेता तय करते हैं। विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले विषय-विशेषज्ञ उनके सामने नतमस्तक हैं।

मेरी समझ में आजतक नहीं आया कि विश्वविद्यालयों में सेमेस्टर सिस्टम क्यों लागू किया गया? जिन दिनों हमारे कलकत्ता विश्वविद्यालय में पहली बार सेमेस्टर सिस्टम लागू हुआ, उन दिनों मैं ही विभागाध्यक्ष था। कुलपति ने मीटिंग करके यूजीसी के निर्देश से हमें अवगत कराया और कहा कि जितना जल्दी हो, हमें सेमेस्टर सिस्टम लागू करना है।

विभागीय समिति की बैठक में तय हुआ कि हमें वर्तमान पाठ्यक्रम में से एक तिहाई कम कर देना चाहिए। क्योंकि बंगाल में पढ़ायी का सर्वोत्तम समय पूजा की छुट्टी के बाद यानी, नवंबर-दिसम्बर का होता है। सेमेस्टर लागू होने से दिसम्बर में हर हाल में परीक्षा लेनी होगी। परीक्षा से पहले विद्यार्थियों को तैयारी के लिए कुछ दिन छुट्टी देनी होगी। इस तरह हमें पढ़ाने का अवसर ही नहीं मिलेगा। हमने वही किया। शिक्षकों का काम दो गुना बढ़ गया और पाठ्यक्रम का एक तिहाई घट गया। पहले विद्यार्थी वर्ष में एक बार परीक्षा देते थे और हम साल भर पढ़ने-पढ़ाने का आनंद लेते थे। विद्यार्थियों को पाठ्यक्रमेतर पुस्तकें पढ़ने तथा विभिन्न सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लेने के अवसर भी मिल जाते थे। इससे उनके व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास होता था। अब हर क्षण परीक्षा का भूत सवार रहता है। यह निर्णय पाश्चात्य शिक्षा पद्धति की नकल में लिया गया है, यद्यपि इससे लाभ की जगह हानि हो रही है। हम हर क्षेत्र में पश्चिम की ही नकल क्यों करते हैं? हम क्या अपनी जरूरत के अनुकूल अपना रास्ता खुद नहीं चुन सकते? फिर विश्वगुरु होने की डींग क्यों हाँकते हैं?

आजकल विश्वविद्यालयों, कॉलेजों आदि में बायोमेट्रिक सिस्टम लागू किया जा रहा है। सुनकर मैंने सिर पीट लिया। क्या विश्वविद्यालयों के शिक्षकों पर इस तरह दबाव डालकर और उन्हें अपमानित करके उनसे निष्ठापूर्वक पढ़वाने की उम्मीद की जा सकती है?

जिनको लैब में रहकर काम करना है उनके लिए तो विश्वविद्यालय आने पर सुविधा हो सकती है क्योंकि साधन वहीं है और वे आते भी हैं। इसके लिए दबाव नहीं बनाना पड़ता है। किन्तु, बॉयोमेट्रिक सिस्टम अपनाने से मेरे जैसे शिक्षक का तो पढ़ना-लिखना ही दूभर हो जायेगा। मैं दो घंटे पढ़ाने के लिए जरूरत के अनुसार चार-पाँच-छह घंटे तक पढ़ता था। कक्षा में जाने से पहले उस विषय पर जो भी प्रकाशित सामग्री है उसे देख लेना मैं अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझता था। मेरी सारी किताबें घर पर थीं। विश्वविद्यालय में जाकर मैं क्या करता? घर से विश्वविद्यालय में किताबें ले जाना व्यावहारिक नहीं है। कब किस किताब की जरूरत पड़ जाय, कहा नहीं जा सकता। हमारा उद्देश्य बेहतर शिक्षा देना है या शिक्षक को विश्वविद्यालय में बैठाए रखना? सदियों से बायोमेट्रिक नहीं था तो क्या शिक्षा का स्तर बुरा था?

 मैं 31 मार्च 2017 को रिटायर हुआ था। कक्षाएं चलती थीं लगभग 15 मई तक और उसके बाद परीक्षा। मुझे चिन्ता हो गयी कि यदि मैंने अपने हिस्से का कोर्स पूरा नहीं किया तो बचा हुआ हिस्सा कौन पढ़ायेगा? मैंने अतिरिक्त कक्षाएं लेकर 31 मार्च के भीतर अपना पाठ्यक्रम पूरा किया था। इतना ही नहीं, हमें 6 माह की मेडिकल लीव मिलती है। लोग डॉक्टरों से प्रमाण पत्र बनवाकर घर बैठ जाते हैं। मैंने मेडिकल लीव नहीं ली, क्योंकि बीमार नहीं पड़ा। बायोमेट्रिक लागू न होने के बावजूद मैंने अपने काम में कभी किसी तरह की कोताही नहीं की।

देश के सभी विश्वविद्यालयों में सभी शिक्षकों के लिए यूजीसी का एक समान वेतनमान लागू है। यूजीसी ने शिक्षकों के चयन के लिए एक समान योग्यता सुनिश्चित कर रखा है जिसका अनुपालन भी सख्ती से किया जाता है। देश भर के सभी विश्वविद्यालयों से मिलने वाली उपाधियाँ भी सभी जगह समान रूप से मान्य होती हैं। किन्तु शिक्षकों की चयन-प्रक्रिया को राज्य सरकारों के ऊपर छोड़ दिया गया है और राज्य सरकारें समान वेतनमान और समान पद वाले शिक्षकों के चयन में अलग-अलग तरीके अपनाती हैं। आए दिन वे अपनी सहूलियत के अनुसार चयन-प्रक्रिया में बदलाव करती रहती हैं और उनमें बड़े पैमाने पर धाँधली होती है।

पिछले दिनों देश के दो पड़ोसी राज्यों, उत्तर प्रदेश और बिहार में शिक्षकों के चयन की प्रक्रिया एक साथ चल रही थीं। दोनों राज्यों में अपनायी गयी प्रक्रियाएं अलग-अलग थीं। यहाँ तक कि उत्तर प्रदेश में एक साथ एक ही तरह के शिक्षकों के चयन के लिए कम से कम चार तरह की प्रक्रियाएं अपनायी जाती हैं। विश्वविद्यालयों के लिए अलग तरह की, विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध अशासकीय सहायता प्राप्त महाविद्यालयों के लिए अलग तरह की, शासकीय महाविद्यालयों के लिए अलग तरह की और स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों के लिये अलग तरह की। यहाँ तक कि विश्वविद्यालयों की चयन-प्रक्रिया में भी पूरी समानता नहीं रहती है। अपने-अपने विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के चयन के लिए वे अपना-अपना विज्ञापन निकालते हैं, हजारों आवेदन-पत्र आते हैं जिनसे लाखों की कमाई होती है। आवेदन-पत्र आने के बाद कुछ विश्वविद्यालय प्राप्त आवेदन-पत्रों की स्क्रीनिंग करते हैं, स्क्रीनिंग में अपनी रुचि और जरूरत के अनुसार पद्धति अपनाते हैं और एक पद के लिए अपनी इच्छानुसार पाँच, सात या दस अभ्यर्थियों को साक्षात्कार के लिए बुलाते हैं। कुछ विश्वविद्यालय तो सभी योग्य आवेदकों को बुला लेते हैं और दो-या तीन पदों के लिए कई-कई दिन तक साक्षात्कार लेते रहते हैं। जाहिर है, ये साक्षात्कार केवल दिखावे के लिए होते हैं। सबको बुलाया ही इसलिए जाता है कि स्क्रीनिग करने पर उनकी पसंद का अभ्यर्थी छँट सकता है। आजकल विश्वविद्यालयों में जिनका चयन करना होता है उनके नाम अमूमन पहले से तय होते हैं।

मैं उत्तर प्रदेश की बात कर रहा था। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालयों से संबंद्ध अशासकीय सहायता प्राप्त महाविद्यालयों में चयन के लिए उ.प्र.उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग की ओर से विज्ञापन हुआ था। उनकी परीक्षाएं हुईं और फिर साक्षात्कार। कहने लिए तो यह बड़ी ही पारदर्शी पद्धति थी, सबको समान अवसर दिया गया था, किन्तु कल्पना कीजिये कि जो अभ्यर्थी नेट-जेआरएफ उत्तीर्ण करने के बाद चार-पाँच वर्षों से अपने शोध-कार्य में संलग्न है अथवा शोध कर चुका है और जिसने अभी-अभी पोस्टग्रेजुएट या नेट पास किया है, उन दोनों के लिए यह परीक्षा समान रूप से लाभकारी कैसे हो सकती है? पी-एच.डी. करने वाला शोधार्थी अपनी सारी ऊर्जा शोध के अपने उस क्षेत्र-विशेष में लगाता है। शोध-पत्र लिखने में खर्च करता है। कई वर्षों से उसका सम्बन्ध उन सामान्य विषयों से टूटा हुआ होता है जो परीक्षा के लिए पाठ्यक्रम के रूप में निर्धारित हैं। ऐसी दशा में शोध के क्षेत्र में लगे रहना उसके लिए घातक होता है जबकि उच्च शिक्षा में शोध को सर्वाधिक महत्व मिलना चाहिए। जो तरीका उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग अपना रहा है उस तरीके से तो लोक सेवा के अधिकारी चुने जाते हैं, जबकि आयोग को शिक्षक चुनना है। ऐसी दशा में इस पद्धति से शिक्षक पद के लिए भी वे ही अभ्यर्थी अधिक चयनित होते हैं जिनकी रुचि शोध में कम होती है और जो दूसरी प्रतियोगी परीक्षाओं की भी तैयारी करते रहते हैं। शोध में जिसकी रुचि न हो वह उच्च शिक्षा में शिक्षक पद के लिए कत्तई उपयुक्त नहीं है।

उत्तर प्रदेश में स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों की भरमार है। यहाँ आम तौर पर स्थानीय स्तर पर विज्ञापन निकाले जाते हैं और महाविद्यालय का प्रबन्धक अपने विश्वविद्यालय से विषय-विशेषज्ञ नियुक्त कराकर अपनी रुचि से शिक्षक का चयन करा लेता है और विश्वविद्यालय उसका अनुमोदन कर देता है। उतनी ही योग्यता रखने वाले ऐसे शिक्षकों को दस से पन्द्रह हजार वेतन दिये जाते हैं। कभी-कभी तो सुनने में आता है कि महाविद्यालय के लिए अनुमोदित शिक्षक कोई और होता है और पढ़ाने का काम कोई दूसरा करता है।

विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के शिक्षकों की चयन-प्रक्रिया को लेकर देश के दूसरे राज्यों में भी इसी तरह अलग-अलग और मनमानी पद्धतियाँ अपनायी जा रही हैं।

आज युवा बेरोजगारों को प्रत्येक विश्वविद्यालयों में एक-एक या दो-दो पदों के लिए आवेदन करने पड़ते हैं। इसमें पैसे तो लगते ही हैं, विश्वविद्यालयों में आवेदन करना बहुत श्रम-साध्य और समय-साध्य भी होता है, क्योंकि इसमें बहुत सी सूचनाएं देनी पड़ती हैं। विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों में मंत्रियों तथा राज्यपालों तक की सिफारिशें आती हैं। कुलपतियों पर भी बहुत दबाव रहता है। उनका ज्यादातर समय तो नियुक्तियाँ कराने में ही चला जाता है।

ऐसी दशा में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को बचाए रखने के लिए एक मात्र रास्ता है कि भारत सरकार देश भर के विश्वविद्यालयों और उनसे सम्बद्ध महाविद्यालयों के शिक्षको के चयन के लिए संघ लोक सेवा आयोग की तरह अखिल भारतीय स्तर पर ‘विश्वविद्यालय शिक्षक चयन आयोग’ जैसे संगठन का यथाशीघ्र गठन करे। इससे पूरे देश में पारदर्शी तरीके से सुयोग्य शिक्षकों का चयन हो सकेगा और उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में इजाफा होगा।

यदि शिक्षकों के चयन की जिम्मेदारी से कुलपति मुक्त हो जाएंगे तो वे अपने समय का सदुपयोग विश्वविद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता के विकास तथा अन्य प्रशासनिक कार्यों में लगाएंगे, शिक्षकों के चयन के लिए अलग-अलग प्रदेशों में गठित आयोगों की जरूरत नहीं रह जाएगी, इससे सरकारी धन और संसाधनों की बहुत बचत होगी और सबसे महत्वपूर्ण यह कि शिक्षकों के सम्मान में इजाफा होगा जो एक सुसंस्कृत समाज की पहचान है।

पहले कुलपतियों के चयन की प्रक्रिया काफी सम्मानजनक थी। प्रत्येक विश्वविद्यालय की सर्च कमेटी होती थीं जो विश्वविद्यालय के चांसलर को अपेक्षित संख्या में सुयोग्य व्यक्तियों की सूची उपलब्ध कराती थी। चांसलर अमूमन उन्हीं में से किसी का नाम चिन्हित करता था जिसे कुलपति पद के लिए ऑफर मिलता था। आजकल कुलपति पद के लिए भी विज्ञापन निकलता है और आवेदन-पत्र माँगे जाते हैं। फिर साक्षात्कार के बाद चयन होता है। कुलपति जैसे सम्मानित पद के लिय़े यह प्रक्रिया अपमानित करने वाली है। कोई भी पढ़ने-लिखने में रुचि रखने वाला स्वाभिमानी व्यक्ति कुलपति पद के लिए आवेदन-पत्र लिखने नहीं जाएगा। यह समाज का दायित्व है कि कुलपति जैसे सम्मानित पद पर सुयोग्य व्यक्ति को आमंत्रित करे। इससे व्यक्ति के साथ पद की गरिमा भी बनी रहेगी। आज औसत दर्जे के व्यक्ति कुलपति बन रहे हैं और विश्वविद्यालय भ्रष्टाचार और अराजकता के केन्द्र बनते जा रहे हैं।

अब समूची शिक्षा-व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन के लिए लंबी लड़ायी लड़ने का समय आ गया है। हमारे देश में केन्द्रीय विद्यालयों और नवोदय विद्यालयों की तरह सभी विद्यालय क्यों नहीं बन सकते? शिक्षा के लिए बजट दिन प्रतिदिन कम किया जा रहा है। हर साल शिक्षा पर बजट जीडीपी का लगभग 6 प्रतिशत रखा जाता है किन्तु खर्च चार प्रतिशत के आस-पास ही होता है। इस मामले में भारत, दुनिया में 136 वें पायदान पर है। शिक्षा पर बजट जीडीपी का कम से कम 10 प्रतिशत रखा जाना चाहिए और उसे खर्च किया जाना चाहिए। पहले की तरह समूची शिक्षा सरकारी नियन्त्रण में होनी चाहिए। चीन से लौटकर आने वाले बताते है कि वहाँ गाँव का सबसे सुंदर भवन उस गाँव का विद्यालय होता है।

 हमारे यहाँ मुनाफे के लिये शिक्षा को निजी हाथों में देकर जनता के साथ धोखा किया गया है। हमारा एक ही नारा होना चाहिए “राष्ट्रपति हो या मजदूर की संतान/ सबको शिक्षा एक समान”, “सबको शिक्षा-मुफ्त शिक्षा”। शिक्षा के दरवाजे सबके लिए खुले रहने चाहिए तभी हम गाँव के दूर दराज के प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को भी मुख्य धारा में ला सकते हैं और तभी सही अर्थों में आजादी और जनतन्त्र का लाम इस देश की जनता को मिल सकता है

.

Show More

अमरनाथ

लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं। +919433009898, amarnath.cu@gmail.com
3 2 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x