दास्तान-ए-दंगल सिंह (96)
कोरोना वायरस से विश्व भर में बने भीषण भय के माहौल में मुझे 2010 का साल याद आ रहा है। कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी के समय दिल्ली में डेंगू का कहर बरपा था। सम्पूर्ण एनसीआर इस महामारी के दहशत में डूबा हुआ था। सारे सरकारी और निजी अस्पताल डेंगू के रोगियों से भर गये थे। नये रोगियों के लिए कहीं कोई जगह नहीं बची थी। हमारा बेटा स्नेह सागर उस समय टीसीएस में कार्यरत था और पदस्थापना गुड़गाँव में थी। इस कारण परिवार का ध्यान लगातार उधर लगा रहता था। सुधा रोज बेटे को सचेत रहने के लिए हिदायत दे रही थीं। हम बहुत चिंतित थे। बिटिया और हम दोनों चाहते थे कि वह छुट्टी लेकर घर आ जाये, पर ऐसा सम्भव नहीं था। उसकी नयी-नयी नौकरी थी। ढाढ़स देने के लिए वह रोज ही माँ से बात करके अपनी खैरियत बता रहा था। फिर भी अंदेशा था कि पीछा नहीं छोड़ता था।
एक दिन बेटे ने सुधा को बताया कि उसकी तबीयत खराब है। बुखार के कारण वह काम पर नहीं जा सका है। मुझे बताया गया तो मैंने भी उससे बात की। सारे लक्षण पूछकर उसे और सुधा को आश्वस्त किया कि चिंता की बात नहीं है। किंतु मैं खुद ही चिंतातुर हो उठा था। निक्की तो और भी घबरा गयी थी। कॉलेज जाकर मैंने फिर फोन किया और दुबारा बारीकी से एक-एक बात पूछी। उसे चेतावनी दी कि पैरासिटामोल की टिकिया खाकर बुखार को न दबाये। यदि अपने आप बुखार उतर जाए तो अच्छा, नहीं तो डॉक्टर से सम्पर्क करे। अगली सुबह उसने बताया कि बुखार नहीं है और काम पर जा रहा है। मैंने फिर समझाया कि दुबारा शरीर का तापमान बढ़े या कहीं लाल चकत्ते अथवा दाने निकलें तो पहले डेंगू की जाँच करवाये, फिर चिकित्सक के पास जाये। इससे इलाज में दो दिनों का एडवांटेज मिल जायेगा। मैंने इंटरनेट के माध्यम से डेंगू के लक्षणों और चिकित्सा पद्धति पर अच्छी खासी जानकारी प्राप्त कर ली थी। ठीक से तो याद नहीं, पर तीन या चार दिन बाद उसका फोन आया, जिसके शब्द और स्वर मैं कभी भूल नहीं सकता। आज भी स्मरण करके सिहर उठता हूँ। “पापा, दोनों हाथों में उंगलियों से लेकर बाँह तक लाल-लाल दाने निकल आये हैं, लेकिन बुखार नहीं है। मैं ऑफिस में हूँ। क्या करूँ?”
“जल्दी निकलो और जाँच करवाओ।” इसके बाद हमारा क्या हाल हुआ था, यह बताने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। केवल इतना कह सकता हूँ कि मैंने अपनी पूरी तर्कशक्ति घर में माँ-बेटी को समझाने-बुझाने में लगा दी थी और दिल्ली के लिए ट्रेन टिकट के जुगाड़ में लग गया था। रात आँखों में ही कट गयी थी। सुबह दस बजे के करीब बेटे ने बताया कि रिपोर्ट पॉजिटिव है, प्लेटलेट काउंट 65000 है और वह डॉक्टर के पास जा रहा है, जो आर्मी से रिटायर होकर वहीं गुड़गाँव में प्रैक्टिस करते हैं। बिना सलाह लिये जाँच रिपोर्ट देखकर डॉक्टर ने उससे पूछा था कि ऐसा कैसे किया? “पापा ने कहा था कि पहले जाँच कराओ तब डॉक्टर से मिलो।”
“पापा शिक्षक हैं क्या? ऐसा कोई शिक्षक ही कर सकते हैं।” डॉक्टर साहब ने मुस्कुराकर कहा था। फिर हिदायत दी थी कि मम्मी-पापा को बुला लो और किसी रिश्तेदार या दोस्त के घर मत ठहरना, कहीं किसी को डेंगू हो गया तो अपराध बोध होगा या बदनामी होगी। शारीरिक कमजोरी जाँचने के लिए डॉक्टर साहब ने उसे पंजे का जोर लगाने को कहा था। उसने बताया था कि उसे किसी तरह की कमजोरी महसूस नहीं हो रही है। बिल्कुल स्वस्थ अनुभव कर रहा है और चाहे तो अभी क्रिकेट खेल सकता है।
हम दोनों दिल्ली जाने के लिए अधीर होकर ट्रेन टिकट के जुगाड़ में लगे थे। उस समय भागलपुर में हवाई सेवा का अभाव बहुत अखर रहा था, जो अभी भी नहीं है। अंतिम उपाय यह सोचा था कि विक्रमशिला एक्सप्रेस में हाउस कीपिंग वाले स्टाफ के लिए सुरक्षित बर्थ पर यात्रा करेंगे। सुधा की सहेली पुष्पा के पति श्री प्रफुल्ल कुमार सिंह का हाउस कीपिंग का ठेका था। पर उसकी नौबत नहीं आयी। वेटिंग टिकट लेकर हेड क्वार्टर कोटा से थ्री एसी में टिकट का जुगाड़ हो गया। घर में सासू माँ को बिटिया के साथ छोड़कर अगले दिन हम दिल्ली चल पड़े थे। कहलगाँव बिजलीघर के तत्कालीन महाप्रबंधक श्री शुभाशीष घोष के सौजन्य से दिल्ली में कार और गेस्ट हाउस की सुविधा उपलब्ध हो गयी थी। वैसे तो दिल्ली में कई रिश्तेदार और हितैषी थे, किन्तु चिकित्सक की सलाह के अनुसार हम किसी के घर नहीं रुकने का निर्णय लेकर चले थे।
अगली सुबह जब हम नई दिल्ली स्टेशन पहुँचे तो हमारी अगुवानी में कार चालक इंतजार कर रहा था। बिना कोई देर किये हम गुड़गाँव चल पड़े। मन में केवल और केवल नकारात्मक सोच हावी थी। पता नहीं बेटे को किस हाल में देखेंगे? फोन पर ठिकाना पूछते हम जब उसके डेरे के पास पहुँचे तो आश्चर्यजनक रूप से वह चौराहे पर खड़ा इंतजार करता हुआ मिला था। बिल्कुल दुरुस्त हालत में देखकर हमारी बारह आना चिंता दूर हो गयी थी और हमने भगवान को आभार प्रकट किया था। स्नेह अपने एक सहकर्मी दक्षिण भारतीय मित्र के साथ पेईंग गेस्ट के रूप में रहता था। कमरा बहुत अच्छा, बड़ा और हवादार था। हम करीब एक घंटा वहाँ रहे, आवश्यक सामान पैक किया तथा उसके मित्र को सतर्कता बरतने की सलाह के साथ स्वस्थ रहने की दुआ देते विदा हो गये। गुड़गाँव से नोएडा जाते हुए पूरी दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स सम्बन्धी निर्माण कार्यों के लिए यत्रतत्र खोदकर छोड़ दिये गये गड्ढों में जमा पानी को देखकर डेंगू फैलने का कारण समझ में आ गया था। संवेदनहीन सरकार ने डेंगू के मच्छरों के लिए जैसे हेचरी बनाकर दिल्ली की जनता के मरने की पुख्ता व्यवस्था कर रखी थी।
नोएडा के सेक्टर 62 में एनटीपीसी का गेस्ट हाउस है। रिसेप्शन पर बैठे कार्मिक अधिकारी ने बताया कि हमारे लिए दो सुईट बुक है। पर सुधा ने कहा कि हम एक ही कमरे में रहेंगे, दूसरे कमरे की जरूरत नहीं है। कहलगाँव का मेरा एक शिष्य रीतेश नोएडा स्थित एक मीडिया हाउस में काम करता था। उसे फोन करके बुला लिया। मना करने के बावजूद उसने जिद मचा दी कि हमारे साथ ही रहेगा। हमें मानना पड़ा। फिर हाउस कीपिंग वालों से मैट्रेस मंगवाया और फर्स पर दोनों लड़कों का बिछावन लगाया गया। उस रात सोने के पहले तक हम चारों ने खूब सारी बातें कीं। रीतेश ने उस दिन छुट्टी ले ली थी। उसने पूरे एनसीआर में डेंगू के कहर का हाल सुनाया था। इस दौरान माँ-बेटे लगातार पास बैठे-लेटे रहे थे। सैद्धांतिक रूप से पहले भी जानता था लेकिन पहली बार प्रत्यक्ष देखा कि कोई बीमार बच्चा अपनी माँ के संसर्ग और स्पर्श से कैसे सुखी व स्वस्थ हो सकता है। इससे अच्छी चिकित्सा का अन्य कोई उपाय हो नहीं सकता। हम जब सुबह मिले थे, तब से लेकर रात तक में बेटे के चेहरे की रौनक में बहुत बड़ा फर्क दिख रहा था कि जैसे उसकी बैटरी चार्ज हो गयी हो! उसकी जीवनी शक्ति में वृद्धि हो गयी थी। वह बहुत ही अच्छा महसूस कर रहा था। अगली सुबह फिर से जाँच करवाने का कार्यक्रम तय करके हम सो गये थे।
सवेरे सबसे पहले मेरी नींद खुली तो धीरे से बालकनी में चला गया। बाहर का नजारा बड़ा खुशनुमा लगा। सभी के जगने तक मैं वहीं खड़ा रहा था। चाय पीने के समय रीतेश यह जानकर हैरान हो गया कि स्नेह चाय नहीं पीता है! नाश्ता करने के बाद हम खून जाँच कराने निकले। जाँचघर जाने के क्रम में कई सरकारी अस्पताल और प्राइवेट नर्सिंग होम का शिष्य ने भ्रमण करवाया। देखा कि रोगियों की भीड़ संभालने में अस्पताल असमर्थ सिद्ध हो रहे थे। कहीं भी नये रोगी के लिए जगह नहीं थी। लोग बारामदों व गैलरियों में लावारिस जैसे पड़े हुए थे। उस दिन डेंगू की भयावहता का प्रत्यक्ष अवलोकन करके हमारी रूह काँप गयी थी। शिष्य ने अपने ताल्लुकात व प्रभाव का इस्तेमाल करके जाँच की व्यवस्था की थी। रिपोर्ट शाम में मिलनी थी। वह अपने काम पर चला गया था और हम गेस्ट हाउस लौट आये थे। रिपोर्ट मिलने का हम बेसब्री से इंतजार कर रहे थे, पर ऊपरी तौर पर बेटे के स्वास्थ्य में काफी सुधार का लक्षण दिखाई दे रहा था।
चिकित्सक द्वारा दी गयी दवाओं की खुराक चालू थी। सुपाच्य और पौष्टिक आहार की व्यवस्था कर ली गयी थी। कई लोगों ने बताया था कि पपीते के पत्ते का रस और बकरी का दूध प्लेटलेट्स बढ़ाने का काम करता है, किन्तु इन दोनों चीजों का इंतजाम वहाँ मुश्किल था। शाम में रीतेश ने जाँच रिपोर्ट लेकर फोन किया। प्लेटलेट काउंट 70000+ था। खबर बहुत राहत देने वाली थी। स्पष्टतः रोगी की हालत में सुधार शुरू हो गया था। उस शाम को हमने मिठाई खाकर खुशी मनाई थी। नोएडा और आसपास के कई हितैषियों को खबर मिल चुकी थी, सो अगले दिन से लोग मिलने आने लगे थे और समय कटने लगा था। इस दरम्यान शिष्य रीतेश लगातार अपने काम के घण्टों के सिवा हमारे साथ रह रहा था। उसके सहयोग से एक दिन के अंतराल पर खून जाँच कराने का सिलसिला चल रहा था। हर बार पाँच से दस हजार की बढ़ोतरी हो रही थी। इसकी सूचना डॉक्टर साहब को फोन पर हम दे रहे थे। एनटीपीसी कहलगाँव के फिजीशियन और मेरे मित्र डॉ0 बी के बेहरा से भी दिन में एक दो बार बात हो रही थी। वे प्रगति रिपोर्ट से काफी संतुष्ट थे और हमें आश्वस्त कर रहे थे। दुख के बादल छँट गये थे। रोज-रोज मौसम सुहाना हो रहा था।
जब प्लेटलेट्स काउंट एक लाख पैंतीस हजार पार कर गया तब हम दोनों स्नेह को गुड़गाँव पहुँचाकर कहलगाँव लौट आये थे। उसे हिदायत दी थी कि एक सप्ताह के बाद फिर से जाँच करवाकर बताये कि प्लेटलेट सामान्य हुआ या नहीं? वापसी की यात्रा में मोहन बाबू ने फोन पर बताया कि विजय बाबू (पूर्व प्रमुख) का बेटा भी डेंगू से गंभीर रूप से बीमार है और ऐम्स दिल्ली में भर्ती है। मैंने तुरंत विजय बाबू को फोन लगाया। वे बहुत हताश और परेशान थे। उन्होंने बताया कि उनका वह बेटा ऐम्स में ही डॉक्टर है। उसे एक सप्ताह पहले बुखार आया था। अन्य कोई लक्षण डेंगू का नहीं था। इसलिए पैरासिटामोल खाकर वह ड्यूटी करता रहा। जब बहुत कमजोरी महसूस हुई तो उसने जाँच करवाई, पर तबतक बहुत देर हो चुकी थी। प्लेटलेट बीस हजार के नीचे चला गया और अभी तक गिरावट जारी है। वह कोमा में चला गया है। वे सपरिवार दिल्ली में हैं। मैंने अपने बेटे का उदाहरण देते हुए उन्हें यथासंभव ढाढ़स देने की कोशिश की थी और कहलगाँव पहुँचने तक बार-बार बात की थी। लगभग एक पखवाड़े के बाद उनका बेटा स्वस्थ हो गया था। अभी वैश्विक महामारी कोरोना की दहशत के बीच वह प्रकरण बहुत याद आ रहा है। वह एक दुःस्वप्न जैसा था जिससे हम सकुशल उबर आये थे। ईश्वर से प्रार्थना है कि उसी तरह यह दौर भी गुजर जाये। परमपिता सम्पूर्ण मानवता की रक्षा करें। किसी का अपना उससे जुदा न हो। ॐ शांतिः!
(क्रमशः)