दादा साहेब फाल्के सिर्फ एक फिल्म निर्देशक ही नहीं थे बल्कि हरफनमौला थे। उनके साथ ही भारतीय सिनेमा का वह स्वर्णिम सफर शुरू हुआ, जिसने आज अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली है। भारतीय सिनेमा और उसके विकास में उत्कृष्ट योगदान देने वालों को मिलने वाले इस पुरस्कार को भारतीय सिने जगत का सर्वोच्च सम्मान होने का गौरव प्राप्त है। वर्ष 2019 का दादा साहेब फाल्के पुरस्कार दक्षिण भारत के सुपरस्टार रजनीकांत को दिये जाने का एलान हुआ है।
भारतीय सिनेमा के पितामह कहे जाने वाले दादा साहेब फाल्के के नाम पर ‘दादा साहेब फाल्के पुरस्कार’ वर्ष 1969 से प्रतिवर्ष नियमित दिया जा रहा है। समग्र मूल्यांकन के बाद ही इसके सुपात्र का चयन किया जाता है। आज की युवा पीढ़ी दादा साहेब फाल्के पुरस्कार के बारे में भले ही थोड़ी बहुत जानकारी रखती हो किन्तु उन्हें दादा साहेब फाल्के के बारे में शायद ही पर्याप्त जानकारी हो। धुंधीराज गोविंद फाल्के, जिन्हें आगे चलकर दादा साहेब फाल्के के नाम से जाना गया, उनके नाम पर शुरू किए गये पुरस्कार को भारतीय फिल्म जगत का सर्वोच्च पुरस्कार इसीलिए माना जाता है क्योंकि फाल्के ही भारतीय सिनेमा के जनक रहे। वह सिर्फ एक फिल्म निर्देशक ही नहीं थे बल्कि एक जाने-माने निर्माता और स्क्रीन राइटर भी थे।
वर्ष 1870 में नासिक के एक संस्कृत विद्वान के घर में उनका जन्म हुआ। उनकी पहली फिल्म थी ‘राजा हरिश्चंद्र’, जिसे पहली फुल लेंथ भारतीय फीचर फिल्म होने का दर्जा हासिल है। 3 मई 1913 को रिलीज हुई यह फिल्म भारतीय दर्शकों में काफी लोकप्रिय हुई थी। कहा जाता है कि उस दौर में उनकी इस फिल्म का बजट 15 हजार रुपये था, जिसकी सफलता के बाद से ही उन्हें भारतीय सिनेमा का जनक कहा जाने लगा। फिल्म राजा हरिश्चंद्र की सफलता से फाल्के साहब का हौसला इतना बढ़ा कि उन्होंने एक के बाद एक कुछ ही दशकों में 100 से भी ज्यादा फिल्मों का निर्माण किया, जिनमें 95 फीचर फिल्में और 27 लघु फिल्में शामिल थीं।
यह भी पढ़ें – सिनेमा : मनोरंजन बनाम फूहड़ता
दादा साहेब फाल्के अक्सर कहा करते थे कि फिल्में मनोरंजन का सबसे उत्तम माध्यम हैं। साथ ही ज्ञानवर्धन के लिए भी वे एक उत्कृष्ट साधन हैं। उनका मानना था कि मनोरंजन और ज्ञानवर्धन पर ही कोई भी फिल्म टिकी होती है। उनकी इसी सोच ने उन्हें एक अव्वल दर्जे के फिल्मकार के रूप में स्थापित किया। उनकी फिल्में निर्माण व तकनीकी दृष्टि से बेहतरीन हुआ करती थी। इसकी वजह यही थी कि फिल्मों की पटकथा, लेखन, चित्रांकन, कला निर्देशन, संपादन, प्रोसेसिंग, डेवलपिंग, प्रिंटिंग इत्यादि सभी काम वह स्वयं देखते थे और कलाकारों के परिधानों का चयन भी अपने हिसाब से ही करते थे। फिल्म निर्माण के बाद फिल्मों के वितरण और प्रदर्शन की व्यवस्था भी वही संभालते थे। उन्होंने अपनी फिल्मों में महिलाओं को भी कार्य करने का अवसर दिया। वास्तव में उनके साथ ही भारतीय सिनेमा का वह स्वर्णिम सफर शुरू हुआ, जिसने आज अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली है।
योगेश कुमार गोयल
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं तथा 31 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। सम्पर्क +919416740584, mediacaregroup@gmail.com
Related articles

जैव विविधता पर मंडरा रहा है बड़ा खतरा
योगेश कुमार गोयलNov 11, 2022डोनेट करें
जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
विज्ञापन
