अतृप्ति के कगार पर छोड़ती ‘कोंसिक्वेंस कर्मा’
{Featured in IMDb Critics Reviews}
लेखक, निर्देशक – शादाब अहमद
स्टार कास्ट – सिद्धार्थ भारद्वाज, मोनिस खान, पूजा गुप्ता, तन्नू सुनेजा, ज्योत्स्ना आदि।
कोरोना फैला हुआ है। लॉकडाउन लगा हुआ है। ऐसे में एक लड़की जिसने अपने माता-पिता के खिलाफ जाकर शादी की और अब काफी सफल है लेकिन अपने पति से ही सम्बन्ध ठीक नहीं है लिहाज़ा पति पाँच साल पहले उसे छोड़कर चला गया। लअब सबकुछ ठीक करने के लिए रामनवमी की पूजा करना चाहती है। इसलिए पूजा के लिए पंडित जी को बुलाती है। और अपने जानने वालों को। लेकिन सब आने से मना कर देते हैं। पंडित बताता है कि उसकी रिपोर्ट पॉजिटिव आई है। अब क्या होगा पाँच साल से जिस काम को पूरा करने लिए तपस्या कर रही थी वो तो अब पूजा के अभाव में असफल हो जाएगा?
तो वह किसी तरह एक मंदिर पहुंच जाती है मंदिर में ताला लगा है इधर उधर देखते हुए एक पंडित सोता हुआ मिलता है। वह जागता नहीं तो निराश होकर उसके पास खाना रखकर चली जाती है। अब उस खाने की सुगंध से पंडित जाग गया! पंडित लोग कितने भूखे हैं न सच में सदियों से भूखे हैं ये!फिर भूख भी भला किसी की कभी शांत हुई है! नहीं न? जब आम लोगों की नहीं हुई तो पंडितों की कहाँ से हो जाएगी भला? अब वो उसे ले आती है किसी तरह। पूजा भी करवाती है उसकी दो सहेलियां भी आ जाती है। एक को भगवान में विश्वास नहीं तो दूसरी को फुर्सत नहीं अपने पुरुष मित्र से अलग होने की। सो वह फोन में टिक-टिक करती रहती है पूजा के दौरान भी। कहानी कई जगह घूमती है। कभी उस आयोजक लड़की की कहानी कहती है तो कभी उन दो सहेलियों की तो कभी बीच बीच में गरुड़ पुराण भी बांचती है।
अब सवाल यह है कि उस लड़की ने पूजा क्यों रखवाई? ऐसी कौन सी तपस्या या संकल्प था उसका जो अब सफल होने के कगार पर है? लेकिन संकल्प सफल होने के बाद ही तो पूजा और भोज करते हैं न? खैर कोरोना जो इतना सूक्ष्म है जिसे देखा नहीं जा सकता फिर भी लोग क्यों घरों में कैद हैं। इस बीच फ़िल्म में धर्म-कर्म की बातें। पब्जी में अपना कैरियर ढूंढता एक युवा लड़का। एक लड़की जिसकी शादी हो चुकी है लेकिन जाने कौन सी कामनाएं हैं जो उसकी पूरी नहीं हो रही पति से? इन सबका जवाब मिलता है फ़िल्म के अंत में। धर्म-कर्म का ज्ञान, गरुड़ पुराण से फ़िल्म का सम्बंध, पूजा रखवाने वाली लड़की की बनाई पेंटिंग इन सबका जवाब चाहिए हमें लेकिन जल्दी-जल्दी। इसके अलावा अराजकता, भावनाओं, धर्म-कर्म के उथल-पुथल में फंसी फ़िल्म की कहानी को पार लगाता एक पंडित, जो मायावी है जिसे पहले तो कोरोना के बारे में नहीं पता लेकिन फिर अंग्रेजी भी झाड़ता है और सभी को अपने कर्म के अनुसार प्रसाद बांट रहा है। यह मायावी पंडित दरअसल कुंभकर्ण है। रावण का अनुज भ्राता। तो कुंभकर्ण पूजा करवाने आया था? अब यार इतने सवाल न पूछा करो आप लोग, जाकर फ़िल्म देख लो।
उलझी-उलझी सी लगने वाली यह फ़िल्म दरअसल उतनी ही सुलझी हुई भी महसूस होती है। इसके अलावा यह फ़िल्म बुद्धिजीवी सिंड्रोम कैटेगरी में भी अपने आप को खड़ा करती है। साथ ही यह आपसे धैर्य धारण करने की मांग करती है। क्योंकि जब तक धैर्य के साथ इसे आप नहीं देखेंगे तो इसकी बारीकियों को आप नहीं पकड़ पाएंगे।
फ़िल्म में अभिनय कुलमिलाकर सभी का स्वाभाविक सा है लेकिन पंडित जी के रूप में सिद्धार्थ भारद्वाज, उर्वशी बनी तन्नू सुनेजा, साहिल बने मोनिस खान और कुसुम बनी पूजा गुप्ता जंचते हैं और कहीं-कहीं प्रभावी भी लगते हैं। बैकग्राउंड स्कोर फ़िल्म के अनुरुप रहा हालांकि उसका कुछ ज्यादा ही धीमा होना भी अखरता है। कैमरामैन कमाल करते हैं। वहीं एडिटर ने फ़िल्म को कुछ ज्यादा ही कसा हुआ रखा है। सम्भवतः जैसा निर्देशक ने निर्देश दिया वैसे ही उन्होंने काम किया। लेखक, निर्देशक शादाब अहमद की लेखनी में और निर्देशन कला में असीम सम्भवनाएँ दिखाई देती हैं।
लेकिन इस फ़िल्म को थोड़ा बड़ा होना चाहिए था। ताकि यह खुलकर अपनी बात रख सकती और आम दर्शक इसे आसानी से पकड़ पाते। फ़िल्म अपने साथ कई सम्भावनाएं छोड़ जाती है जिससे शिद्दत के साथ महसूस होता है कि अगर इसकी लंबाई नहीं रखी गई ज्यादा तो इसका सीक्वल बने। वैसे मैं अमूमन फिल्मों की लंबाई से परेशान होता हूँ लेकिन जिस तरह का दबाव इसे देखते हुए अपने मस्तिष्क पर देना पड़ता है उससे यह आपको और अधिक अतृप्ति प्रदान करती है। और पाप कभी अकेले नहीं आते अपने साथ अपने दंड भी लाते हैं ये दुनिया भरी पड़ी है ऐसे पापियों से। फ़िल्म इसलिए गरुड़ पुराण पर कोई भाषण या कथा कहने के बजाए गम्भीरता से अपनी बात करती है।
विशेष – जिस तरह साहित्य में और पौराणिक कथा में उर्मिला उपेक्षित रही है उसी तरह कुंभकर्ण भी उपेक्षित रहा है। कहीं न कहीं यह फ़िल्म उस पर भी बात करती है।
इस फ़िल्म को एमएक्स प्लयेर पर देखा जा सकता है – लिंक
अपनी रेटिंग – 3.5 स्टार