उत्तरप्रदेश

उप चुनाव बनी चुनौती

 

उत्तर प्रदेश में 2027 विधानसभा के आम चुनाव को छोड़िए, उसके पहले विधानसभा की दस सीटों पर होने वाला उप चुनाव भाजपा के लिए बड़ी चुनौती से कम नहीं है। दस सीटों पर विधानसभा उप चुनाव के बाद तस्वीर साफ हो जाएगी कि उत्तर प्रदेश में भाजपा का आगत भविष्य क्या है? लोकसभा के अलावा सात राज्यों के उपचुनाव के नतीजे आने के बाद एक बार फिर मुद्दा जेरे-बहस है कि क्या भाजपा वोटरों के बीच खोती जा रही प्रतिष्ठा वापस हासिल कर पाएगी या लोकसभा चुनाव की तरह कमजोर प्रदर्शन ही दोहराएगी? यहाँ ये सवाल इसलिए भी जरूरी लगता है कि देश की सत्ता में उत्तर प्रदेश की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

हालाँकि लोकसभा चुनाव में झटका खाने के बाद भाजपा एक बार फिर अपने को संभालने में जुट गयी है। बिखरे कार्यकर्ताओं की जम्बो बैठक, समीक्षा दर समीक्षा और रिपोर्ट दर रिपोर्ट की जो कवायद है, उसे देखकर ये साफ जाहिर हो रहा है कि पार्टी में हड़बड़ाहट और चिंता दोनो ही है। इधर, राज्य कर्मचारियों को पुरानी पेंशन, बायोमेट्रिक अटेंडेंस मामले में अड़ियल रुख अख्तियार करने वाली सरकार थोड़ा नरम रुख अपनाती दिख रही है। अन्दरखाने से मिलने वाले इनपुट के मुताबिक, भाजपा हर हाल में अपनी सियासी जड़ें मजबूत रखना चाहती हैं। लोकसभा चुनाव परिणाम के करीब दो महीने बाद ही बिहार, पंजाब, हिमाचल, उत्तराखण्ड, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश समेत सात राज्यों में विधानसभा की 13 सीटों पर 10 जुलाई को उप चुनाव हुआ। 12 जुलाई को आए चुनाव परिणाम में भी भाजपा कमजोर साबित हुई। इंडी गठबन्धन को बढ़त मिली। काँग्रेस के खाते में चार सीटें जा पहुँची।  टीएमसी को भी चार सीटें मिलीं। इसके अलावा आम आदमी पार्टी, डीएमके और निर्दलीय के खाते में एक-एक सीट आई है। भाजपा को दो सीटों पर संतोष करना पड़ा। इसके पहले यहाँ तीन सीटों पर भाजपा थी। इसी प्रकार दो सीट काँग्रेस, टीएमसी, जेडीयू, आम आदमी पार्टी, डीएमके और बसपा के पास एक-एक सीटें थीं। तीन सीटों पर निर्दलीयों का कब्जा था।

बात करें उत्तर प्रदेश विधानसभा उप चुनाव की तो नौ सीटें लोकसभा चुनाव के बाद-अखिलेश यादव, अवधेश प्रसाद, अतुल गर्ग, जियाउर रहमान, प्रवीण पटेल, विनोद बिंद, लालजी वर्मा, अनूप वाल्मीकि, चंदन चौहान समेत नौ लोगों के लोकसभा पहुँच जाने से खाली हुईं और कानपुर के सीसामऊ विधानसभा की सीट, वहाँ के विधायक इरफान सोलंकी की सदस्यता खत्म होने से खाली हुई है। विधानसभा की दस सीटों का यह उपचुनाव विभिन्न राजनीतिक दलों, खासकर एनडीए और इंडी गठबन्धन के लिए कुछ ज्यादा ही अहम इसलिए भी है कि अभी हाल में सम्पन्न लोकसभा चुनाव में भाजपा को यूपी से तगड़ा झटका मिला, जबकि ‘अस्तित्व-संकट’ बचाने को हाँफ रही समाजवादी पार्टी (सपा) और काँग्रेस को ‘राजनीतिक-पुनर्जीवन’ मिला। खास बात यह कि विधानसभा का उप चुनाव जिन दस सीटों पर होना है, उनमें पाँच सीट सपा, तीन भाजपा, एक रालोद और एक सीट निषाद पार्टी की रही है। हर हाल में इन सीटों को अपने कब्जे में करने की सियासी गुणा गणित तेज हुई है। विधानसभा उप चुनाव के मद्देनजर मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने चुनाव प्रचार की कमान खुद अपने हाथों में ली है। बताया जा रहा है कि जीत सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने सभी दस सीटों पर 16 तेज तर्रार मन्त्रियों की टीम तैनात कर दी है। उधर, समाजवादी पार्टी (सपा), काँग्रेस व अन्य दल भी एक एक कदम फूँक-फूँक कर आगे बढ़ रहे हैं। हालाँकि विधानसभा का ये उप चुनाव भी इंडी गठबन्धन और एनडीए के बीच ही होगा। 

पिछले लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें जीतकर सपा यूपी की सबसे बड़ी पार्टी बन गयी है, इसलिए इंडी गठबन्धन में उसका पर्याप्त दखल भी होगा। ऐसी सम्भावना भी है। 

क्या होगी हाथी की चाल?

पिछले कई विधान सभा-लोकसभा चुनावों में पिछड़ती जा रही बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की इस चुनाव में क्या भूमिका होगी, इसे लेकर सियासी फिजाओं में कई तरह की बातें अभी से ही गूँज रही हैं। दो दशक पहले तक उत्तर प्रदेश की राजनीति में खासा हैसियत रखने वाली बसपा कांशीराम के बाद से कमजोर होती जा रही है। मायावती के बारे में कहा ये जा रहा है कि फील्ड में उतरने से परहेज करने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती का स्वास्थ्य अब बहुत अच्छा नहीं रहता। भतीजे आनंद को कुछ महीने पहले पार्टी दायित्व से मुक्त करने के बाद दोबारा पार्टी का उत्तराधिकार सौंपा जरूर है पर पार्टी के भीतर कोई हलचल नहीं दिख रही है। दिलचस्प यह भी है कि बसपा को कभी भाजपा की बी-टीम तो कभी सपा की जूनियर पार्टी का आरोप भी झेलना पड़ता रहा है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में कभी खासा वर्चस्व रखने वाली हाथी की चिग्घाड़ अब नहीं सुनाई पड़ती, पार्टी मुखिया मायावती की सक्रियता भी अब पहले सरीखे नहीं रह गयी है। ऐसे में सवाल ये उठाए जा रहे हैं कि विधानसभा उप चुनाव में बसपा के हाथी की चाल क्या होगी, बसपा के कैडर वोट छितराएँगे? अगर छिटके तो किस दल में कनवर्ट होंगे?

सपा के सात विधायकों की फँस सकती है सदस्यता

पिछले लोकसभा चुनाव में ऐन मौके पर धोखा देकर साथ छोड़ने वाले सात विधायकों की सदस्यता को खारिज करने की सपा तैयारी कर रही है। अन्दरखाने से आ रही खबरों के मुताबिक, इस बाबत विधानसभा अध्यक्ष के सामने जल्दी ही याचिका दाखिल करने की प्रक्रिया शुरू होने वाली है। विधायकी गयी तो इन सीटों पर भी चुनाव होना स्वाभाविक है। समाजवादी पार्टी ने राज्यसभा चुनाव के दौरान भाजपा को वोट देने वाले और लोकसभा चुनाव में भाजपा के मंच पर मौजूद रहने, भाजपा के लिए प्रचार करने वाले विधायकों के बकायदा वीडियो, ऑडियो सहित कई सबूत जुटाये हैं। इन विधायकों में मनोज पांडेय, राकेश सिंह, अभय सिंह, राकेश पांडेय, विनोद चतुर्वेदी, पूजा पाल, आशुतोष कुमार शामिल हैं। जानकारों की माने तो पल्लवी पटेल को लेकर निर्णय अभी नहीं हुआ है। तकनीकी रूप से अगर सपा इनके खिलाफ याचिका देती है तो पल्लवी पटेल की भी विधायकी जा सकती है। पिछले विधानसभा चुनाव में डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य को सिराथू सीट से विधायकी हराने वाली पल्लवी पटेल पर आरोप है कि वह दूसरी पार्टी के मंच से विरोधी दल का प्रचार कर रही थी। ओवैसी के साथ भी कई बार मंच साझा किया। खास बात यह कि जिन सीटों पर सपा विधायकों ने पार्टी संग बगावत कर भाजपा के पक्ष में कार्य किया, उन सभी सीटों पर भाजपा हार गयी। ऐसे में इन सात विधायकों की दशा कटी पतंग की तरह हो गयी है।

कार्यकर्ता शरणम् गच्छामि 

लोकसभा चुनाव के जोरदार झटके फिर उसके दो महीने बाद ही सात राज्यों में हुए उप चुनाव के परिणाम ने भाजपा को भी जमीन पर खुद के पाँव के नीचे झाँकने को मजबूर कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी भीतर ही भीतर दहल-सी गयी है। सत्ता मद में चूर होने की बातें विपक्षी दलों के बजाय खुद पार्टी कार्यकर्ता पिछले दस साल से लगाते रहे। हर बार ये बातें ऊपर तक पहुँच ही नहीं पाती थीं। पार्टी कैडर के पुराने कार्यकर्ता-नेताओं की लगातार घुटन को लगातार इग्नोर किया जाता रहा।

15 जुलाई को प्रदेश की राजधानी लखनऊ में प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में जुटे पार्टी-दिग्गजों ने कार्यकर्ताओं के कन्धे पर सिर टिका दिया। चार साल से उपेक्षा और भेदभाव की आवाज को लगातार दबाने वाली भाजपा ने बैठक-विमर्श में कार्यकर्ता ही सर्वोपरि की बात कहके ऊर्जा भरने का काम किया। बोले-कार्यकर्ता पार्टी की रीढ़ हैं, सरकार से बड़ा है संगठन। इन दोनों को इग्नोर करके एक भी कदम नहीं चला जाएगा। बहरहाल, यह इलाज कितना कारगर होगा, ये भविष्य के गर्भ में है। गौरतलब है कि इस बार के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी 62 से घटकर 33 सीट पर आ गयी, समाजवादी पार्टी (सपा) पाँच से बढ़कर 37 पर जा पहुँची। एक सीट पर रही काँग्रेस की सीट में भी इजाफा हुआ। पिछले लोकसभा सत्र में काँग्रेस नेताओं राहुल गाँधी और खरगे की सक्रियता को देश ने देखा। जनमानस के बीच सवाल उठाए जा रहे हैं कि क्या सियासत करवट ले रही है? क्या सत्ता का वजूद कम होता जा रहा है? उधर सियासी दलों के भी चिन्तन -मन्थन से लेकर तोड़-भांज व घर मजबूती जैसे सियासी टोटके तेज हो गये हैं

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शिवा शंकर पाण्डेय

लेखक सबलोग के उत्तरप्रदेश ब्यूरोचीफ और नेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट आथर एंड मीडिया के प्रदेश महामंत्री हैं। +918840338705, shivas_pandey@rediffmail.com
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