उत्तरप्रदेश

उत्तर प्रदेश में नहीं चला भाजपा का जादू

 

मुझे अपनों ने लूटा, गैरों में कहां दम था/कश्ती भी वहीं डूबी, जहां पानी कम था।

शायरी की ये लाइनें इस बार भाजपा लोकसभा चुनाव परिणाम पर एकदम सटीक बैठती हैं। चुनाव के तीन महीने पहले तक दूर दूर नजर न आने वाला इंडी गठबंधन वोटिंग के समय लड़ाई की मुख्यधारा में आ गया। अस्सी में अस्सी सीट जीतने का दंभ भरने वाली भाजपा पिछली बार से आधी सीटों पर सिमट गई। भाजपा को 33 सीटों पर संतोष करना पड़ा जबकि समाजवादी पार्टी (सपा) को 37, कांग्रेस को छह, राष्ट्रीय लोकदल को दो सीटों पर जीत मिली। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) शून्य पर टिकी रही।

केंद्र में सरकार भले ही एनडीए की बन गई हो पर ये हकीकत है कि चुनाव परिणाम के करीब एक महीने बाद भी विपक्षी दलों की बाँछें खिली हुईं हैं तो भाजपा के अंदरखाने में अभी भी ‘भूचाल’ का असर देखा जा रहा है। उत्तर प्रदेश में लोकसभा के चुनाव में अवाम ने भाजपा को आइना दिखाया। साफ तौर पर चेताया कि मनमानी बर्दाश्त नहीं, अर्श से फर्श पर लाने में वोटर थोड़ा भी संकोच नहीं करेगा।

बहरहाल, इस बार के चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपा के सत्ता की खुमारी टूटी है। मनमानी पर उतारू दिखती भाजपा भीतर ही भीतर सहमी है, एक बार फिर पार्टी का चाल, चरित्र, चेहरा बदलने को भाजपा मजबूर हो रही है। उम्मीद के एकदम विपरीत चुनाव परिणाम ने भाजपा के बड़े बड़े नेताओं के होश उड़ा दिये। नाम न छापने की शर्त पर भाजपा के एक पूर्व वरिष्ठ पदाधिकारी ने ‘सबलोग’ से कहा-उत्तर प्रदेश ने भाजपा की मनमानी पर अंकुश लगाने का काम किया।

गौरतलब है कि देश के सबसे बड़े कहे जाने वाले इस राज्य में करीब दो साल बाद विधानसभा का चुनाव भी है। ऐसे में प्रदेश भाजपा में कील काँटे दुरुस्त किए जाने की कवायद तेज हो गई है। 13 जून तक अवध क्षेत्र के बाद कानपुर और बुंदेलखंड क्षेत्र की समीक्षा बैठक कर ली गई। भाजपा के राज्य मुख्यालय लखनऊ पर भी सिलसिलेवार प्रत्याशी और जिला संगठन से जुड़े पदाधिकारी बुलाए जा रहे हैं। 16 जून के बाद भी समीक्षा बैठकों का दौर तेजी पकड़े हुए है। दो दिन पूर्व दिल्ली की समीक्षा बैठक में 40 टीमों का गठन किया गया। दो-दो लोकसभा क्षेत्र के हिसाब से ये टीमें राज्य की सभी 80 सीटों पर जाकर हार की असली वजह तलाश करेंगी। इसके अलावा संगठन से लेकर सरकारी मशीनरी तक में व्यापक फेरबदल किये जा रहे हैं।

इस बार उत्तर प्रदेश से मिले चौंकाने वाले परिणाम ने भाजपा कैडर को हतप्रभ कर दिया। भाजपा के नायक कहे जाने वाले नरेंद्र मोदी खुद कम वोट से जीते। सिर्फ 1.52 लाख वोटों की मार्जिन से। इसके पहले 2019 में इसी संसदीय सीट पर नरेंद्र मोदी 4.79 लाख वोटों की मार्जिन से जीते थे। खास बात यह भी कि प्रधानमंत्री मोदी की सीट पर इस बार 8478 वोटरों ने नोटा का बटन दबाया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वाराणसी संसदीय सीट के अगल बगल की सीटों पर भी भाजपा इस बार के चुनाव में बुरी तरह पराजित हो गई। राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा, भव्य मंदिर निर्माण सरीखे मुद्दे भाजपा ने जिस तरह से जनता के बीच उठाया, चुनाव में उसका भी फायदा नहीं मिला। अयोध्या (फैजाबाद लोकसभा सीट का नाम) समेत उसके आसपास की कई लोकसभा सीटें भाजपा हार गई। अयोध्या मंडल में उसका रिपोर्ट कार्ड शून्य रहा। वर्ष 2019 के चुनाव में भाजपा ने मध्य उत्तर प्रदेश की 24 में से 22 सीटें जीती थीं। लेकिन इस बार उसे इस क्षेत्र में 13 सीटों का नुकसान हुआ। जबकि, कांग्रेस को तीन और सपा को 11 सीटों का फायदा हुआ। हालांकि, इस बार उत्तर प्रदेश में 25 सीटें ऐसी हैं जिस पर भाजपा ने जीत की हैट्रिक लगाई पर यह भी सच है कि उत्तर प्रदेश में केंद्र सरकार के सात मंत्री इस बार चुनाव में खुद अपनी ही सीट नहीं बचा पाये। अमेठी जैसी हॉट सीट पर केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी डेढ़ लाख से ज्यादा वोटों से हार गईं। पिछला चुनाव राहुल गांधी को हराकर सुर्खियों में आईं स्मृति ईरानी को इस बार कांग्रेस प्रत्याशी किशोरी लाल शर्मा ने हरा दिया। केंद्रीय मंत्री भानू प्रताप सिंह वर्मा भी जालौन से चुनाव हार गये तो वाराणसी के बगल चंदौली सीट पर केंद्रीय मंत्री महेंद्र नाथ पाण्डेय भी अपनी सीट न बचा सके। केंद्रीय मंत्रियों में ही कौशल किशोर लखनऊ के बगल मोहन लालगंज, संजीव बालियान मुजफ्फर नगर और साध्वी निरंजन ज्योति प्रयागराज के बगल फतेहपुर की सीट गवां बैठी। केंद्रीय मंत्रियों में ही एक और-अजय मिश्र टेनी भी अपनी सीट नहीं जीत सके। वाराणसी के बगल प्रयागराज मंडल में महज एक अदद फूलपुर लोकसभा सीट बमुश्किल भाजपा जीत सकी। इलाहाबाद संसदीय सीट से भाजपा प्रत्याशी नीरज त्रिपाठी, कौशांबी से विनोद सोनकर, प्रतापगढ़ से संगम लाल गुप्ता सीट गवां बैठे। फूलपुर और इलाहाबाद की सांसद क्रमश: केसरी देवी पटेल और डॉ रीता बहुगुणा जोशी का इस बार टिकट काटकर फूलपुर से विधायक प्रवीण कुमार पटेल और इलाहाबाद सीट से नीरज त्रिपाठी को प्रत्याशी बनाया गया था। पहली बार राजनीति में उतरे गैर राजनीतिक पहचान रखने वाले नीरज त्रिपाठी चुनाव में बहुत ही हलके साबित हुए। कांग्रेस प्रत्याशी कुंवर उज्ज्वल रमण सिंह ने यह सीट जीत ली। अयोध्या की फैजाबाद सीट भी भाजपा के हाथ से फिसल गई। भाजपा प्रत्याशी लल्लू सिंह के सामने सपा ने दलित बिरादरी पर दांव खेला। पूर्व मंत्री अवधेश प्रसाद ने लल्लू सिंह को पचास हजार से ज्यादा वोटों से हराया। अयोध्या के बगल ही बाराबंकी में कांग्रेस के तनुज पुनिया ने दो लाख से ज्यादा वोटों से राजरानी रावत को हराकर यह साबित कर दिया कि अयोध्या मंदिर से उपजी लहर वोटों में नहीं बदल सकी। अयोध्या मंडल की अंबेडकर नगर क्षेत्र में पिछली बार बसपा के टिकट पर सांसद रहे रितेश पांडेय को इस बार भाजपा ने प्रत्याशी बनाया पर सपा के लालजी वर्मा ने यहां भी जीत दर्ज करा ली।

पूर्व आईजी (पुलिस) पद से रिटायर्ड होने के बाद लेखन में सक्रिय बद्री प्रसाद कहते हैं- ‘उत्तर प्रदेश का चुनाव जातिगत होता जा रहा है। भाजपा जातियों में नेतृत्व विकसित करने के बजाय जातिवादी दलों के नेताओं अनुप्रिया पटेल, ओपी राजभर, दारा सिंह चौहान, संजय निषाद, जयंत चौधरी जैसे नेताओं पर पूरी तरह निर्भर होकर रह गई है।’

ओवर कॉन्फिडेंस, वोटर से दूरी, पैराशूट प्रत्याशी

इस बार का लोकसभा चुनाव कई मायने में अलग-थलग रहा। ‘सबलोग’ मई 2024 के अंक में ‘नई तासीर लिए लोकसभा चुनाव’ शीर्षक के आलेख में ये साफ कहा गया था-‘इस बार वोटर पूरी तरह खामोशी ओढ़े है, ये खामोशी खतरनाक है। वोटर इस बार ऐन वक्त पर अपना फैसला सुनाने के मूड में दिख रहा है।’ ‘सबलोग’ ने साफ तौर पर कहा था कि इस बार का लोकसभा चुनाव कुछ अलग और खास होगा।’

फिलहाल, चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपा के बड़े नेता अवाक दिखे। पूरे चुनाव में 400 पार का नारा औंधे मुंह धड़ाम गिरा नजर आया। बंपर जीत को लेकर पूर्व के सारे अनुमान, आंकड़े और सर्वे एक किनारे धरे रह गए। तीन महीने पहले तक राजनीति में छाई रहने वाली भाजपा चुनाव आते आते पिछड़ती दिखने लगी। विपक्ष ने तेजी से बढ़त बना ली। भाजपा पिछली बार से आधी संख्या पर सिमट गई। उसे महज 33 मिली सीटों ने लोगों को चौंकने को मजबूर कर दिया। पत्रकार विजय पांडेय कहते हैं- इस बार का चुनाव ही जमीन के बजाय हवा में लड़ा गया। इस बार कई जगह मनमानी तरीके से प्रत्याशी उतारे गए। कहीं-कहीं तो एकदम नए नवेले, जो कभी पार्षद तक का चुनाव नहीं लड़े और न किसी अन्य चुनाव में सक्रिय दिखे। प्रयागराज के लल्लन पांडेय पुराने भाजपाई हैं। चर्चा छिड़ने पर आक्रोशित लल्लन बोले-‘भाजपा के 10 कार्यकर्ता और पदाधिकारी को नाम-चेहरे तक से न पहचान पाने वाले इस बार पार्टी के प्रत्याशी बना दिए गए, 15 दिन से भी कम समय में उनका चुनाव जीत पाना किसी अचंभे से कम नहीं।’

सपा के बागी विधायक भी भाजपा की नैया पार न लगा सके

इस बार लोकसभा चुनाव में दल बदल तेजी से हुआ। सपा के भीतर भी तोड़- भांज जमकर चली। हॉट सीट कही जाने वाली अमेठी लोकसभा क्षेत्र में चुनाव के मौके पर सपा विधायक राकेश प्रताप सिंह अपनी पार्टी से बगावत कर भाजपा में शामिल हो गए। एक और हॉट सीट रायबरेली में मनोज पांडेय ने भी सपा छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया। इसी प्रकार अंबेडकर नगर में राकेश पांडेय, अयोध्या में अभय सिंह, कौशांबी में पूजा पाल और पल्लवी पटेल, जालौन में विनोद चतुर्वेदी, बलिया में विधायक नारद राय आदि सपा छोड़ भाजपा में आ गए। सपा विधायकों की ‘ऐन मौके की बगावत’ काम न आई। इन सभी सीटों पर भाजपा को जीत नहीं मिल सकी। राजनीतिक दृष्टि से यह सभी सीटें काफी महत्त्वपूर्ण हैं।

हार पर रार : भितरघात और आस्तीन का सांप

हार पर मची रार ने पार्टी के भीतर ‘भूचाल’ ला दिया। कई प्रत्याशियों को दिल्ली-लखनऊ तलब किया गया। पार्टी ने खुद सिलसिलेवार समीक्षा बैठक की। कई प्रत्याशियों ने खुद की हार की वजह भितरघात बताई तो कई प्रत्याशियों ने दूसरे के सिर ठीकरा फोड़ते हुए पार्टी कार्यकर्ता को ही आस्तीन का सांप और जयचंद की उपाधि दे डाली। नाम न छापने की शर्त पर एक पूर्व मंडल अध्यक्ष कहते हैं- ‘इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि पिछले दो चुनावों में देवतुल्य कार्यकर्ता कहे गये पर इस बार आस्तीन के सांप और जयचंद की उपाधि से नवाजे जा रहे हैं। ‘ बहरहाल, करीब 12 से अधिक प्रत्याशियों ने हार की जो वजह पार्टी हाई कमान को बताया, उसमें जमकर भितरघात और गद्दारी किए जाने की चर्चा की गई।

हाल यह है कि जो हारे वह चीख चीख कर कह रहे हैं कि पीठ में अपनों ने ही खंजर घोंपा। ऐसा तर्क देने में वह नवनिर्वाचित सांसद भी पीछे नहीं हैं जो कम मार्जिन से चुनाव जीते हैं। कम वोट से जीतने को लेकर उन्होंने भी मोर्चा खोल दिया है। अब तक 12 से अधिक प्रत्याशियों ने पार्टी हाई कमान को जो रिपोर्ट भेजी है उसमें भितरघात को ही प्रमुख वजह बताया गया है।

ये सवाल मांग रहे जवाब

भितरघात और आस्तीन के सांप के आरोप प्रत्यारोप से इतर यह सवाल भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि मनमानी टिकट वितरण को लेकर कार्यकर्ता और समर्थकों में जो असंतोष की आग सुलग रही थी उसे बार-बार दबाया क्यों गया? प्रत्याशी से लेकर चुनाव प्रबंधन से जुड़े लोग यह नहीं बता पा रहे हैं कि ज्यादातर लोकसभा क्षेत्र में प्रचार बड़े नेताओं की सभा, रैली, बैठकों तक ही सीमित क्यों रह गया? वोटर से उनके सीधे संपर्क क्यों नहीं हुए? कितने वोटर के दरवाजे प्रत्याशी अथवा प्रभावशाली इलाके के नेता वोट माँगने पहुँचे? निचले स्तर तक कार्यकर्ता-समर्थकों के बीच प्रत्याशी क्यों नहीं पहुंचे? पूरे चुनाव तक ज्यादातर सीटों पर समन्वय का अभाव क्यों दिखा? भाजपा के समर्पित निष्ठावान और अनुभवी कार्यकर्ताओं की लगातार उपेक्षा की बात बार-बार की जाती रही, संगठन इसे रोक पाने में अंत तक नाकाम क्यों साबित हुआ? बड़े नेताओं की रैली और जनसभाएं तो पर्याप्त की गई पर वोटर और खासकर भाजपा समर्थित कार्यकर्ता उपेक्षित क्यों किए गए? चुनाव प्रबंधन शुरू से आखिर तक इतना लाचार क्यों दिखा ? बूथ अध्यक्ष और पन्ना प्रमुख का कायदे से उपयोग क्यों नहीं किया गया? ज्यादातर बूथों से सैकड़ो वोटर बिना वोट डाले वापस जाने को क्यों मजबूर हुए?

यह भी गंभीर विषय है कि दर्जनों लोकसभा क्षेत्र में खास वर्ग के हजारों वोटर मतदान करने से वंचित रहे। पर्याप्त दस्तावेज होने के बावजूद केवल वोटर लिस्ट में नाम न होने से बड़ी तादाद में वोटर मताधिकार से वंचित हो गए। उनका चैलेंज वोट नहीं डलवाया जा सका। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि दर्जनों सीटों पर भाजपा पाँच से सात हजार से भी कम वोटों से हारी है।

इन सीटों पर भी चले घात-प्रतिघात

करीब दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर घात-प्रतिघात से लेकर विपक्षी दल के प्रत्याशी को मदद करने के आरोप हैं। सच क्या है, ये तो जांच का विषय है। मेरठ से जीते अरुण गोविल ने चुनाव बाद ही अपने खिलाफ साजिश की बात कहकर लोगों को चौंका दिया। मुजफ्फर नगर के प्रत्याशी केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान और भाजपा विधायक संगीत सोम के बीच ‘सियासी जंग’ जग जाहिर है। वहां बार बार घात प्रतिघात की बातें सामने आती रहीं। बांदा के प्रत्याशी आरके पटेल के अलावा बस्ती, बाराबंकी, फैजाबाद, सुल्तानपुर, इलाहाबाद कौशांबी, बदायूं और सीतापुर में भितरघात के आरोप लगे हैं। खीरी, मुजफ्फरनगर और फतेहपुर जैसी सीटों पर भी स्थानीय विधायक समेत अन्य कई पदाधिकारियों पर भी विपक्षी दल के उम्मीदवारों के प्रचार करने तक के गंभीर आरोप हैं।

सवालों के घेरे में संगठन

लोकसभा चुनाव के बाद जिस तरह भाजपा में भितरघात के ज्यादा मामले सामने आए, उसे लेकर संगठन पर भी सवाल उठने लगे हैं। जौनपुर, मछली शहर, भदोही, फिरोजाबाद, मैनपुरी, लालगंज, सीतापुर, बस्ती, चंदौली, फैजाबाद समेत 36 सांसदों का टिकट काटने की बात राज्य स्तर संगठन से की गयी थी। इन सब के बावजूद 24 सांसदों को दोबारा टिकट दे दिया गया। बड़ा सवाल यह भी किया गया राज्य की रिपोर्ट की अनदेखी कर टिकट का वितरण मनमानी तरीके से क्यों किया गया?

सीएम से लेकर हाई कमान तक पहुंची शिकायतें

चुनाव परिणाम आने के बाद ही तमाम लोगों ने पार्टी हाई कमान के साथ मुख्यमंत्री को भी अपनी सीटों की रिपोर्ट सौंपी है। सूत्रों का कहना है कि 15 जून को एनडीए की बैठक से पहले बंद कमरे में लगभग 2 घंटे तक चली एक अन्य बैठक के बाद हाई कमान ने प्रदेश संगठन से भितरघात करने वालों को चिन्हित कर रिपोर्ट मांगी है। उधर, प्रदेश संगठन ने प्रदेश के सभी हारे प्रत्याशियों से लेकर कम वोटों से जीते सांसदों से भी एक-एक सीट की बूथवार रिपोर्ट मांग ली है। बहरहाल, इन तमाम कवायद के बावजूद उत्तर प्रदेश भाजपा में उथल पुथल मची है। दो साल बाद ही राज्य में विधानसभा चुनाव होना है। केंद्रीय संगठन की तरफ से राज्य इकाई में अकस्मात कोई गंभीर बदलाव हो जाए तो कोई बड़ा आश्चर्य नहीं

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शिवा शंकर पाण्डेय

लेखक सबलोग के उत्तरप्रदेश ब्यूरोचीफ और नेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट आथर एंड मीडिया के प्रदेश महामंत्री हैं। +918840338705, shivas_pandey@rediffmail.com
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