बिहार विधानसभा चुनाव 2020: चित भी मेरी पट भी मेरी
हमेशा की तरह इस बार भी बिहार विधानसभा चुनाव देश भर में दिलचस्पी का सबब बना हुआ है। बिहार हिन्दी क्षेत्र का इकलौता राज्य है जहाँ, अपनी बदौलत सत्ता प्राप्त करना, भारतीय जनता पार्टी के लिए दुःस्वप्न सरीखा रहा है। राम मंदिर आन्दोलन के अपने उभार व उठान के दिनों में भी भाजपा को जहाँ लगभग सभी प्रमुख राज्यों में सरकार बनाने में सफलता मिल चुकी थी, वहीं बिहार उससे अछूता रह गया था। बिहार में सत्ताप्राप्ति हमेशा से भाजपा लिए एक टेढ़ी खीर रहा है। यहाँ अब तक वो नीतीश कुमार के जूनियर पार्टनर की भूमिका से ही संतुष्ट रही है।
2015 में भाजपा नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को आधार बनाकर बिहार विधानसभा चुनाव को जीत लेना चाहती थी। इसके लिए काफी प्रयास भी किए गये। अपनी अचूक रणनीति, धार्मिक ध्रुवीकरण के आजमाए हुए नुस्खों और तमाम प्रबन्धन के बावजूद भाजपा को मुंह की खानी पड़ी। लालू प्रसाद, नीतीश कुमार और कांग्रेस के गठबन्धन को बहुमत प्राप्त हो गया था। लेकिन जैसा कि भाजपा ने कनार्टक, गोवा, मध्यप्रदेष आदि राज्यों में किया यहाँ भी चुनाव हारने के लगभग डेढ़ वर्ष बाद ही सरकार में पिछले दरवाजे से वापस आ गयी। इस कार्य में उनके पुराने सहयोगी नीतीश कुमार ने सहायता की। नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने रहे सिर्फ उनकी सहयोगी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के बदले भारतीय जनता पार्टी हो गयी।
तो क्या भाजपा की नियति बिहार में महज जूनियर पार्टी बने रहने की है? 2020 के विधानसभा चुनाव में क्या भाजपा को बिहार में क्या अपनी ताकत की बदौलत सरकार बनाने में सफलता हाथ नहीं लगेगी? इस वक्त जब भाजपा अपने राजनीतिक कैरियर के लिहाज से सबसे उंचाई पर कही जा सकती है तो क्या अब भी वो बिहार में सिर्फ छोटे भाई की भूमिका से ही संतुष्ट बनी रहेगी? जाहिर है ये सब बातें भाजपा के घाघ रणनीतिकारों के दिमाग में रही होगी तभी उसने बिहार में एक ऐसा राजनीतिक पासा फेंका कर रही है जिसे देख पुराने रणनीतिकार भी दांतों तल उंगली दबाए हुए हैं।
भाजपा ने इस दफे बहुत सधा हुआ पर सावधानी से कदम उठाया है। बिहार में चुनाव नीतीश कुमार की अगुआई में लड़ा जा रहा है। प्रकट रूप से मुख्यमंत्री के चेहरा वही बनाए गये हैं लेकिन पीछे से ऐसा इंतजाम किया गया है कि उनकी पार्टी जद(यू) की राह में कांटे ही कांटे बिछे नजर आ रहे हैं। सियासी रूप से बिहार की सचेत समूची जनता इस बात से वाकिफ है कि भाजपा का मुख्य दुश्मन एन.डी.ए गठबन्धन के बाहर नहीं बल्कि उसके भीतर ही है। तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले महागठबन्धन से पहले भाजपा नीतीश कुमार को ही ठिकाने लगाने का उपाय कर चुकी है। अपने राजनीतिक कैरियर में नीतीश कुमार एक ऐसी जगह खड़े हैं कि वो अपने लिए बिछाए गये जाल का साफ-साफ देख कर भी उसे चुपचाप सहने व बर्दाश्त करने के लिए अभिशप्त हैं। उनके विकल्प समाप्त हो चुके हैं या कहें खुद उन्होंने अपने हाथों से उसे बंद कर दिया था। इस मायने में नीतीश कुमार एक ऐसे त्रासद शख्सीयत के बतौर खड़े हैं जो अपनी नियति देखते हुए भी असहाय है।
भाजपा भले खुद को नीतीश कुमार के साथ गठबन्धन में कह रही है परन्तु वो बिहार के सभी सीटों पर चुनाव लड़ रही है। 243 विधानसभा की 121 सीटों पर खुद अपने चुनाव चिन्ह तो बाकी पर लोजपा के चुनाव चिन्ह पर। इस व्यूहरचना का मुख्य मकसद यह है कि एंटी इन्कम्बैंसी फैक्टर को अकेले नीतीश कुमार को झेलने पर मजबूर करना। पिछले 15 सालों के एन.डी.ए शासनकाल के दौरान, जिसमें बीच के डेढ़ वर्षों को छोड़, भाजपा नीतीश कुमार के साथ रही है। अतः अब वो चाहती है कि इन 15 सालों के दौरान एन.डी.ए द्वारा जो भी पाप किए गये उसका फल नीतीश कुमार अकेले भुगतें। नीतीश सरकार के प्रति आम जनता में जो असंतोष है, आक्रोष है उसे नीतीश कुमार के साथ साझा करने के लिए वो तैयार नहीं है। वो अपने सामाजिक आधार में यह सन्देश देना चाहती है कि वो खुद नीतीश कुमार से छुटकारा चाहती है।
इसके लिए एन.डी.ए के एक प्रमुख सहयोगी लोजपा द्वारा नीतीश कुमार की पार्टी जद(यू) द्वारा लड़ी जा रही सभी 122 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करवा रही है। ताकि प्रकट रूप से अपने ही पुराने सहयोगी को हलाल करने की बदनामी उनके सिर पर न आ जाए। आखिर नीतीश कुमार भाजपा के वैसे पहले सेक्यूलर सहयोगी रहे हैं जिसने उसे उसकी सांप्रदायिक राजनीतिक के बावजूद उन्हें स्वीकृति प्रदान करने में सहायता प्राप्त की थी।
लोजपा का कैरियर भी बेहद दिलचस्प है 2005 में 15 सालों की लालू प्रसाद की सत्ता की समाप्ति और नीतीश कुमार के बिहार में सत्तासीन करने में निर्णायक भूमिका निभायी थी। क्या लोजपा की नयी भूमिका फिर 15 वर्षों के पश्चात नीतीश कुमार की विदाई का संकेत तो नहीं है?
लेकिन ठहरिए यह रणनति का सिर्फ एक पहलू है। भाजपा बिहार में कोई रिस्क लेना नहीं चाहती। उसके लिए अब तक अपरोजय रहे इस क्षेत्र में खेला गया दांव कहीं उल्टा तो नहीं पड़ जाएगा? इसलिए वो लगातार बीच-बीच लोजपा को बंदरघुड़की देती रहती है कि वो एन.डी.ए का हिस्सा नहीं है। ‘वो अपने बैनर-पोस्टर पर नरेंद्र मोदी के नामों का उपयोग नहीं करेगी’ ‘मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बनेंगे भले ही उन्हें बहुमत मिले या न मिले।’
भाजपा ने यह कार्य रामविलास पासवान के मृत्युशय्या पर पड़ने के दौरान ही कर दिया था। संभवतः रामविलास पासवान को अपने लोजपा को भाजपा का हास्यास्पद विदूषक बनते देखना मंजूर न होता लिहाजा उनके महत्वाकांक्षी पुत्र पर दांव खेला गया। दास मनोवृत्ति वाले उनके महत्वाकांक्षी पुत्र से बेहतर भाजपा के इस खेल को पूरा कौन कर सकता था?
नीतीश कुमार ने अपने 15 सालों के कार्यकाल में गिनाने लायक काफी सारे काम किए मसलन महिलाओं को पंचायत में 50 प्रतिशत आरक्षण, अतिपिछड़ों के लिए आरक्षण, महादलितों के लिए अलग से प्रावधान, पसंमांदा मुसलमानों को सियासी प्रतिनिधित्व के साथ-साथ थोड़ी बहुत सुविधाएं। यदि एक तरह से देखें तो लालू प्रसाद के कार्यकाल में सामाजिक नयाय की जो धारा ठहर सी गई थी उसके उन्होंने आगे ही बढ़ाया। लेकिन यहाँ नीतीश कुमार ने ठीक वही गलती दुहरायी जो लालू प्रसाद के अंत का कारण बनी थी। लालू प्रसाद ने सामाजिक न्याय की प्रतिनिधित्वमूलक राजनीति को तो बढ़ाया लेकिन अपने सामाजिक समूह के भौतिक आधार को आगे कैसे बढ़ाया जाए इसे लेकर उदासीन रहे। या कहें उस दिशा में जाने का जो कठिन व खतरनाक रास्ता था उससे आँखें चुराते रहे। संपत्ति के पुराने व पारम्परिक सम्बन्धों से टकराने का रास्ता था उससे सचेत रूप से बचते रहे। अतः नवउदारवादी दौर में उनके पास विकल्प बेहद कम रह गये थे। उन्हें विकास के नवउदारवादी मॉडल को ही अपनाने पर मजबूर होना पड़ा। शिक्षकों के नियोजन की जिस नीति पर चलकर आज नीतीश कुमार आज शिक्षकों के बड़े समुदाय का कोपभाजन बनने को अभिशप्त हैं उसका प्रारंभ 2003 में लालू प्रसाद ने ही शिक्षामित्रों की बहाली के रूप में किया था।
नीतीश कुमार नारा विकास का देते रहे बल्कि ‘ न्याय के साथ विकास’ लेकिन रास्ता वहीं चुना जिसे वल्र्ड बैंक, अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने चलने के लिए कहा था। बिहार जैसे गरीब प्रदेष में विकास का यह नवउदारवादी या कहें साम्राज्यवादी मॉडल समाज के चंद मुट्ठी भर लोगों की जेबें भरने के काम आता रहा। भाजपा यही नीतियाँ हर जगह लागू करती रही। नीतीश कुमार को भी उसने इसी रास्ते पर चलने को मजबूर किया या कहें प्रेरित किया। नीतीश कुमार द्वारा भूमि सुधार के लिए डी बंद्योपाध्याय की सिफारिषें लागू करने से पीछे हटना, काॅमन स्कूल सिस्टम लागू करने जैसे रैडिकल कदम भाजपा सरीखी पूंजीपतियों की पसंदीदा पार्टी के साथ रहकर नहीं उठाए जा सकते थे।
आज नीतीश कुमार के प्रति जो व्यापक असंतोष दिख रहा है उसकी जड़ में यही जनविरोधी नीतियाँ है जिसपर चलना मानो राज्य सरकारों का प्रारब्ध बन चुकी है। भाजपा का नीतीश कुमार जितना फायदा पहुंचा सकते थे वो पहुँचा चुके। उसके लिए उनकी उपयोगिता समाप्त हो चुकी है। 2020 का चुनावी समीकरण इस बात का स्पष्ट संकेत है।
28 अक्टुबर को पहले चरण की 71 सीटों पर चुनाव होने हैं। इसमें अधिकांषतः मगध इलाके की सीटें हैं। नीतीश कुमार को बाँधने की जो अभूतपूर्व चालाकी भाजपा ने दिखलायी है उसकी सभी दाद दे रहे हैं। लेकिन भाजपा को मगध इलाके की एक पुरानी कहावत भी याद रखनी चाहिए। ‘जो ढ़ेर चलाक बनता है, वो तीन जगह मखता है। (जो बहुत चालाक बनता है उसे तीन जगह धोखा खाना पड़ जाता है।)
नीतीश कुमार को सबक सिखाने के चक्कर में कहीं खुद हीं न लेने के देने पड़ जायें।
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