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बिहार विधानसभा चुनाव का पहला चरण समाप्त हो चुका है। अब 3 नवम्बर के लिए दूसरे चरण के लिए प्रचार-प्रसार और तैयारी तेज हो गयी है। सभी दल के राष्ट्रीय नेताओं का दौरा निरन्तर जारी है। 71 सीटों के लिए हुए चुनावों के पश्चात जिस दूर-दराज के क्षेत्रों से जिस ढ़ंग की खबरें आ रही है उसने एन.डी.ए नेताओं की नींद उड़ा दी है। मात्र दस दिनों पूर्व तक दिल्ली से आने वाले सर्वेक्षणकर्ता और टिप्पणीकार बार-बार इस बात को दुहरा रहे थे बिहार में तो चुनावी लड़ाई लगभग एकतरफा है। जद-यू, भाजपा का गठबन्धन आसानी से बिहार में सत्ता वापसी कर लेगा। ओपीनियन पोल में एन.डी.ए द्वारा बहुमत प्राप्त करने की बात की गयी। लेकिन जमीनी स्तर पर हालात बेहद भिन्न थे। जनता में बदलाव का मूड नजर आ रही है।
लेकिन बिहार के चुनावों में, लोगों के जीवन से जुड़े मुद्दे, केंद्रीय एजेंडा बनते जा रहे हैं। महागठबन्धन के प्रतिनिधि तेजस्वी यादव द्वारा जिस प्रकार 10 लाख सरकारी नौकरी देने की बात ने युवाओं का ध्यान आकृष्ट किया है वह बिहार की राजनीति में एक नये बदलाव का संकेत दे रहा है।
15 वर्षों तक निरन्तर नीतीश कुमार के शासन के विरूद्ध एक असंतोष तो था ही पर कोराना संकट ने बिहारी समाज की तमाम दरारों को उभार कर रख दिया। लोगों में अपने हालात से उबरने की जो बेचैनी, जद्दोजहद थी वो एक विकल्प की तलाश में थी। यानी जनता थोड़ी चेंज के मूड में लग रही है। जाति की पुरानी दरारें दरकती नजर आ रही है।
अभी बिहार में दो चरणों के चुनाव होने बाकी है जिसमे दूसरे चरण के लिए 94 तथा तीसरे चरण के लिए 76 सीटों के लिए मतदान होने है। संभव है भाजपा व एन.डी.ए गठबन्धन पहले चरण में पिछड़ने के बाद अपनी विशाल चुनावी मशीनरी, बूथ प्रबन्धन तथा मीडिया की बदौलत हवा के रूख को थोड़ी बदलने की कोशिश करे परन्तु बदलाव की आकांक्षा में, लोगों में परिवर्तन आ पाएगा, इसमें संदेह है।
राजनीतिक तौर पर भाजपा ने जो दांव जद-यू के लिए चला था अब उसमें खुद भी फंसती जा रही है। अपने पुराने सहयोगी नीतीश कुमार को निपटाने के चक्कर में कहीं वो खुद भी न सिमट जाए ये डर उसे सताने लगा है। लोजपा के बहाने भाजपा जद-यू और नीतीश कुमार को तो डैमेज कर ही चुकी है। हर उस जगह, जहाँ एन.डी.ए की ओर से जद-यू को सीट गयी है, वहाँ-वहाँ भाजपा ने अपने उम्मीदवार लोजपा के बैनर से खड़े किये हैं। भाजपा ने अपने सवर्ण सामाजिक आधार को लोजपा में शिफ्ट कर जद-यू को निर्णायक रूप से कमजोर कर दिया है। अब कहीं जद-यू का भी अतिपिछड़ों का सामाजिक आधार कहीं भाजपा को नुकसान न पहंचा डाले इसलिए वो बार-बार इस बात को दुहरा रही है कि नीतीश कुमार ही बिहार के मुख्यमन्त्री बने रहेंगे, ताकि वो सामाजिक आधार छिटके नहीं।
लेकिन राजनीति पैतरे कागज पर जितने आसानी से बनाए जाते हैं जमीन पर कई दफे उसका उलटा असर होने लगता हैं। जद-यू के समर्थक व उनका आधार अब भाजपा को वोट करेगा इसे लेकर लोगों में संदेह है। दोनों पार्टियों के नेताओं व कार्यकर्ताओं में सामंजस्य काफी कमजोर है। वैसे हार के आसन्न खतरे को देखते हुए उसे दुरूस्त करने की काफी कोशिशें भी जारी है। एन.डी.ए गठबन्धन को खुद भाजपा ने, चालू बनने की अपनी प्रवृत्ति के कारण अस्थिर कर दिया। बिहार को भाजपा शासित राज्यों की तरह मनमाने ढ़ंग से चलाने की कोशिश उन्हें ही भारी पड़ती नजर आ रही है।
दूसरी ओर महागठबन्धन में शुरूआती खींचतान के बाद अब आपसी समन्वय बेहतर हो चला है। महागठबन्धन के नेताओं- राजद, कांग्रेय, सी.पी.आई, सी.पी.एम और सी.पी.आई-एमएल, की नियमित बैठकों ने यह स्थिति पैदा की है। साझा घोषणापत्र, साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस आदि से सदभाव का एक बेहतर माहौल बना है। इन वजहों से महागठबन्धन अपेक्षाकृत अधिक एकजुट और संगठित दिखती है।
इसके अलावा संभवतः पहली दफे राजद, कांग्रेस ने अपने घोषणापत्रों को थोड़ा श्रम लगाकर तैयार किया है। सामाजिक, न्याय व धर्मनिरपेक्षता के बजाए रोजगार, कोराना और कृषि क्षेत्र की समस्याओं को अधिक महत्व प्रदान किया गया है।
वामदलों के घोषणापत्र पहले भी अपनी गंभीरता लिए हुआ करते थे लेकिन पहली बार राजद-कांग्रेस में भी थोड़ा जनपक्षधर रूझान, खासकर लोगों के रोजी-रोटी से जुड़े मुद्दों केा तवज्जो देने के मामले में, दिखाई पड़ रही है। दूसरे ढ़ंग से कहा जाए कि व्यापक संकट के दौर में राजद वाम की ओर झुकी नजर आती है, कम से कम घोषणापत्रों में ही सही। ये एक नया संकेत है। बिहार के चुनावी इतिहास में कभी भी घोषणापत्रों ने ऐसा प्रमुख स्थान नहीं ग्रहण कर रहा था जब लोग और मीडिया दोनों घोषणापत्रों में किए गए वादों के गुण-दोष के आधार पर निर्णय करने का मानस सा बनता दिख रहा है।
राजद द्वारा 10 लाख सरकारी नौकरी देने के आकर्षक वादे के मुकाबला करने की हड़बड़ी में भाजपा ने 19 लाख रोजगार देने का वादा तो किया ही एक ऐसा वादा भी कर दिया जो न सिर्फ उसे बिहार बल्कि पूरे देश में हंसी का पात्र बना डाला। भाजपा की वितमंत्री निर्मला सीतारामन ने घोषणा पत्र का जारी करते हुए कहा ‘‘यदि हम बिहार मे चुनाव जीते और अगर कोराना वायरस की दवा का आविष्कार हो जाता है तो सभी बिहार वासियो को ये दवा मुफ्त मुहैया करायी जाएगी।’’ इस वादे ‘अगर’ शब्द के प्रयोग ने जो व्यंग्य छुपा है उसे सबों ने देखा।’’
तीन कम्युनिस्ट पार्टियों भाकपा, माकपा और भाकपा-माले-लिबरेशन के महागठबन्धन में आने से एक आवेग, एक तेजस्विता प्राप्त हो गयी है जिससे तेजस्वी यादव महज चंद दिनों एक नयी उर्जा से भरे नजर आ रहे हैं। कन्हैया कुमार की सभाओं में काफी पहले से भीड़ रहती आई है पर हाल मे तेजस्वी यादव की सभाओं की विशाल भीड़ में बिहार में बह रही नये बयार के लक्षण दिखाई देने लगे हैं।
वाम नेताओं में भाकपा-माले-महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य के तीखे वैचारिक -राजनैतिक तेवरों और उसे मीडिया में मिल रहे स्पेस के कारण वो भाजपा के निशाने पर आ गयी है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे. पी. नड्डा, बिहार प्रभारी भूपेंद्र यादव ने जिस प्रकार वामपंथ पर हमला शुरू कर दिया है उसने चुनावों के राजनीतिक तपमान को काफी बढ़ा दिया है।
वैसे भी बिहार के तीन दशकों का चुनावी इतिहास बताता है कि लालू प्रसाद के नेतृत्व वाली पार्टी ने जब-जब वामपंथी दलों से सहयोग से चुनावी लड़ी वो चुनाव जीतती रही है और जब भी गठबन्धन टूटा है लालू प्रसाद को हार का सामना करना पड़ा है। क्या वामपंथ और राजद का गठजोड़ फिर से अपनी पुरानी सफलता फिर से दुहराएगा? ये सवाल सबों के मन में है।
महागठबन्धन के पक्ष में न सिर्फ इसके सामाजिक आधारों में बल्कि दूसरे समूहों में भी समर्थन की सूचना प्रापत हो रही है। जातिगत चश्में से बिहार के समाज और राजनीति को देखने वाले लोगों को समझ में ही नहीं आ रहा है कि जब जातिगत समीकरण भाजपा-जद-यू के पक्ष में है तो ये कैसे हो गया कि जनता महागठबन्धन में हो गयी, बतायी जा रही है। ये पेंच उन्हें समझ नहीं आ रहा।
दरअसल जाति को ठहरी हुई, जड़ इकाई मानने वाले चुनावी विश्लेषकों के लिए बिहारी समाज की गतिशीलता हमेशा एक पहेली सी रही है। वैसे भी ‘जाति’ का नैरेटिव तभी काम करता है जब उसके बरक्स कोई बड़ा नैरेटिव अनुपस्थित रहता है। ‘बदलाव’ का नैरेटिव ‘जाति’ के नैरेटिव पारंपरिक नैरेटिव को ध्वस्त कर देता है। बिहार में किसी जाति के पास 12 प्रतिशत से अधिक आबादी नहीं है लिहाजा किसी अकेले अपने दम पर सत्ता में आना किसी एक जाति के लिए संभव नहीं है जातियों का मिला-जुला गठबन्धन ही सरकार बना सकता है। जातियों के इस गठबन्धन को बनाने के लिए राजनीतिक नारे की आवश्यकता होती है। लालू प्रसाद ने यह कार्य सामाजिक न्याय के नाम पर किया था। धर्मनिरपेक्षता उसका दूसरा पहलू था। अपेक्षाकृत बेहद कम सामाजिक आधारों वाले नीतीश कुमार ने ‘न्याय के साथ विकास’ के नोर के इर्द-गिर्द यह व्यापक गठबन्धन बनाया।
बिहार में ऐसा प्रतीत होता है मानो इतिहास खुद को दुहरा रहा हो। 15 वर्षों के पश्चात 2005 जिस प्रकार लालू प्रसाद के लिए था उसी प्रकार, 15 सालों के बाद 2020 नीतीश कुमार के लिए साबित हो सकता है। लालू प्रसाद से नीतीश राज के संक्रमण में लोजपा ने एक प्रमुख भूमिका निभायी थी। उसी प्रकार लोजपा 2020 में 2005 की तरह का रोल अदा करने के लिए तैयार बैठी नजर आती है।
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