बदलता गाँव, बदलता देहात: नयी सामाजिकता का उदय
आज जिस पुस्तक की मैं समीक्षा लिखने जा रहा हूँ, यह एक अनोखी पुस्तक है, वह इसलिए क्यूंकि सामजशात्री और लेखक सतेंद्र कुमार ने सामाजिक विज्ञान को एक कहनीनुमा अंदाज़ में पेश किया है. पुस्तक की समीक्षा करने से पहले मै लेखक को दो बातों के लिए बधाई देना चाहता हूँ ।
पहली बात जिसके लिए लेखक बधाई का पात्र हैं वो ये की मेरी नज़र में पड़ने वाली सामाजिक विज्ञान (समाज शास्त्र) की यह पहली पुस्तक है जिसको हिंदी या हिंदुस्तानी भाषा में प्रकाशित किया गया है, सबसे प्रसन्नता की बात यह है की यह कोई आम टेक्स्ट बुक, या कुंजी न होकर, लेखक द्वारा लगभग 15 वर्षों तक किये गए शोध कार्य का लेखा जोखा है, आज भारत में जहाँ भाषयी असमानता अपने चरम पर हैं, हिंदी भाषा में अपने शोध कार्य को पेश करने वाले साहसिक कदम के लिए लेखक बधाई के पात्र हैं, अपने पहले संस्करण को हिंदी में प्रकाशित कर लेखक ने समाज शास्त्र में अंग्रेजी के वर्चस्व को एक चुनौती पेश की है ।
दूसरी बात जिसके लिए पुस्तक की तारीफ़ की जानी चाहिए वो है इसका कहानीनुमा अंदाज़- ए -बयाँ। यह कोई हिंदी साहित्य की पुस्तक नहीं है बल्कि शोध पर आधारित समाज शास्त्र है, मगर लेखक ने जिस आसानी के साथ समाज शास्त्र के कॉन्सेप्ट्स का इस्तेमाल किस्सों के साथ गूथ कर किया है, इसने समाजशास्त्र में एक नई जान फूंक दी है, इसका फायदा यह हुआ है की समाज शास्त्र से अपरिचित व्यक्ति भी इसको आसानी से पढ़ और समझ सकता है। यूँ तो शोध में बिना सन्दर्भ (रेफ़्रेन्स) के कुछ नहीं लिखा जा सकता मगर इस विधा में सन्दर्भ को लगभग न्यूनतम रखने की कोशिश की गई है और पारंपरिक सामजशास्त्रीय लेखनी से अलग हटकर, एंव ‘इसने ये कहा, उसने ये कहा’ वाली सन्दर्भ पद्यति से आगे बढ़कर यह पुस्तक सन्दर्भ और पुराने किया गए शोध कार्यों को एक संवाद के रूप में पेश करती है। मेरे नजरिये से इस पद्यति के इस्तेमाल से यह पुस्तक शोध कार्यों को आम लोगों तक पहुँचाने में भी सफल रही है, तथा इसकी भाषा और लेखन शैली सामजशात्र को रोचक बनाकर इसको विस्तृत करने में भी सफल रहेगी । यूँ कहे तो इस लेखन शैली से न सिर्फ समाजशास्त्र की प्रसंगिगता बल्कि इसकी लोकप्रियता में भी बढ़ोतरी होगी।
अब बात पुस्तक के अध्यायों की
लगभग 15 वर्षों से लेखक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों पर किये गए शोध कार्य को इस पुस्तक में छह अध्याय के माध्यम से पेश करते है। गाँव अध्यन की परम्परा में रची बसी यह पुस्तक हमें गाँव में बदलती जीवनशैली से रुबरु कराती है, इसमें ग्रामीण समाज को कोई स्थाई या शहरी जीवन के विलोम के बजाए ग्रामीण समाज को शहर-गाँव के उभरते सम्बन्ध, राष्ट्रीय और अंतरास्ट्रीय परिघटनाओं के परिपेक्ष में रखकर इसकी विवेचना की गई है। हालाँकि, लेखक गाँव और ग्रामीण समाज को एकाकी इकाई मानने से इंकार करते हैं, मगर वह सिरे से इस बात का भी खंडन करते हैं की भारत में गाँव शहरीकरण के कारण समाप्त हो जाएंगे। इसके विरुद्ध यह शोध कार्य हमारे सामने गाँव को पुनर्स्थापित करता है और नई सामाजिकता से पुनर्निर्मित होते गाँव से हमें अवगत करता है। यह पुस्तक गाँव को केवल एक रहने की जगह की बजाय एक सामाजिक स्पेस की तरह मानकर इसका विश्लेषण करती है।
पुस्तक के छह अध्याय में पहला हमें कृषि और खेती में आए संकट से अवगत करते हैं, यह बताते है की किस प्रकार 1990 की निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों के कारण खेती छोटे और माध्यम वर्गीय किसानो के लिए एक नुक्सान का सौदा बन गई है, खेती में आए इस संकट और गांव की बदलती अर्थव्यवस्था को पहला अध्याय बहुत ही मार्मिक ढंग से पेश करता है।
दूसरा अध्याय गाँव समाज में लोकतंत्र से उभरी व्यवस्था का विश्लेषण करता है, यह अध्याय गाँव में जाति, वर्ग और धर्म के राजनितिक इस्तेमाल पर शानदार टिपण्णी करता है, यह अध्याय हमें दर्शाता है की क्यों भले ही भारत के गाँव भले ही ‘छोटे गणराज्य’[1] न हो मगर लोकतंत्र की प्रक्रिया में वो अब रच बस चुके है, हालाँकि दबंग वर्गों का इस लोकतंत्र की प्रक्रिया को केवल अपने फायदे के लिए ही इस्तेमाल करने का खतरा बना हुआ है, मगर इस प्रक्रिया ने गाँव में जो बदलाव किये हैं, उसका वर्णन इस अध्याय में बखूबी किया गया है।
तीसरा अध्याय हमें गाँव के यवा वर्ग के सपने और उनकी महत्वकांशा से हमें रूबरू करता है, यह अध्याय भारत की उस पीढ़ी की दशा-दिशा या कहिये की दुर्दशा से हमें परिचित करता है, जिसके बाहुबल से भारत अपने को विकसित देश बनने का ख्वाब देखता है।
अध्याय चार हमें इक्सस्वी सदी में हुई दो महत्वपूर्ण क्रांति और ग्रामीण जीवन में उनके कारण आए बदलाव से अवगत करता है, यह अध्य हमें मोबाइल और मोटरसाइकिल के बढ़ते इस्तेमाल और इसके उपयोग से बढ़ते गाँव के बारे में बताता है, यह बताता है की मोबाइल के कारण किस प्रकार पारपंरिक आमने सामने वाली ग्रामीण सामजिकता का क्षरण हुआ है और गाँव देहात कितनी तेजी से राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर की सामजिकता से जुड़े है। मसलन गाँव में लोग चौपाल पर बैठने के बजाए दुबई या अन्य शहरों में बेस अपने रिश्तेदारों से ज्यादा जुड़े हैं। इस प्रकार गाँव समाज में एक निजिता का भाव बढ़ा है। हालाँकि तकनीक से लोगों का काम आसान भी हुआ है और जैसा की हम जानते है इसका राजनीती में भी जमकर उपयोग हुआ है, इन सभी पहलुँओं पर कई किस्सों के माध्यम से यह अध्याय प्रकाश डालता है।
अभी हाल ही में कांवड़ यात्रा संपन्न हुई और शहरों में बैठे उदार व्यक्तित्व के स्वामियों ने राज्य समर्थित इन भव्य आयोजनों पर मीडिया में तीखी टिपणियां भी की, पुस्तक का पांचवा अध्याय गाँव समाज में उत्पन्न हुई इस नई धार्मिकता की पड़ताल करता हैं, और यह धार्मिकता किस प्रकार कई व्यक्तियों के छोटे छोटे मगर महत्वपूर्ण किस्सों से इतना विकराल रूप लेती है से हमें अवगत करता है, इस अध्याय को पढ़ने के बाद आप पाएंगे की संगठित धर्म की स्थापना और उसके प्रचार प्रसार में जितना योगदान कुछ संगठनों का रहा है, उतना ही योगदान निजी जीवन में कुछ अलग महसूस करने वाले अनुयायी का भी रहा जो इस धार्मिकता के कारण ही अपनी एक पहचान खोज रहे हैं.
पुस्तक का आखिरी अध्याय ग्रामीण समाज में आये बदलाव और उत्पन होती नयी सामजिकता को समझने के लिए हमें कुछ बिंदु प्रदान करता है, इस अध्याय में लेखक गाँव की महत्व और इसके बदलते परिपेक्ष में उत्पन्न होते नए रिश्तों पर प्रकाश डालता है।
यह शोध कार्य आज के ग्रामीण भारत में हो रहे बदलाव को समझने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है, एंव मुझे उम्मीद है की यह शोध कार्य गाँव देहात के व्यक्तियों के निजी जीवन में आ रहे बदलाव जैसे की उनका लैंगिकता को लेकर विचार, अंतर्जातीय विवाह को लेकर उनका ख्याल या जाति से ऊपर चलकर बढ़ते व्यक्तिवाद की जांच करने में बेहद महत्वपूर्ण साबित होगा।
मैं पुनः लेखक को इस पुस्तक के लिए बधाई देता हूँ और उम्मीद करता हूँ की यह पुस्तक उत्तर भारत (हिंदी प्रदेश) के सभी विश्विद्यालयों में एथनोग्राफी से उपजे ज्ञान, उसके वर्णन और लेखनी के बेहतरीन अंदाज़ के लिए उनके पुस्तकालय का हिस्सा बनेगी।
बदलता गाँव, बदलता देहात: नयी सामाजिकता का उदय
लेखक सतेंद्र कुमार
प्रकाशक– ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 2018
पेज स. 156; मूल्य 295 रूपये
[1] चार्ल्स मेटकॉफ की परिकल्पना से उधार