पुस्तक-समीक्षा

अंधेरे में रोशनी तलाशती एक किताब 

 

मशहूर समाजवादी सच्चिदानंद सिन्हा ने अपने निबंध- ‘इक्कीसवीं सदी का समाजवाद: नए मूल्यबोध’ में लिखा है- “इस तरह की विकसित नई अर्थव्यवस्था और नए मूल्यबोध के लिए हमें शायद जीवन के उन आयामों को पुनर्जीवित करना होगा जिनके कुछ तत्व आदिम जनजातियों में पाए जाते हैं जिन पर आधुनिक सभ्यता के विनाशकारी तत्वों का कम प्रभाव पड़ा है।” आदिम जनजातियों में वे कौन से तत्व हैं जो जीवन के लिए नए मूल्यबोध पैदा करते हैं? या कहें कि जो औद्योगिक सभ्यता मनुष्य और प्रकृति को नष्ट करने पर तुली है, उसके बरक्स वे कौन सी आदिम जनजातियों के गुण हैं जो उनके सामने खड़ी होकर चुनौती दे सके? लंबे समय से समाज और ख़ासकर आदिवासी समाज में सक्रिय कार्यकर्ता घनश्याम ने आदिम जनजातियों के उन तत्वों की तलाश अपनी पुस्तक ‘सभ्यता का संकट बनाम आदिवासियत’ में की है। यह किताब नमस्कार बुक्स, नई दिल्ली के द्वारा प्रकाशित है। किताब महज़ 192 पृष्ठों में है, लेकिन बहुत ज़रूरी किताब है।

इस किताब में नौ लेख हैं जिनमें से एक है- आदिवासियत : एक विचार सह जीवन पद्धति। इस लेख में वे लिखते हैं- “आदिवासी समुदाय के लिए तीन बुनियादी आधार क्या हैं, इसे समझना चाहिए। पहला है- स्वशासन; दूसरा है- स्वावलंबन और तीसरा है- स्वाभिमान। तीनों एक दूसरे के पूरक हैं। तीनों के बीच अन्योन्याश्रय संबंध है।” हम जिस औद्योगिक सभ्यता को हवा दे रहे हैं, उनमें ये तीनों तत्व ग़ायब हैं। हम अपने द्वारा नहीं, दूसरे के द्वारा शासित हैं और दूसरों की कृपा पर जीते हैं।

विज्ञापन के माध्यम से जीवन के लिए जो ग़ैरज़रूरी चीजें हैं, उनको भी ज़रूरत बनाकर स्वावलंबन ख़तरे में है और इसके नतीजे हैं कि हम स्वाभिमान में नहीं, अभिमान में जीते हैं। दूसरा तथ्य यह है कि आदिवासी समाज प्रकृति केंद्रित है, इसलिए उनके लिए जल, जंगल और ज़मीन संसाधन या वस्तु नहीं हैं। उनके लिए ये धरोहर हैं, और धरोहर का संबंध पुरखों से जुड़ता है। औद्योगिक सभ्यता के लिए प्राकृतिक चीजें सिर्फ़ संसाधन हैं जिनका इस्तेमाल हम जैसा चाहें, करें। यही वजह है कि हम अपने स्वार्थ और तथाकथित लाभ के लिए छत्तीसगढ़ के घने हंसदेव के जंगलों को उजाड़ने से परहेज़ नहीं करते और उसके लिए उलटे सीधे तर्क गढ़ते रहते हैं।

घनश्याम अपनी इस किताब में याद दिलाते हैं कि आदिवासी एकल जीवन नहीं जीते। उनमें सामूहिकता और सामुदायिकता कूट कूट कर भरी है, इसलिए उनके नृत्य सामूहिक होते हैं और वे जल, ज़मीन, जंगल, पशुधन, कुक्कुट, पक्षियों और जड़ी बूटियों के साथ जीते हैं। आज हम जिस सभ्यता की ओर बढ़ रहे हैं, उनमें पशु और पक्षियों के लिए स्पेस की बात छोड़ दीजिए, हम अपने माँ-पिता के लिए भी स्पेस नहीं देते। मनुष्य अगर सामाजिक प्राणी है तो सामाजिकता उसका सबसे महत्वपूर्ण गुण होना चाहिए।

कभी राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने चिंता व्यक्त की थी- “अपने में सबकुछ भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा/ यह एकांत स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा।” आदिवासी ध्यान दिलाते हैं कि प्रकृति, प्राणी और मानव समुदाय का एक दूसरे पर अवलंबन है जिसके अंदर पाँच आयाम गुँथे हैं- आजीविका, संप्रभुता, आनंद, स्वास्थ्य और शिक्षा। यह किताब करोना काल में लिखी गयी थी और घनश्याम ने देखा था कि जब भारत में आधुनिक सभ्यता के शिखर पर बैठे महानगर- मुंबई, अहमदाबाद और दिल्ली करोना से कराह रहे थे और पटापट लोग मर रहे थे तो आदिवासियों पर इसका असर न के बराबर था। उनका इम्यून सिस्टम इतना मज़बूत था कि कोरोना वायरस उनको छूने से परहेज़ करता रहा।

इस किताब में इस लेख के अलावे आठ लेख हैं- ‘ठप पड़ी दुनिया’, ‘विकास-चिंतन’, ‘कोरोना का कल्चर’, ‘विकास की देशज यात्रा’, ‘ स्वैच्छिक अभिक्रम के अनजाने रास्ते’, ‘घर लौटता झारखंड’, ‘योजना-आयोजना’ और ‘सलाम मधुपुर’। घनश्याम सिर्फ़ बौद्धिक नहीं हैं, बल्कि समाज के हर मोर्चे पर खड़े हैं, इसलिए इनके लेखों में लफ़्फ़ाज़ी नहीं है। वे इनके अनुभवों से पगे हैं। ज्ञान को व्यावहारिक स्तर पर कैसे उतारा और जीया जाय, उन्होंने इसकी सफल कोशिश की है। ‘ठप पड़ी दुनिया’ में कोरोनावायरस के दुष्प्रभावों के शिकंजे में पड़ी दुनिया की पीड़ा का वर्णन है।

दुनिया की सरकारों के दर्द का वर्णन करते हुए घनश्याम सवाल करते हैं-“ अब यहाँ ठहर कर सोचने की ज़रूरत है कि कोरोना वायरस का इतना विस्तार क्योंकर हुआ? क्या इसके लिए भू-मंडलीकरण की प्रक्रिया ज़िम्मेदार है? क्या भू- मंडलीकरण के इस दौर में बेतहाशा बढ़ रहा बाज़ार इसको विस्तार दे रहा है? या फिर कथित विकास के आधुनिक संयंत्र और यातायात के साधन इसको यहाँ तक पहुँचाने में सहायक बने हैं? जो भी हो। इस दुनिया के लिए अब भी यह चुनौती है कि इस वायरस का जन्म कहाँ हुआ और किसकी गलती से दुनिया के लाखों लोग मारे गये? घनश्याम इस लेख को लिखते हुए गांधी की उस टिप्पणी को भी याद करते हैं जिसमें गाँधी ने औद्योगिक सभ्यता को शैतानी सभ्यता कहा था।

इस किताब में एक महत्वपूर्ण लेख है- विकास-चिंतन। इसमें लेखक पिछले पाँच सौ वर्षों में जिस विकास चिंतन विकसित हुआ, उसको तीन सूत्रों में बँधाता है। पहला- लोग प्रकृति को महज़ संसाधन मानकर उस पर विजय प्राप्त कर अकूत मुनाफ़े कमा सकता है, दूसरा- इंसान के श्रम का शोषण कर प्रकृति और ब्रह्मांड का बेइंतहा दोहन किया जा सकता है और तीसरा- प्राकृतिक उपादनों को मानव के श्रम और दिमाग़ी बल पर उद्योग और तकनीक में बदला जा सकता है।

उपरोक्त विकास के तीनों सूत्र ने दुनिया के सामने बड़े बड़े संकट खड़े किए हैं, जिनसे उबरने के लिए रास्ते की तलाश करना आज का ज़रूरी कार्यभार है। इस क्रम में लेखक ने सुन्दरलाल बहुगुणा से लेकर आधुनिक विचारक शूमाकर के विचारों का उल्लेख करते हैं और अपने कार्यकर्ताओं के साथ गाँव-गाँव की पदयात्रा करते हैं। कभी जंगल बचाने का आंदोलन करते हैं और जब राष्ट्र पर आपातकाल की विपत्ति आती है तो जेल जाने से भी नहीं डरते। इस किताब में स्थल स्थल पर यह संकेत है कि प्रकृति के साथ रह कर हम विकास कैसे कर सकते हैं,इसलिए भी इस किताब को पढ़ा जाना चाहिए

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योगेन्द्र

लेखक तिलकामांझी विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष और छात्र संकाय के पूर्व अध्यक्ष रहे हैं। सम्पर्क yogendratnb@gmail.com
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