अक्क महादेवी के बहाने एक मुक़म्मल किताब
21वीं सदी में जिस प्रकार एक वृत के अंदर बंद हो कर रहना मनुष्य की नियति है, उसी प्रकार वृत के संकीर्ण घेरे से बाहर निकल जाना भी उसकी प्रकृति है। मनुष्य अपनी ज्ञानपिपासा में अपने उस वृत के संकीर्ण बंधनों को उत्तरोत्तर पार करता हुआ अपनी भाषा में प्रत्येक दूसरी भाषा, संस्कृति, समाज आदि की उत्कृष्ट उपलब्धियों को जोड़ता जाता है। इस प्रकार वह प्रत्येक दूसरी भाषा के उच्च मानदंडों के साहित्य से अपनी भाषा को न सिर्फ परिचित कराता चलता है बल्कि उसे समृद्ध भी करता चलता है। हिंदी भाषी समाज तथा हिंदी साहित्य-संसार में अन्य भारतीय भाषाओं और उनके साहित्य की अपेक्षित समझ और संवाद का घोर अभाव दिखता है। हिंदी भाषी समाज की एकदेशीय चिंता या अन्य इसी प्रकार की चिंताओं के परिणामस्वरूप हिंदी में विशेषतः दक्षिण भारतीय साहित्य के प्रति उदासीनता और दुराव की स्थिति देखी जाती है। हिंदी भाषा की इस जड़ स्थिति को तोड़ने की दिशा में सुभाष राय द्वारा लिखित सेतु प्रकाशन से सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‛दिगम्बर विद्रोहिणी अक्क महादेवी’ एक असाधारण प्रयास है।
विद्रोहिणी कवयित्री अक्क महादेवी पुस्तक के केंद्र में हैं जो लगभग एक सहस्त्राब्दी से कर्नाटक के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न अंग बनी हुई हैं। वे और उनकी रचनाएँ कर्नाटक के व्यापक जनसमाज के अवचेतन का हिस्सा हैं। वे एक साथ महान् सन्त, अद्वितीय वचनकार और विलक्षण कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हैं। अक्क महादेवी का वीरशैव आंदोलन से अविच्छिन्न संबंध है। दक्षिण का वीरशैव आंदोलन अपनी प्रसिद्धि और प्रभाव में अखिल भारतीय स्वरूप ग्रहण कर चुका था। इस पुस्तक में अनेक ऐसे नाम की चर्चा की गयी है जो देश के विभिन्न क्षेत्रों से कल्याण के सुखद समाज में जा कर रह रहे थे। यह आंदोलन भारतीय भक्ति आंदोलन की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। अक्क महादेवी के व्यक्तित्व पर कल्याण का गहरा प्रभाव था। वे कन्नड़ के क्रांतिकारी कवि बसवण्णा, महान संत कवि अल्लम प्रभु, चेन बसवण्णा और उन समस्त शरणों से कल्याण में ही मिली थीं जिनका प्रभाव वे अपने व्यक्तित्व पर स्वीकार भी करती हैं। हिंदी के संत कवि रैदास का जैसे आदर्श देश बेगमपुरा था और कबीरदास का अमरदेसवा, वैसे ही बसवण्णा का आदर्श देश कल्याण था जहाँ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था। इसमें श्रम, मानव देह, लोकभाषा और नर-नारी के रूप में मनुष्य की प्रतिष्ठा थी। महान समाजवादी क्रांतिकारी कन्नड़ कवि बसवण्णा द्वारा देखा गया समतामूलक समाज का एक सुंदर स्वप्न था कल्याण। यह बसवण्णा का मात्र एक सुंदर स्वप्न नहीं था, बल्कि यह एक सुंदर समाज था जिसे 12वीं शताब्दी में बसवण्णा ने धरातल पर उतार दिया था।
12वीं सदी की इस विलक्षण विद्रोहिणी कवयित्री अक्क महादेवी के जीवन, उनके वचनों और भक्ति से हिन्दी समाज अब तक लगभग अनभिज्ञ है। सुभाष राय ने इस पुस्तक में स्पष्ट कहा है कि रामविलास शर्मा, केदारनाथ सिंह, राजेश जोशी, अनामिका, गगन गिल, यतीन्द्र मिश्र आदि अत्यल्प नाम हैं जिन्होंने हिंदी में अक्क महादेवी की किंचित् चर्चा की है। इसके अतिरिक्त डॉ. राममनोहर लोहिया ने भी अक्क महादेवी का उल्लेख किया है। यदि इन कतिपय विद्वानों ने चर्चा न की होती तो हिंदी की दुनिया अक्क महादेवी को जानती भी नहीं। सुभाष राय ने इस पुस्तक के रूप में अक्क महादेवी पर वृहद् कार्य कर एक प्रकार से हिंदी कोष में यथेष्ठ वृद्धि की है।
अक्क महादेवी एक शिव भक्त और विद्रोहिणी कवयित्री हैं। अपनी अस्मिता और स्वतंत्रता के निमित्त तत्कालीन सत्ता की निरंकुशता, समाज और शास्त्रों द्वारा निर्धारित जड़ परम्पराओं तथा मान्यताओं के विरुद्ध विद्रोह कर राजमहल को त्याग कर निकल गयीं थीं। अक्क महादेवी ने सिर्फ राजमहल का ही त्याग नहीं किया था, बल्कि पुरुष वर्चस्व के विरुद्ध अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति के रूप में पुरुष समाज के दिये हुए वस्त्रों को भी उतार फेंका था और फिर बाद में अपनी देह की नग्नता को उन्होंने अपने ही झूलते हुए लम्बे-लम्बे बालों से ढँक रखा था। इसलिए अक्क महादेवी को केशाम्बरा भी कहा जाता है। उनके दिगम्बरत्व पर सुभाष राय ने इस पुस्तक में ‘स्त्री की स्वयं चुनी हुई नग्नता’ शीर्षक से एक पूरा अध्याय भी लिखा है।
अक्क महादेवी का जीवन साहस और संकल्प की विलक्षण कथाओं से परिपूर्ण है। उनका जीवन इतना असाधारण था कि उनके समकालीन कवियों और उनके परवर्ती रचनाकारों ने भी उन्हें अलौकिक चरित्र बना दिया था। वे जीवनकाल में ही एक मिथ में बदल गयी थीं। उन्हें एक असाधारण और विद्रोही स्त्री के रूप में देखने की अपेक्षा एक दैवीय व्यक्तित्व के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न अत्यधिक किया गया है। ‛अधिकांश वचनकारों ने अक्क महादेवी को आदर के साथ याद किया है। इसलिए उनके जीवन के बारे में जानने का कोई स्पष्ट इतिहास-सम्मत नजरिया नहीं है।… ऐसे में मूल वचनों में निहित संकेतों के आधार पर परवर्ती काल में कन्नड़ के विद्वानों ने उनके जीवन और दर्शन को समझने का प्रयास किया है। अक्क महादेवी ने अपने वचनों में अपने जीवन के बारे में संकेत अवश्य किया है लेकिन उनके संकेत बहुत स्पष्ट नहीं हैं।’ ऐसे में एक लेखक के लिए ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर अक्क महादेवी के मिथकीय जीवन से भिन्न उनके यथार्थ जीवन का वस्तुपरक मूल्यांकन करना दुःसाध्य कर्म है। सुभाष राय ने इस पुस्तक के लेखन में प्रचुर परिमाण में सन्दर्भ-ग्रन्थों का गहन अध्ययन कर अपनी शोध दृष्टि से अक्क महादेवी के जीवन की ऐतिहासिकता को निबाहने का भरपूर जतन किया है।
सुभाष राय ने कन्नड़ की दिग्म्बर विद्रोहिणी कवयित्री अक्क महादेवी को इस पुस्तक के केंद्र में रखकर दक्षिण भारत के भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि सहित वीरशैव आंदोलन का एक बृहद इतिहास प्रस्तुत किया है। इन्होंने इस विषय को ‘बारहवीं सदी की विलक्षण सामाजिक क्रांति’ शीर्षक से एक अध्याय के रूप में प्रतिपादित किया है। इन्होंने दक्षिण के वीरशैव आंदोलन के अतिरिक्त इस पुस्तक में भारत की लगभग समस्त भक्ति परम्पराओं और उनमें अर्थपूर्ण कवयित्रियों की दृढ़ उपस्थिति तथा उनकी सम्पूर्ण सामाजिकी को तर्कपूर्ण ढंग से उद्भासित करने का प्रयत्न किया है। लेखक ने इस पुस्तक में ईसापूर्व जैन काल, बौद्ध काल, उपनिषद काल, तमिल संगमकाल से लेकर 12वीं शताब्दी की वीरशैव भक्ति काव्यान्दोलन के आरंभ होने तक अनेक ऐसी कवयित्रियों का उल्लेख किया है जिन्हें ‛ब्राम्हण और आर्य सभ्यताओं को प्रश्नांकित करने वाले शक्तिशाली ऐतिहासिक आंदोलनों के दौरान…साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में बराबरी से शामिल होने का मौका मिला।’ इस क्रम में तमिलनाडु की आण्डाल, कश्मीर की ललद्यद्य और राजस्थान की कवयित्री मीरां का भी विशेष उल्लेख किया है।
यह पुस्तक पन्द्रह अध्यायों में ‛समालोचना’ खण्ड के अंतर्गत है एवं इसमें ‛बाजत अनहद’ खण्ड के अंतर्गत दो अतिरिक्त अध्यायों में अक्क महादेवी का काव्यानुवाद, छाया-कविताएँ संकलित की गयी हैं। इसमें समालोचना खण्ड के अंगर्गत पन्द्रह विविध शीर्षकों से प्रतिपादित विषय में अक्क महादेवी के जीवन को यथार्थ दृष्टि से समग्रता में देखने का प्रयत्न हुआ है। उनके वचनों से उनके जीवन, उनके संघर्षों, भक्ति, दर्शन आदि को समझने का प्रयत्न हुआ है और तत्कालीन समाज में व्याप्त जड़ता को तोड़ने में अक्क महादेवी, उनके वचनों, वीरशैव आंदोलन आदि की क्रांतिकारी भूमिका को भी समझने का प्रयत्न हुआ है। यह पुस्तक अक्क महादेवी के जीवन के अतिरिक्त 12वीं शताब्दी के समय का समाज, उसके मूल्य एवं मान्यताएं, धर्म एवं जाति, दर्शन एवं साहित्य, भक्ति एवं भक्ति परम्पराएं, सत्ता आदि विषयों पर विचार करती हुई तत्कालीन समय के स्त्री जीवन, उनका चिंतन एवं उनकी ऐतिहासिक क्रांतिकारी भूमिका जो आधुनिक स्त्री-चिंतन को मजबूत आधार देती है, पर व्यापक विचार प्रस्तुत करती है। इसमें अक्क महादेवी के अतिरिक्त लगभग डेढ़ दर्जन स्त्री वचनकारों से और उनके वचनों से हमारा परिचय होता है।
इस पुस्तक में संत कवि अल्लम प्रभु से अक्क महादेवी का संवाद और अंत के ‛बाजत अनहद’ खण्ड के अंतर्गत दो अध्यायों में अक्क महादेवी के जीवन-क्रम के अनुसार उनके एक सौ वचनों को रखा गया है। सुभाष राय ने अल्लम प्रभु से अक्क महादेवी के संवाद और उनकी कविताओं को मूल कन्नड़ और अंग्रेजी से अनुवाद करने में उनकी संवादात्मकता एवं काव्यात्मकता को अक्षुण्ण रखने का श्रमसाध्य एवं गुरुत्तर कर्म किया है। यह पुस्तक आलोचना भी है और रचना भी। यह भक्ति आंदोलन के अखिल भारतीय स्वरूप की समझ विकसित करने की दृष्टि से एक इतिहास भी है। यह पुस्तक हमें अपने सुंदर गद्य के बीच-बीच में अक्क महादेवी, वीरशैव कवियों एवं कवयित्रियों के लयात्मक पद्य के प्रवाह में कई सौ वर्षों की एक लंबी यात्रा में ले जाती है। यह यात्रा अक्क महादेवी के लिए भी है और स्वयं के लिए भी। सुभाष राय ने हिंदी में यदि यह पुस्तक न लिखी होती तो शायद हम अपने वृत से बाहर इतने दूर न निकल पाते।
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