पुस्तक-समीक्षा

जेएनयू: हक़ीक़त के आईने में

 

जेएनयू के सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज़ के अध्यापक प्रो. आमिर अली की एक बात वहाँ के शोधार्थी पंकज द्रविड़ ने बताई कि किसी भी किताब के संदर्भ में दो बातें देखी जानी चाहिए- एक उसका टाइटल, और दूसरा उसकी टाइमिंग। इस लिहाज से जेएनयू अनंत, जेएनयू कथा अनंता सही समय पर आई है। यह जेएनयू के बारे में एक ज़िंदा दस्तावेज़ है, आँखों देखा हाल है। जे सुशील ने बड़े प्यार से जेएनयू को जस देखा, तस लेखा है। इसे पढ़ते हुए उनके अनुभवों की सदाक़त महसूस की जा सकती है। बड़ी सहजता और प्रांजलता है इसमें। डॉ. दुष्यन्त ने बड़ी सुंदर भूमिका लिखी है। जेएनयू अपने शिक्षकों और छात्रों द्वारा बनाये गये लोकतांत्रिक ठौर-ठांव-ठिकाने एवं स्वतन्त्र ज्ञान परम्परा के लिए जाना जाता रहा है जिसे सरल-सहज शब्दों के ज़रिये लेखक ने उकेर कर पाठक के सामने रख दिया है। ग़ालिब की मानें, तो

सद जल्वा रूबरू है जो मिज़्गां उठाइए

ताक़त कहाँ कि दीद का अहसां उठाइए।

जेएनयू को लेखक ने फ़क़त रूमानियत के साथ नहीं देखा है, बल्कि परिवार, समाज व दुनिया की कड़वी हक़ीक़त से रूबरू होते हुए अपने भोगे हुए यथार्थ को बरता है। पर इस क्रम में कहीं भी कड़वाहट या अतिशय भावुकता नहीं दिखती है। वो अपने यशस्वी शिक्षकों को बड़ी अक़ीदत से याद करते हुए उनकी शख़्सियत व सलाहियत को धीरे से पाठकों के सामने रख देते हैं। प्रो. अभिजीत पाठक के बारे में जैसा जे सुशील ने लिखा है, भिगो गया। पिछले दिनों प्रो. राकेश बटबयाल व प्रो. मणीन्द्रनाथ ठाकुर से मैंने साझा किया, “जब कभी मैं थोड़ा मायूस होता हूँ, प्रो. पाठक की किताब – द कैऑटिक ऑर्डर और द रिद्म ऑव लाइफ़ एंड डेथ के पन्ने उलट लेता हूँ”। ईपीडब्ल्यू के संपादक सचिन चौधरी के आग्रह पर अर्थशास्त्र की शिक्षक कृष्णा भारद्वाज द्वारा पिएरो सराफ़ा की किताब प्रोडक्शन ऑव कॉमोडिटीज़ बाय मीन्स ऑव कोमोडिटीज़ का तीन साल में रिव्यू करने व प्रकाशित कराने के वाक़ये को जिस तरह से बयां किया गया है, वह बताता है कि कितना श्रमसाध्य काम करने वाले लोग जेएनयू में रहे हैं। प्रभात पटनायक के योगदान, इतिहास के प्रोफेसर नीलाद्रि भट्टाचार्य की मेथडोलॉजी की कक्षा में नामचीन इतिहासकार रोमिला थापर का बैठना, बिपन चंद्रा, आदित्य मुखर्जी, मृदुला मुखर्जी जैसे बेहतरीन शिक्षक व इंसान का होना, पुष्पेश पंत की आत्मीयता, सबऑल्टर्न स्टडीज़ में सुदीप्तो कविराज के योगदान, और कबीर को पढ़ाने वाले पुरुषोत्तम अग्रवाल की सहृदयता का ज़िक़्र इस किताब को मानवीय संवेदना व चेतना से लैस कैम्पस की रिवायत की तर्जुमानी के लिहाज से और समृद्ध व सुंदर बनाता है। एक समय इस कैम्पस में अलग-अलग विषयों के एक साथ कम-से-कम 150 स्टॉलवार्ट हुआ करते थे।

जेएनयू

पाककला की बेहतरीन समझ रखने वाले पुष्पेश पंत संगीत के शौकीन हैं, और मैनोशी के बारे में डायनिंग टेबल पर बात करते हुए कहते हैं, “शराब पीना एक कला है, संगीत सुनना भी। लिखना कला है, आलोचना सबसे बड़ी कला है”। जे ने प्रो. नीलाद्रि द्वारा फ़ूको की पावर व डिस्कोर्स की अवधारणा पर दिये गये व्याख्यान का ज़िक्र करते हुए उनको कुछ यूं उद्धृत किया, “आपको यह सोचना चाहिए कि हमारे आसपास जो विमर्श होता है, वह कौन तय कर रहा है? क्या यह डिस्कोर्स पावरफुल लोग तय कर रहे हैं या जिनके पास ताक़त नहीं है, वे यह बात तय कर रहे हैं”। जे कहते हैं, “यह एक दृष्टि थी, जो बाक़ी चीज़ों को देखने, देख पाने में स्पष्टता ला सकने में सक्षम थी। मनुष्य क्या पढ़ता है, उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है कि वह कैसे पढ़ता है और पढ़े हुए को समझता कैसे है”। अल्लामा इक़बाल के शब्दों में,

महरूम-ए-तमाशा को वह दीद-ए-बीना दे

देखा है जो कुछ मैंने, औरों को भी दिखला दे।

इस पुस्तक में अलग-अलग ढाबे की अलहदा संस्कृति, नदियों के नाम पर बने हॉस्टल्स के अलबेले-अनोखे क़िस्से और होली के समय कैम्पस के अल्हड़पन व मिठास का जैसा वर्णन है, वह पाठक को बांधे रखने में सक्षम है। इस किताब में करीने से बताया गया है कि जेएनयू आप पर कुछ थोपता नहीं है, बल्कि आप यहाँ सलीक़े से “समता, स्वतन्त्रता व बंधुत्व” के मर्म को सीखते, समझते व आत्मसात करते हैं। गंगा ढाबे की चाय, परांठे और उसके इर्दगिर्द जवान होती बहसों के बारे में बड़ी मीठी शरारत के साथ लिखा गया है। लेखक कहते हैं, “गंगा ढाबा की ख़ासियत यह है कि पिछले बीसियों सालों से वहाँ एक ही तरह की चाय बन रही है। यह चाय न बेहतर हुई है, न ख़राब हुई। गंगा की चाय में नॉस्टैल्जिया है। गंगा के आलू-परांठे मिथकीय परांठे होते हैं। इनमें जो आलू खोज लेता है, वह बुद्धिजीवी घोषित कर दिया जाता है”। ऐसा कुछ ही भागलपुर के टीएनबी कॉलेज, जहाँ बांग्ला के उपन्यासकार शरतचंद्र पढ़ा करते थे; के वेस्ट ब्लॉक हॉस्टल के मेस के बारे में भूषण चौधरी कहा करते, “रामू मेस का खाना खाने के बाद नींद और जगने के बाद कमज़ोरी का आभास होता है”।

यह वही यूनिवर्सिटी है जहाँ के तीसरे वाइस चांसलर के. आर. नारायणन देश के दसवें राष्ट्रपति बने। एक से बढ़ कर एक लोकतांत्रिक मिजाज़ के कुलपति हुए जिनमें से कुछ का ज़िक़्र जे सुशील ने किया है जिनके साथ छात्र टहल सकते थे, मेस बिल नहीं भर पाने की लाचारगी निस्संकोच साझा कर सकते थे। यहाँ की एक ख़ूबसूरत रिवायत है पोस्ट डिनर टॉक आयोजित करने की, जहाँ अलग-अलग विषयों के नामचीन, सिद्धहस्त लोग बतौर वक्ता बुलाये जाते हैं, उन्हें सुन कर लोग अपनी समझ और मालूमात को और दुरुस्त करते हैं, क्योंकि वहाँ मोनोलॉग नहीं, बल्कि डायलॉग का चलन है। और, अलग-अलग राजनैतिक मसलों पर अपने स्टैंड का इज़हार मुख़्तलिफ़ संगठनों के लोग पर्चा-पैम्फ़लेट के ज़रिये करते हैं। और, वे पर्चे इतने अव्वल दर्ज़े के हुआ करते हैं कि कोई चाहे तो उनसे बहुत कुछ सीख सकता है। वोल्तेयर को यहाँ अक्षरश: जीने की कोशिश की जाती है, “I may disagree with everything that you say, but I will defend to the last drop of my blood, your right to say so”।

यह किताब जेएनयू के बारे में कई मिथकों व भ्रांतियों को भी तोड़ती है। मिसाल के तौर पर जहाँ जेएनयू को दीन-हीन-विचाराधीन की यूनिवर्सिटी के रूप में पिछले कुछेक वर्षों से प्रचारित किया गया, वहीं इसमें बताया गया है कि यहाँ महज ग़रीब नहीं पढ़ते, बल्कि ग़रीबों में जो प्रतिभासंपन्न हैं, वे पढ़ते हैं। एक साथ मंत्री, सांसद, राजनयिक, ब्यूरोक्रेट, किरानी, चपरासी, सबके बच्चे पढ़ते हैं। सकारात्मक कार्रवाई के तहत भारत सरकार द्वारा चिह्नित पिछड़े इलाक़े के लोगों को अलग से प्वॉइन्ट्स दिये जाते हैं, लड़कियों को उनकी वंचना के चलते अलग से प्वॉइंट्स दिये जाते हैं, और एक तरह से इस यूनिवर्सिटी का उद्देश्य आपका सेलेक्शन करना होता है, न कि रिजेक्शन।

बहुत से शिक्षकों ने अपने जीवन का एकमात्र ध्येय तय कर रखा है- पढ़ना-पढ़ाना, बच्चों को सामाजिक-राजनैतिक-सांस्कृतिक रूप से चेतनासंपन्न बनाना। डॉ. राधाकृष्णन की इस स्पिरिट के साथ यह कैम्पस ज़िंदा है, “A university is essentially a community of students and teachers। The two have to work together for the single purpose of advancing knowledge and disseminating it। If they’re at any time distracted from this straight path of pursuing truth for its own sake and get led away, there’ll be a jeopardy to the community of the university”।

पर, बीते कुछेक वर्षों में विश्वविद्यालय युगबोध व वैश्विक दृष्टि को विकसित करने के अपने स्वाभाविक काम को अंज़ाम देने में अवरोध महसूस करता रहा। और, तब प्रो. अभिजीत पाठक जैसे लोग दर्द व वेदना के साथ कलम उठाते हैं, और देश को बताते हैं कि विश्वविद्यालयों पर हो रहा क्रूर हमला उतनी ही बुरी ख़बर है, जितनी किसी विदेशी ताक़त द्वारा देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता पर हमला। देश भर में ढाहे जा रहे विश्वविद्यालयों की दीवारें चीख-चीख कर कह रही हैं कि हमें इन असामाजिक तत्त्वों से बचा लो। ये देश तोड़ने वाले लोग हैं। दुनिया में कहीं भी सरकार बदलती है, वे अपने संस्थानों को बर्बाद नहीं करते, ऑक्सफ़र्ड, कैम्ब्रिज, कैलिफ़ोर्निया, कोलम्बिया, हार्वर्ड, आदि पर किसी भी सरकार की गिद्धदृष्टि नहीं पड़ती। वे समझते हैं कि संस्थान-निर्माण के बगैर राष्ट्र-निर्माण की बात बेमानी है। लेकिन अपने यहाँ शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त कर कुछ लोग मुल्क की रूह को मसल देना चाहते हैं। ये भगत सिंह-लोहिया के देश को जहालत की ओर ले जाना चाहते हैं। नये विश्वविद्यालय खोले नहीं जा रहे, उल्टे बने-बनाये संस्थानों को तबाह करने पर तुले हैं। जे सुशील कितना सही लिखते हैं, “विज्ञान तथ्य है और सामाजिक विज्ञान मूल्य। विश्वविद्यालयों का शोध मानव जीवन के मूल्य तय करने में मदद करता है। वह बताता है कि तथ्यों को क्यों और कैसे सामाजिक हित में इस्तेमाल किया जाए”।

जेएनयू के विविध रंगों को जे सुशील ने मोहब्बत से छलकाया है। वे लिखते हैं, “दुनिया को समझने के लिए जिन विचारों की ज़रूरत थी, वह यहाँ आने के बाद पता चले। एक पूरा का पूरा वैचारिक इंद्रधनुष था, जिसमें से आपको अपना पसंदीदा रंग चुनने का अधिकार था”। यहाँ भाँति-भाँति के लोग हुए हैं। फक्कड़पन की कोई इंतहा नहीं! गोरख पांडेय की गोरखिया को लोग आज भी चाव से गाते हैं, वहीं रमाशंकर विद्रोही की पंक्तियाँ यहाँ की दीवारों पर देश-दुनिया के बड़े कवियों व दार्शनिकों के साथ नुमायां होती हैं। हिन्दुस्तानी सिनेमा के गीतकार सागर ने एक बार झेलम छात्रावास में कहा कि जब एक बार आप जेएनयू में दाखिल हो जाते हैं, तो फिर किसी बात का रोना नहीं रोया जा सकता। इससे बड़ा और उदार प्लैटफॉर्म देश में कम ही होगा! जेएनयू का क्लासरूम जितना आपको सिखाता है, उतनी ही यहाँ की दीवार पर लिखी इबारतें।

जेएनयू में होने वाले छात्रसंघ चुनावों में भिन्न विचारधारा के प्रति सहिष्णुता के कई उदाहरण इस पुस्तक में पेश किये गये हैं। प्रकाश करात को हराने वाले यशस्वी ओरेटर आनंद कुमार से लेकर अध्यक्ष बने डीपी त्रिपाठी तक, सीताराम येचुरी द्वारा आपाताकाल के बाद इंदिरा गांधी से यूनिवर्सिटी के चांसलर पद से इस्तीफ़ा मांगना, और उनके द्वारा इस्तीफ़ा देना, आदि कई रोचक प्रसंगों का ज़िक्र शाइस्ता लहजे में हुआ है। जे लिखते हैं, “राजनीति एक अच्छी चीज़ है। हम इसे अच्छा या बुरा बनाते हैं। एक छात्र क्या सिर्फ़ नौकरी के लिए पढ़ाई करता है? क्या उसकी ज़िम्मेदारी समाज को बेहतर करने की नहीं है? हम सामाजिक प्राणी हैं, यह तो सब मानते हैं, लेकिन सामाजिक प्राणी होने का अर्थ जागरूक होना भी तो है। यह जागरूकता जेएनयू देता है”। साथ ही, लड़कियों का सिगरेट पीना बुरा होता है, और लड़कों का सिगरेट पीना अच्छा होता है, वे ऐसी समझों से बाहर निकल गये थे। वे लिखते हैं, “जेएनयू में कोई सीनियर नहीं कहता कि दहेज मत लो। वे शादी करते हैं और आप उस शादी में जाएं, जो कोर्ट में हो रही हो या मंदिर में, तो आपको ख़ुद लगता है कि यह एक सही फ़ैसला है”।

यहाँ जीएसकैश (जेंडर सेंसिटाइजेशन कमिटी अगैंस्ट सेक्सुअल हरासमेंट) नामक एक इलेक्टेड बॉडी हुआ करती थी जिसका चुनाव 2017 तक हुआ था। इसका गठन 1997 में विशाखा बनाम राजस्थान सरकार के सर्वोच्च न्यायालय में आए मामले के बाद 1999 में किया गया। कार्यस्थलों पर महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा गाइडलाइन्स दिये थे। जेएनयू ने एक क़दम आगे बढ़ कर बिना किसी बाध्यता के 1999 में कमिटी गठित कर दिया। जेएनयू में सहमति बड़ा मानीख़ेज़ लफ़्ज़ है। लोहिया के उस स्पिरिट को भरसक जीने की कोशिश रहती है, “वादाख़िलाफ़ी व बलात्कार को छोड़ कर परस्पर सहमति से क़ायम किया गया हर संबंध जायज है”।

पुस्तक में अनेक रोचक वाक़ये का उल्लेख है जिनमें से कुछ का ज़िक्र न किया जाये, तो बात अधूरी रहेगी। एक प्रेमी जोड़ा था, लड़की पटना की, लड़का लखनऊ का। दोनों जगजीत सिंह के गाने सुनते और आशिक़ी की बातें करते। दोनों को देखते तो लगता कि प्रेम तो यही है। लड़की गंगा से बढ़िया खाना नर्मदा लाती और अपने ब्यॉयफ़्रेंड के मित्रों को खिलाती। गर्ल्स हॉस्टल का खाना लड़कों के हॉस्टल की अपेक्षा बेहतर हुआ करता था। सर्द रातों में दोनों डिनर के बाद कंबल लेकर बाहर निकल जाते। सुबह वह क़रीब पांच बजे आता और सो जाता। कई दिन ऐसा देखने के बाद मैंने पूछा, “आप इतनी ठंड में करते क्या हैं बाहर जाकर?” जवाब था, “प्रेम करता हूँ भाई”। मैंने कहा, “कमरे में क्यों नहीं कर लेते? हमलोग बाहर चले जाएंगे”। बंदे ने कहा – “तुम प्रेम करो यार, तब समझ में आएगा। जो मज़ा प्रकृति में है, वह कमरे में कहां!” दोनों जने घंटों पार्थसारथी रॉक्स पर बैठते और चांद को निहारते थे एक ही कंबल में बैठे। मैंने बाद में नोटिस किया कि रात्रिकाल में कंबल लेकर ये दोनों उन पंद्रह दिनों में ग़ायब होते थे, जब चांद की चांदनी चरम पर होती थी। मैंने ज़िक्र किया तो उस लड़के का कहना था, “अब आप प्रेम में पड़ने वाले हो”।

प्रेम आपको मनुष्य बनाता है, संवेदनशील इंसान बनाता है। आप प्रेम में सहज होना सीखते हैं, पहले से बेहतर इंसान होने की यह यात्रा है। प्रेम में इंसान आते हैं, और कई दफे वे जाकर भी नहीं जाते कहीं, होते हैं हमारे भीतर ही कहीं हमारा एक हिस्सा होकर। डॉ. बशीर बद्र इस अहसास की तर्जुमानी कितनी ख़ूबसूरती से करते हैं-

मोहब्बत एक ख़ुशबू है, हमेशा साथ चलती है

कोई इंसान तन्हाई में भी तन्हा नहीं रहता।

जे बताते हैं:

एक जोड़ा था। लड़का बिहारी, लड़की उड़ीसा की। ख़ूब प्रेम। साथ में खाना-पीना, उठना-बैठना। दोनों साथ में यूपीएससी की तैयारी करते थे। दोनों ने परीक्षा दी। लड़की का हो गया, लड़का बेचारा रह गया। लड़की चली गई ट्रेनिंग करने मसूरी। न केवल वह ट्रेनिंग करने गई, बल्कि उस लड़के के साथ रिश्ता भी टूट गया। लड़का रह गया जेएनयू में। प्रेम छिन्न-भिन्न हो गया। जेएनयू में मान्यता है कि जो अफ़ेयर एक सेमेस्टर के बाद रह गया, वह शादी में बदलता है। यह अफ़ेयर चार से पाँच सेमेस्टर रहा था, फिर भी इसका छिन्न-भिन्न होना सबका दिल दुखा गया था। कुछ समय बाद लड़का लेक्चरर हो गया, लेकिन मन की ख़लिश रही होगी। उसने फिर दिया यूपीएससी। इस बार सफल हुआ। लड़की को जो कैडर मिला था, उससे बढ़िया लड़के को मिला। लड़की तब तक शादी कर चुकी थी। फिलहाल लड़का भी शादी कर दो बच्चों का बाप हो चुका है। कहने को तो इस कहानी में कुछ भी नहीं है। यह एक सामान्य प्रेम कहानी लगती है, लेकिन जब लड़के का दिल टूटा, तो उसका साथ देने सारे दोस्त आ गये थे। किसी ने यह नहीं कहा कि लड़की की ग़लती है। सबने कोशिश की कि यह बात भुला दी जाए। मित्रताएँ जेएनयू की ऐसी ही होती थीं। दिल टूटा हो, तो शराब का सहारा कोई नहीं लेता। ऐसे में दोस्त आ जाते हैं। कोई दर्शन से, कोई प्रकृति के ज़रिए, तो कोई बातों से मन बहला कर टूटे दिल वाले लोगों को ठीक रास्ते पर ले आता है।

जे एक और शानदार किरदार का ज़िक्र करते हैं, जो बिहार के गया ज़िले का आदित्य है। जापानी भाषा में 8 सीजीपीए लाता है वह। जे ने पूछा, “बहुत पढ़ते हो?” आदित्य इतना सुनकर उनके पास बैठ गया और बोला, “सर, आपको पता नहीं है। मेरा एडमिशन थर्ड लिस्ट में हुआ था, इसलिए हॉस्टल नहीं मिला। जापानी भाषा ही पढ़नी थी। मन लग गया है, तो नंबर आ रहे हैं”। जो एंट्रेंस में टॉपर था, वह जापानी भाषा में फेल हो रहा था। यह भी होता है जेएनयू में। जो प्रवेश परीक्षा में टॉप करता है, ज़रूरी नहीं कि वह अपनी क्लासेज़ में बेहतर ही करे।

लेखक फरमाते हैं, “जेएनयू सबके बस की बात भी नहीं है। यहां रट्टा मार कर पढ़ना संभव नहीं है। अगर आप अपने आस-पास, अपने समाज के विषय में सोच नहीं रहे हैं, तो आपके लिए मुश्किल हो सकती है कि आप पढ़ाई और अपने शोधकार्य में आगे कैसे बढ़ेंगे। अगर आपके जीवन का उद्देश्य पढ़ने के बाद सिर्फ़ नौकरी पाना है, तो जेएनयू आपके लिए नहीं है”। जेएनयू को उकेरते हुए जे सुशील ने कुछ यूं तस्वीर बनाई है:

अगर 615 नंबर की बस देख कर आपको कुछ-कुछ होता है

तो आप जेएनयू के हैं।

अगर एक लड़का-लड़की को प्रेम करते देख कर आप मुस्करा पाते हैं

तो आप जेएनयू के हैं।

अगर बड़ी से बड़ी बहस में भी आप अपना आपा नहीं खोते हैं

तो आप जेएनयू के हैं।

आईने में अपनी दाढ़ी देख कर अगर आपको अच्छा लगता है

तो आप जेएनयू के हैं।

किसी ग़रीब को देख कर मन में हूक-सी उठती है

तो आप जेएनयू के हैं।

अगर अब भी यदा-कदा झोला और किताबें ख़रीद लेते हैं

तो आप जेएनयू के हैं।

अगर लड़कियों के साथ रिश्तों को बहन-बेटी-मां-पत्नी से इतर एक इंसान के तौर पर देख पाते हैं

तो आप जेएनयू के ही हैं।

अगर सवाल उठा रहे हैं, चाहे आप कहीं भी हों

तो आप निश्चित रूप से जेएनयू के ही हैं।

पुस्तक में श्वान रक्षा दल के आवश्यकता से अधिक सक्रिय होने का भी सरस बखान है। मानव की तरह ही या बहुधा उससे भी अधिक मानवेतर प्राणियों, ख़ास कर कुक्कुड़ों की फ़िक्र जितनी इस कैंपस में कन्याओं द्वारा की जाती है, वैसी संवेदनशीलता अन्यत्र दुर्लभ है। कहते हैं, इल्म-ओ-तालीम के मानी ही हैं कि हमारी शिक्षा हमें करुणा से भर दे, वाग्स्वातंत्र्य के साथ विचारों की आज़ादी भी दे। इतिहासकार प्रो. राकेश बटबयाल ने अपनी किताब जेएनयू: द मेकिंग ऑव ए यूनिवर्सिटी में तफ़्सील से इस विश्वविद्यालय के बनने की कहानी बताई है। जहाँ प्रो. बटबयाल की श्रमसाध्य किताब गरिष्ठ व गम्भीर है, एवं पाठक से धैर्य व एकाग्रता की मांग करती है, वहीं जे सुशील ने दिलचस्प अंदाज़े-बयां से जेएनयू की एक तरह से तवाफ़ करा दी है, उसके चटक रंग से मन-प्राण को सराबोर किया है। सचमुच जेएनयू अनन्त है, जेएनयू की कथाएँ अनन्त हैं। किसी ने ठीक ही कहा-

हमने उसको इतना देखा जितना देखा जा सकता था

लेकिन फिर भी दो आँखों से कितना देखा जा सकता था।

अंतत: यह शैक्षणिक परिसर है जहाँ ज्ञानार्जन कोई बोझ भरा काम नहीं, बल्कि जीवन के साथ संवाद है, उससे रूबरू होना है। जे लिखते हैं, “कुछ अच्छे प्रोफ़ेसर अच्छे छात्रों का निर्माण करते हैं, और वही छात्र आगे चल कर प्रोफ़ेसर बनते हैं”। गांधी कहते थे, “A student acquires quarter of his or her knowledge from his or her own intelligence, second quarter from his or her teachers, third quarter from his or her co students, and the final quarter, in course of time, by his or her own experience”। जेएनयू यही माहौल, दोस्त व अध्यापक देता है, जहाँ जिनके साथ आप अपनी अनुभूति का चिंतन कर सकते हैं, और चिंतन की अनुभूति।  नेहरू विश्वविद्यालय को विचारों के एडवेंचर की जगह के रूप में देखने की अभिलाषा रखते थे। जेएनयू की ख़ुशक़िस्मती कि इसे वैसे लोग मिले या इसने लोगों को वैसा बनाया। “श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम” के साथ “सा विद्या या विमुक्तये” की स्पिरिट लिए यह इदारा ज़िंदा रहेगा, और रहेंगे ज़िंदा जे सुशील जैसे लोग जो जेएनयू के गीत उन्मुक्त कंठ से गाते रहेंगे!

.

कमेंट बॉक्स में इस लेख पर आप राय अवश्य दें। आप हमारे महत्वपूर्ण पाठक हैं। आप की राय हमारे लिए मायने रखती है। आप शेयर करेंगे तो हमें अच्छा लगेगा।
Show More

जयन्त जिज्ञासु

लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में शोधार्थी हैं। सम्पर्क- jigyasu.jayant@gmail.com
5 2 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

2 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
2
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x