गाँधी मार्ग की चरम परिणति : बाबा आमटे
मार्क्सवादियों के यहाँ एक शब्द प्रचलित है ‘डीक्लास होना’। स्वेच्छा से यदि कोई डीक्लास होता है अर्थात उच्च वर्ग से निम्न वर्ग में शामिल होता है तो यह बड़े सम्मान की बात मानी जाती हैं, त्याग और संगठन के प्रति निष्ठा का प्रमाण तो यह होता ही है। शोषितों के हित की लड़ाई यदि ईमानदारी से लड़नी है तो उनके साथ जुड़ना पड़ेगा और उनसे जुड़ने के लिए उनके जैसा होना पड़ेगा। बाबा आमटे (26.12.1914 – 9.2.2008) ऐसे ही डीक्लास होने वाले महापुरुष थे।
वे एक बड़े जमींदार के बेटे थे। उनके पिता देवीदास हरबाजी आमटे शासकीय सेवा में थे। बाबा आमटे का बचपन बड़े ही ठाट बाट में बीता। बचपन में वे किसी राज्य के राजकुमार की तरह रहे। कहा जाता है कि उनके माता-पिता उन्हें रेशमी कुर्ता, सिर पर ज़री की टोपी तथा पाँव में शानदार शाही जूतियाँ पहनाते थे। अमूमन यही उनकी वेष-भूषा होती थी। बाबा आमटे ने अपना सारा वैभव कुष्ठरोगियों की सेवा के लिए त्याग दिया। मार्क्सवादी न होते हुए भी वे सबकुछ छोड़कर ऐसे डीक्लास हुए और सेवा तथा समर्पण का ऐसा मार्ग चुना जिसका दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।
बाबा आमटे का पूरा नाम मुरलीधर देवीदास आमटे है। उनका जन्म 24 दिसम्बर 1914 को महाराष्ट्र में वर्धा जिले के हिंगणघाट गाँव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनकी चार बहनें थी और एक भाई। उन्हें ‘बाबा’ इसलिए नही कहा जाता था की वे कोई संत या महात्मा थे, बल्कि उन्हें इसलिए कहा जाता था क्योकि उनके माता-पिता उन्हें इसी नाम से पुकारते थे। यही ‘बाबा’ शब्द उनके नाम से जुड़ गया और वे बाबा आमटे हो गये।
घर में लाड़-प्यार इतना कि चौदह साल की उम्र में उन्होंने अपनी खुद की बंदूक ले ली और उससे सूअर, हिरन आदि जंगली जानवरों का शिकार करने लगे। थोड़े और बड़े हुए तो उनके लिए एक स्पोर्ट कार खरीदी गयी जिसे चीते की चमड़ी से ढँका गया था।
आमटे की प्राथमिक शिक्षा क्रिश्चियन मिशन स्कूल, नागपुर में हुई और उसके बाद उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से एम.ए.और एल.एल.बी. की डिग्री ली और वकालत करने लगे। इसी दौरान महात्मा गाँधी और विनोबा भावे के सम्पर्क में आने के बाद गाँधी जी से प्रभावित होकर वे पूरे भारत का भ्रमण करने निकले। उन्होंने भारत के गाँवों को देखा और अभावों में जीने वाले लोगों की असली समस्याओं को समझने की कोशिश की।
जल्दी ही वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का सहयोग करने लगे। आरम्भ में वे अमर शहीद राजगुरू के साथ रहे और थोड़े दिन बाद जब गाँधी से मिले तो उनके प्रभाव से अहिंसा का रास्ता अपनाया। 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान वे जेल गये। वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के लिए बचावपक्ष के वकील का काम भी करते थे। 1942 के भारत छोडो आन्दोलन में जिन भारतीय नेताओ को ब्रिटिश सरकार ने कारावास में डाला था उन सभी नेताओ का बचाव बाबा आमटे ने किया था। उन्होंने इसके लिए अपने साथी वकीलों को संगठित भी किया और उनके इन्हीं प्रयासों के कारण ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था।
बाबा आमटे का विवाह वर्ष 1946 में साधना गुलेशास्त्री के साथ हुआ। इन दोनों समाज-सेवकों के विवाह के पीछे भी एक कहानी है। दरअसल साधना ने एक पुराने नौकर के खातिर एक विवाह समारोह का बहिष्कार किया था। इससे आमटे काफी प्रभावित हुए और साधना के माता-पिता से उनका हाथ माँगने उनके घर पहुँच गये।
बाबा आमटे ने कुछ दिन महात्मा गाँधी के सेवाग्राम आश्रम में भी बिताया। इसके बाद जीवन भर वे गांधी के अनुयायी बने रहे। उनका चरखा कातना और खादी कपड़े पहनना आजीवन जारी रहा।
एक दिन बाबा आमटे ने वरोड़ा में एक कोढ़ी को धुआँधार बारिश में भींगते हुए देखा। उसकी सहायता के लिए कोई आगे नहीं आ रहा था। आने-जाने वाले उस वीभत्स दृश्य को देखकर सड़क के दूसरे किनारे से होकर गुजर जाते थे। उन्होंने सोचा कि अगर इसकी जगह वे स्वयं होते तो क्या होता? उन्होंने तत्काल उस रोगी को उठाया और घर लाए। उसकी सेवा सुश्रूषा की। इसके बाद बाबा आमटे ने कुष्ठ रोग को जानने और समझने में ही अपना पूरा ध्यान लगा दिया। महाराष्ट्र के जिला चंद्रपूर में वरोड़ा नामक स्थान के पास घने जंगल में अपनी पत्नी साधनाताई, दो दुधमुहें पुत्रों, एक गाय एवं चारकुष्ठ रोगियों के साथ उन्होंने आनंदवन की स्थापना की।
बाबा आमटे आश्रम में रहते हुए कुष्ठ रोगियों की सेवा में लग गये। उन्होंने आश्रम के परिवेश को ऐसा बनाया, जहाँ कुष्ठ रोगी सम्मान से जीवन जी सकें तथा अपनी क्षमतानुसार आश्रम की गतिविधियों में योगदान दे सकें।
उन्होंने कलकत्ता स्कूल ऑफ ट्रोपिकल मेडिसन में कुष्ठ रोग पर कोर्स किया और अपने मिशन पर लग गये। आनंदवन में उन्होंने 11 साप्ताहिक क्लिनिक खोले और 3 आश्रमों की स्थापना की जहाँ कुष्ठ रोगियों का इलाज तथा उनके पुनर्वास का काम किया जाता था। वे खुद मरीजों को देखते थे और कुष्ठ रोग के बारे में लोक-प्रचलित अंधविश्वासों को दूर करने का निरंतर प्रयास करते थे।
त्याग और दुखियों की सेवा का इससे बड़ा उदाहरण भला क्या हो सकता है कि कुष्ठ रोग निवारण के दौर में किए जा रहे चिकित्सा और औषधि के प्रयोग को परखने के लिए बाबा ने अपने शरीर को कुष्ठ के पनपने का माध्यम बनाना स्वीकार कर लिया, ताकि उस पर नई औषधि और चिकित्सा पद्धति आजमाई जा सके।
वहाँ की यात्रा करने वाले नीरज बताते हैं कि आनंदवन एक स्वतंत्र, व्यवस्थित खुले हुए नगर की तरह है जो पूरी तरह अपनी प्रशासनिक व्यवस्था से संचालित है। वहाँ कैंपस में ही अपना पोस्ट आफिस, बैंक, स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, विश्वविद्यालय, वृद्धाश्रम, अनाथालय, दृष्टिबाधित छात्रों के लिए स्कूल आदि सबकुछ है।
आनंदवन के पास अपना इतना खेत है जिसमें जरूरत भर का अनाज पैदा हो जाता है। आनंदवन का अर्थ है ‘जंगल में मंगल’। उन्होंने 1951 में वरोड़ा के समीप सरकार से प्राप्त जमीन पर इसकी नींव डाली थी। आज यह पूरा क्षेत्र अत्यंत हरा भरा सुन्दर क्षेत्र के रूप में विकसित हो चुका है और किसी के भी मन के मुग्ध कर सकता है।
पत्रकार नीरज ने आश्रम की एक लड़की जिद्न्यासा का जिक्र किया है जिसकी शादी होने वाली थी कि अचानक उसकी दोनो आँखों की रोशनी हमेशा के लिए चली गयी और उसकी शादी टूट गयी। वह आश्रम में आई। उसे कम्प्यूटर का ज्ञान था। उसने वहाँ अंधो के लिए कम्प्यूटर के प्रशिक्षण का कार्य शुरू किया और अब उसके निर्देशन में कई कम्प्यूटर लैब है। वहाँ बहुत से दृष्टि-बाधित विद्यार्थी कम्प्यूटर का प्रशिक्षण ले रहे हैं।
नीरज बताते हैं कि उनकी मुलाकात बाबा आमटे के बेटे डॉ. विकास आमटे से हुई और वे उनसे अत्यंत प्रभावित हुए। कुष्ठ रोग के बारे में उन्होंने कई तथ्यों की ओर ध्यान आकृष्ट किया। उन्होंने बताया कि मधुमेह आदि के रोगियों के लिएखान-पान में तरह- तरह के परहेज होते हैं, किन्तु कुष्ठ रोगियों के लिए खान-पान सम्बन्धी ऐसे किसी तरह के परहेज नहीं होते। कुष्ठ रोग केवल मनुष्य को होता है अन्य किसी प्राणी को नहीं। कुष्ठ रोग क्यों होता है? इस सम्बन्ध में अभीतक हमें कुछ भी पता नहीं है। उन्होंने बताया कि जो व्यक्ति कुष्ठ रोग के कारणों के बारे में शोध करके पता लगा देगाउसे वे स्वयं अपनी ओर से एक करोड़ रूपए देने को तैयार हैं।
नीरज ने बताया है कि वहाँ उस समय तक 139 तरह के उद्योग धँधे संचालित हो रहे थे जिनका संचालन वहाँ के निवासी विकलांग व्यक्तियों तथा कुष्ठरोगियों द्वारा हो रहा था। आनंदवन के टेक्सटाइल के उत्पाद पूरे महाराष्ट्र में सप्लाई होते हैं। जिन कुष्ठरोगियों को हमारे समाज के लोग स्पर्श करना भी नहीं चाहते उन्हीं के द्वारा बनाए गये हस्तशिल्प के उत्पाद देश भर में लोग बड़े ही चाव से इस्तेमाल करते हैं। डॉ. विकास आमटे ने बताया कि आनंदवन के सभी निवासी किसी न किसी विकलांगता से ग्रसित हैं या समाज से बहिष्कृत हैं किन्तु सबने दर्द से दोस्ती कर ली है। सभी स्वावलंबी हैं। सभी मिलकर सुख और दुख दोनो को बाँटकर रहते हैं। उदाहरण के लिए सार्वजनिक शौचालय साफ करना सबका काम है और ऐसा करके वे गौरवान्वित होते हैं।
आनंदवन की नीति के अनुसार जो भी यहाँ शरण चाहता है उसे शरण दिया जाता है। यहाँ कुष्ठ रोग, एड्स आदि का इलाज तो मुफ्त होता ही है, उन रोगियों को भोजन और आवास की सुविधा भी मुफ्त दी जाती है। यहाँ के इच्छुक रोगियों को विवाह और एक बच्चे को जन्म देने की भीइजाजत है। उनके विवाह आदि के लिए यहाँ एक सामुदायिक केन्द्र है। यहाँ प्रतिदिन लगभग दस लाख रूपए का खर्च है। यह सारा खर्च यहाँ के उद्योग-धंधों से, उत्पादन से ही अर्जित किया जाता है। सबके भोजन के लिए खाद्य सामग्री आनंदवन के खेतों में ही उत्पादित हो जाती है। बाबा आमटे की नीति थी कि वे खर्च के लिए किसी से दान नहीं माँगेंगे। उनकी वह नीति आज भी यथावत जारी है। हाँ, शुभेच्छा की अपेक्षा सबसे की जाती है। महारोगी सेवा समिति (एम.एस.एस.) शायद अकेला ऐसा सेवा संगठन है जो किसी से भी दान नहीं लेता।
हमारे देश में अनेक मन्दिर हैं जिनके पास अकूत धन है। सामाजिक कार्यों के लिए वहाँ से दान के रूप में आर्थिक सहयोग मिल सकता हैं। किन्तु बाबा आमटे निरीश्वरवादी हैं। आनंदवन के कैम्पस में किसी तरह के मन्दिर या पूजा घर बनाने की इजाजत नहीं है। इसलिए उन्हें मन्दिरों से भी किसी तरह का आर्थिक सहयोग नहीं मिलता। आनंदवन ऐसा क्षेत्र है जहाँ लोग जाति-धर्म के भेद की पहचान के बिना, एक साथ मिल-जुल कर सुख पूर्वक रहते हैं।
यहाँ आने वाले रोगियों को बाबा ने एक मंत्र दिया ‘श्रम ही है श्रीराम हमारा’। जो रोगी कभी समाज से अलग-थलग रहते हुए भीख माँगते थे, उन्हें बाबा आमटे ने श्रम के सहारे समाज में सर उठाकर जीना सिखाया।
आनंदवन आश्रम में कुष्ठ रोगियों की सेवा के अतिरिक्त भी बहुत से ऐसे कार्य होते हैं जो दुनिया के लिए मिशाल हैं। आनंदवन कुष्ठ-रोगियों की ही नहीं, बल्कि कर्मयोगियों की एक बस्ती बन चुका है। भीख माँगनेवाले हाथ यहाँ श्रम की कमाई करने लगे हैं। आनंदवन का बजट आज करोड़ों में है। 1951 में आनंदवन शुरू किया गया था। आज 180 हेक्टेयर जमीन पर फैला आनंदवन अपनी आवश्यकता की हर वस्तु स्वयं पैदा कर रहा है। यह एक ऐसा आश्रम है, जहाँ रहने वाले सभी लोग एक साधक की तरह लोक कल्याण की गतिविधियों के लिए समर्पित हैं। यहाँ खादी वस्त्र तैयार करने तथा फल एवं सब्जियाँ उगाने से लेकर लोगों के उत्थान से जुड़े अधिकांश कार्य किए जाते हैं।
आनंदवन के बाद 1957 में बाबा आमटे ने 40 हेक्टेयर क्षेत्र में, नागपुर के उत्तर में अशोकवन बनाया है। एक दशक बाद ऐसे ही एक आश्रम की स्थापना सोमनाथ में भी की गयी है। हेमलकसा में भी उनकी एक परियोजना है। आनंदवन की ही तरह इन सभी स्थानों में विकलांगों के पुनर्वास की पूरी व्यवस्था है।
1973 में बाबा आमटे ने, लोक बिरादरी प्रकल्प की शुरुआत की। यह परियोजना महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के भामरागढ़ तालुका की माडिया गोंड जनजाति के बीच विकास कार्यों को अंजाम देने के लिए शुरू की गयी थी। इस परियोजना के तहत एक अस्पताल खोला गया जिसमें क्षेत्र की स्थानीय जनजातियों को बुनियादी चिकित्सा सुविधाएँ मुहैया कराई जाती हैं। उन्होंने बच्चों के लिए भी एक स्कूल खोला है जिसमें छात्रावास की भी सुविधा है। वयस्कों के लिए भी एक केंद्र खोला गया है जिसमें उनको आजीविका कमाने के कौशल और प्रशिक्षण होते हैं। उसमें एक पशु अनाथालय भी है जहाँ जानवरों की देखभाल की जाती है। इसका नाम ‘आमटे ऐनिमल पार्क’ रख दिया गया है।
बाबा कई बार गम्भीर रूप से बीमार भी हुए। उनके ऊपर लाठी और छुरे से हमले भी हुए। लेकिन वे अपनी राह से कभी नहीं भटके। जिस काम को एक बार आरम्भ कर दिया उसे पूरा किए बगैर छोड़ा नहीं। उनका हर काम बहुत सुविचारित होता था। उनके मन में जब कोई कल्पना अंकुरित होती थी तो वे उसके समग्र रूप पर सोचते थे। लक्ष्य और उसकी कीमत आँकते थे। फिर कदम बढ़ाते थे।
महात्मा गाँधी तो समाज से छुआछूत मिटाने तक ही सीमित थे। लेकिन बाबा आमटे कोढ़ियों के उद्धार तक पहुँचे। समाज की निम्नतम सीढ़ी पर ही सही, लेकिन शूद्रों को एक जगह मिली थी। वे समाज के दायरे से बाहर नहीं थे, लेकिन कोढ़ियों को तो समाज के किसी भी कोने में कोई जगह नहीं मिली थी। कोढ़ियों की पीड़ा को बाबा आमटे ने ही समझा।
बाबा आमटे केवल आनंदवन तक ही सीमित नहीं थे। समाज के हित में जहाँ भी उन्होंने जरूरी समझा, जुड़ गये। जब पंजाब में आतंकवाद का साया मँडरा रहा था, कुछ गुमराह नवयुवक भारत की अखण्डता को तोड़ने में लगे थे, खालिस्तान बनाने के नारे लगा रहे थे, ऐसे समय वे पंजाब गये और वहाँ से ‘भारत जोड़ो’ आन्दोलन का सूत्रपात किया। उस समय उनकी आयु 72 वर्ष की थी। देश की अखण्डता के लिए छेड़ा गये ‘भारत जोड़ो’ आन्दोलन में शान्ति तथा पर्यावरण की रक्षा का सन्देश भी निहित था।
इसी तरह 1990 में बाबा आमटे आनंदवन छोड़कर मेधा पाटकर के नर्मदा बचाव आंदोलन में शामिल हो गये थे। नर्मदा से रवाना होते समय उन्होंने कहा, ‘मैं नर्मदा के साथ रहने के लिए जा रहा हूँ। नर्मदा सामाजिक नाइंसाफी के खिलाफ सभी संघर्षों के प्रतीक के तौर पर लोगों के लब पर रहेगी।’
2007 में बाबा आमटे को ल्युकीमिया नामक बीमारी हो गयी। एक साल से ज्यादा समय तक बीमार रहने के बाद 9 फरवरी, 2008 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। दुनिया भर से उनके निधन पर सांत्वना संदेश आए।
बाबा आमटे की कल्याणकारी परियोजनाओं को उनके बेटे डॉ. विकास आमटे और डॉ. प्रकाश आमटे तथा उनके पोते कौस्तुभ आमटे आगे बढ़ा रहे हैं। बाबा आमटे की पोती डॉ. शीतल आमटे भी इससे जुड़ी थीं किन्तु दिसम्बर 2020 में उन्होंने विष का इंजेक्शन लगाकर आत्महत्या कर ली। वे महारोगी सेवा समिति ट्रस्ट (एमएसएस) की सीईओ थीं।
बाबा आमटे के सामाजिक कार्यों को देखते हुए दुनिया ने उन्हें सिर आँखों पर बैठाया। उन्हें वर्ष 1971 में पद्मश्री, 1984 में रेमन मैगसेसे, 1986 में पद्म विभूषण, 1999 में डॉ. अम्बेडकर अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2000 में गाँधी शांति पुरस्कार दिया गया। इन पुरस्कारों में मिले धन को भी उन्होंने कल्याणकारी परियोजनाओं के लिए समर्पित कर दिया। उन्हें संयुक्त राष्ट्र का मानवाधिकार पुरस्कार तथा टेम्पल्टन पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। सर्च इंजन गूगल ने डूडल के माध्यम से समाजसेवी बाबा आमटे को याद किया है।
बाबा आम्टे द्वारा रचित ‘ज्वाला आणि फुले’ तथा ‘उज्ज्वल उद्यासाठी’ शीर्षक काव्य संग्रह भी प्रकाशित हैं।
बाबा आमटे की तेरहवीं पुण्यतिथि (9 फरवरी) को हम समाज सेवा के क्षेत्र में उनके द्वारा किए गये असाधारण कार्यों का स्मरण करते हैं और उनके प्रति श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।
.
अमरनाथ
लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं। +919433009898, amarnath.cu@gmail.com
Related articles

कान्हे आली
अमरनाथJan 17, 2023
वरवर राव : कविता से क्रान्ति
अमरनाथDec 03, 2022
इंदिरा गाँधी : ‘अटल’ की ‘दुर्गा’
अमरनाथOct 31, 2022
जाति जाति में जाति
अमरनाथAug 25, 2022
किसकी आजादी का अमृत महोत्सव?
अमरनाथAug 13, 2022
मरिकी बाभन
अमरनाथAug 03, 2022डोनेट करें
जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
विज्ञापन
