अमली: लोक शैली से लोक स्वर का सफ़र
जब भी भिखारी ठाकुर का नाम आता है, उनका नाटक ‘बिदेसिया’ स्वाभाविक रूप से ज़ुबान पर आ जाता है। और जब ‘बिदेसिया’ की बात आती है तो ‘अमली’ को कोई कैसे भूल सकता है? ‘अमली’ हृषीकेश सुलभ का पहला और सबसे ज़्यादा खेला जाने वाला चर्चित नाटक है। ‘अमली’ बिदेसिया शैली में लिखा गया नाटक है। ‘बिदेसिया’ बिहार की एक नाट्य शैली के रूप में जाना जाने लगा है। ‘बिदेसिया’ नाम से भिखारी ठाकुर का एक नाटक है जो आज भी बिहार और बिहार के बाहर अन्य प्रदेशों में खूब खेला जाता है। अपने कथ्य और शैली से ‘बिदेसिया’ ने अपनी एक ऐसी पहचान बनाई कि कब भिखारी ठाकुर का यह नाटक ‘शैली’ में परिवर्तित हो गया, कहना मुश्किल है। बाद के दिनों में भिखारी ठाकुर ने जो भी लिखा, उनका नाम भले कुछ हो, लेकिन उनके साथ ‘बिदेसिया’ शैली ऐसा चस्पा रहा कि उससे मुक्त होना आसान नहीं था।
‘अमली’ भले बिदेसिया शैली में लिखा गया नाटक है, लेकिन इसकी एक स्वतंत्र पहचान है। इस नाटक में शैली और कथ्य में एक संतुलन व्याप्त है। देखने वालों के सम्मुख भिखारी ठाकुर का न फॉर्म हावी रहता है, न हृषीकेश सुलभ के नाटक का कथ्य। कथ्य और शैली का ऐसा सामंजस्य है कि कोई एक दूसरे को डोमिनेट करने की कोशिश नहीं करता है। एक सफल नाटक से किसी की यही अपेक्षा भी रहती है। और जो नाटक इस अपेक्षा पर खरा उतरता है, एक लंबा सफ़र तय करने में सफल भी होता है। निस्संदेह ‘अमली’ ने एक लंबा सफ़र किया है। और आज की तारीख़ में जहां यह नाटक खड़ा है, वहाँ तक कोई नाटक तभी पहुँच पाता है जो केवल रूप के बल पर ही नहीं, कथ्य के स्तर पर भी मज़बूती से टिका हो।
अप्रैल ‘77सारिका के नवलेखन अंक ( एक ) में प्रकाशित कहानी ‘अमली’ के केंद्रीय कथा को नाटक के लिए आधार कथा के रूप में अपनाया गया था। हालाँकि इस संदर्भ में हृषीकेश सुलभ का कहना है कि कहानी की अमली और नाटक की अमली में अंतर है।अमली की मात्र कथा-चेतना को नाटक के लिए स्वीकार किया गया है, उसके साथ जो कुछ सहज भाव में आ सकता था, लिया गया है। बाक़ी सब कुछ छूट गया या बदल गया है।
हिन्दी रंगमंच में कहानी से नाटक के रूप में बदलने की एक लंबी परंपरा रही है। फ़िल्म में ही नहीं हिन्दी रंगमंच में भी ऐसे अनेकों नाटक मिल जायेंगे जिसका आधार कोई न कोई कहानी है। ‘कहानी का रंगमंच’ आंदोलन की तो अवधारणा ही यही थी कि कहानी में बग़ैर कोई परिवर्तन किए, कहानी जिस रूप में है, उसी रूप में बिना किसी रंगमंचीय तामझाम के दर्शकों के बीच दिखा दिया जाये। लेकिन ‘अमली’ कहानी को जिस तरह मंच पर प्रस्तुत किया गया, वो केवल कहानी का मंचन नहीं था। न किसी दूसरे लेखक द्वारा कहानी से प्रभावित होने के बाद किया गया नाट्यरूपांतरण था। ख़ुद एक लेखक द्वारा अपनी कहानी का किया गया नाट्यरूपांतरण था। यह नाट्यरूपांतरण केवल कहानी को नाटक के रूप में परिवर्तित करना नहीं था, बल्कि एक विशिष्ट शैली में कहानी को ढालना था। वो भी बिहार की एक लोक नाट्य शैली ‘बिदेसिया’ में जो भिखारी ठाकुर के निधन के बाद जर्जर दशा में आ गई थी।
भिखारी ठाकुर जब तक जीवित थे, उन्होंने बिहार की इस प्रमुख शैली को राष्ट्रीय स्तर पर एक सम्माजनक स्थिति में ला कर रख दिया था। लोगों के बीच वे इतने लोकप्रिय थे कि उनका नाटक देखने दूर-दूर से आते थे। भिखारी ठाकुर के रंगकर्म का क्षेत्र ग्रामीण समाज था। वे समाज के हाशिये के लोगों को अपने नाटकों में इस तरह लाते थे कि उसे न केवल निम्न – पिछड़ा समाज पसंद करता था, अपितु सवर्ण समाज भी कहीं-न-कहीं अपने को कनेक्ट कर लेता था। नाटकों में बेरोज़गारी, बाल विवाह, दहेज और अंध विश्वास जैसे सामाजिक मुद्दे मनोरंजक ढंग से दिखते थे जिससे गाँव का हर वर्ग, हर तबका जुड़ जाता था। यही कारण था कि देखने वालों पर उनके नाटकों के कथ्य और गीत गहरे तक असर करते थे। नाटक के बाद भी उनके गीत लोग गुनगुनाते रहते थे, उनके गीतों को लोकोक्ति की तरह आम जीवन में इस्तेमाल करते थे। लोगों के जीवन में इस तरह रच-बस गये थे कि उनके अग़ल-बग़ल कुछ भी घटता था, उससे नाटक को किसी न किसी रूप में जोड़ ही लेते थे। उन नाटकों का असर देखने वालों पर तो पड़ता ही था, उनकी आगामी पीढ़ी जिसने न कभी भिखारी ठाकुर को देखा, न उनके नाटकों को गाँव-ज्वार में किसी औरों से करते देखा, भी भिखारी ठाकुर के गीतों की कुछ पंक्तियाँ गुनगुनाते मिल जायेंगी।
जब तक भिखारी ठाकुर ज़िंदा रहे, विशेष कर भोजपुरी इलाक़े में अपने नाटकों – गीतों के माध्यम से समाज में व्याप्त सामंती मूल्यों पर निरंतर प्रहार करते रहे। आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद भी एक सांस्कृतिक आंदोलन चलाते रहे। सामंती प्रवृति के लोगों द्वारा संचालित अपसंस्कृति और भड़ैती के ख़िलाफ़ एक जन संस्कृति के मोरचे पर वे एक सिपाही की तरह मुस्तैद रहे। कभी भी अश्लील गीत और नृत्य के पैरोकार लोगों को मुख्यधारा में आने नहीं दिया। उल्लेखनीय है कि जो अपसंस्कृत के हिमायती होते थे, उनके यहाँ भी जब कोई शादी-व्याह-मुंडन का आयोजन या कोई उत्सव होता तो भिखारी ठाकुर ही उनकी प्राथमिकता होते थे। भिखारी ठाकुर के सट्टे को देख कर सामंतों-भूपतियों-ज़मींदारों के यहाँ शादी का डेट फाइनल किया जाता था।
लेकिन भिखारी ठाकुर के निधन के बाद इस रंग आंदोलन को एक ज़बरदस्त झटका लगा। भिखारी ठाकुर ने अपने अथक परिश्रम और एक लंबे सांस्कृतिक आंदोलन से ‘लौंडा नाच’ को अपने नाटक में समाहित करते हुए अपने नाटक ‘बिदेसिया’ को जो एक नया नाम दिया था, सामंती मानसिकता वाले भूपतियों ने जनता की लोकप्रिय और संप्रेषित करने वाली लोक कला को फिर से अपनी गिरफ़्त में लेना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने इसे विकृत और अश्लील करना भी शुरू कर दिया। उन्हें जनता की इस शैली से कहीं न कहीं डर लगने लगा था। जिस तरह बिदेसिया शैली वाले नाटकों में सामाजिक और आर्थिक संरचनाओं में होने वाले बदलाव दिख रहे थे, उससे सामंत वर्ग को असहजता महसूस होने लगी थी। भिखारी ठाकुर के कुछ नाटकों के मंचन पर ज़मींदारों ने जिस तरह रियेक्ट किया, उन पर हमले किए, उनके साथ मार-पीट किया, सब उसी की प्रतिक्रिया थी।
भोजपुरी बोले जाने वाले इलाक़ों में लंबे समय तक किसान-मज़दूर और निम्न समाज के साथ ज़मींदारों द्वारा जुल्म ढाये जा रहे थे, जातीय भेदभाव बरता जा रहा था, उसके विरोध में जगह-जगह से प्रतिरोध के स्वर सुनाई पड़ने लगे थे। राजनीति में वाम की नई धारा ने आंदोलनकारियों के लिये जो नई ज़मीन तैयार की, इससे साहित्य और संस्कृति ख़ुद को अलग नहीं रह सकी। बौखला कर सामंत वर्ग खुल कर प्रतिक्रिया में आ गया। जो वर्ग नाटक से घृणा करता था, जो नाटक को नौटंकी कह कर नीची नज़र से देखता था, जो नाटक करना शूद्र कर्म समझता था, उसने इस जन शैली का अधिग्रहण करना शुरू कर दिया। कुछ भूपतियों को यह एक मुनाफ़ा वाला व्यवसाय लगा तो उन्होंने इसमें पूँजी निवेश करना शुरू कर दिया।
प्रत्यक्ष रूप से न सही तो अप्रत्यक्ष रूप से मंडलियाँ खोल दीं। इनका एक ही मक़सद था, जनता की सांस्कृतिक चेतना को विचारहीनता की दिशा में भटका देना और विकल्प के रूप में ऐसी संस्कृति स्थापित करना जो सामंती मूल्यों को यथावत बनाए रखे। उन्होंने कला को भोग का विषय बना दिया। उनके लिए नाटक केवल ऐयाशी की चीज थी। स्त्री-पुरुष के रिश्तों और संबंधों को भोगवाद के नज़रिए से देखने का ये परिणाम सामने आया कि भिखारी ठाकुर ने एक लंबे समय से जनता की धड़कनों को, उनकी संवेदनाओं को चेतना के स्तर पर जो सबल, सुदृढ़ किया था, भ्रष्ट होना शुरू हो गया। छोटे किसानों-खेत मज़दूरों के श्रम पर ही नहीं, उनकी संस्कृति-लोक परंपरा पर भी सामंतों-भूपतियों का क़ब्ज़ा हो गया। इन लोगों की विकृत रुचि ने बिदेसिया जैसे लोक शैली के नाट्य रूपों, गीत-संगीत और कथाओं को भी भ्रष्ट कर दिया। एक नाटक की लोकप्रियता से जिस लोक शैली ‘बिदेसिया’ का जन्म हुआ था, वो देखते ही देखते कब ‘लौंडा नाच’ में बदल गया पता ही नहीं चला। एक पूरी लोक परंपरा पर सामंतों का आधिपत्य हो गया। कला उनकी पूँजी हो गई। इसमें काम करने वाले नर्तक ज़मींदारों के रखैल की तरह रहने लगे। मंडलियों से जो कमाई होती थी, उसका बहुत बड़ा हिस्सा इन्हीं के हाथ लगता था।
हृषीकेश सुलभ संभवतः इस पीड़ा को गहरे रूप से समझ रहे थे।इसे महसूस कर रहे थे। भोजपुरी इलाके के होने के नाते इस लोक परंपरा की जर्जर स्थिति से उनका कलाकार मन बेचैनी महसूस कर रहा था, तभी तो अपनी प्रकाशित कहानी ‘अमली’ को इस भड़ैती संस्कृति के ख़िलाफ़ एक मुक्कमल जवाब के रूप में लाना उन्होंने ज़रूरी समझा। उन्हें लगा अमली को बिदेसिया शैली के रूप में प्रस्तुत करना ज़्यादा माकूल साबित होगा। इस संदर्भ में हृषीकेश सुलभ ने प्रकाशित नाटक ‘अमली’ की भूमिका में स्पष्ट लिखा है कि ‘इस कहानी को नाटक के रूप में लाने की प्रक्रिया में मेरी यह कोशिश रही है कि पुनर्प्रस्तुति के ख़तरों से बच कर पुनसृजन कर सकूँ।इस नाटक में गीत-संगीत और नृत्य की विशेष भूमिका है। अमली का गीत-संगीत नाटक की भावदशा को उत्प्रेरित या कथा को मात्र आगे बढ़ाता ही नहीं है, बल्कि कथा, पात्रों और उनके जीवन के कार्यव्यापार पर सार्थक टिप्पणियाँ भी करता है। फ़लतः यह टिप्पणियाँ दर्शकों को दर्शकों को स्थितियों के प्रति द्वंद्वात्मक और आलोचनात्मक दृष्टि देने की कोशिश करती हैं। अमली में यथार्थ का ताना-बाना बुनने की ज़रूरत नहीं पड़ती है और साथ ही यथार्थवादी ढर्रे से अलग हट कर कुछ करने करने के लिए एक पृष्टिभूमि मिलती है। इस नाटक की रंग रूढ़ियाँ मात्र-सहज आकर्षण के लिए नहीं है, बल्कि उनके पीछे एक चेतन दृष्टिकोण है, जो हमारी संवेदनशील परंपरा के गर्भ से पैदा होता है। सूत्रधार, लबार, गड़बड़िया (विदूषक) और समाजी (कोरस) की उपस्थिति हमारे लोकमंच के लिये एक परंपरागत उपस्थिति है।यह उपस्थिति अधिकतर कथा के बिखरे हुए सूत्रों को जोड़ने, किसी पात्र विशेष के मंच पर नाटकीय प्रवेश या कथा की भाव तीव्रता को उत्पन्न करने के लिए होती रही है। पर अमली में सूत्रधार, लबार गड़बड़िया और समाजी साधारणीकरण की स्थिति को भी तोड़ते हैं। इनके संवाद और कार्य व्यापार दर्शकों को अहसास दिलाते हैं कि जो दिखाया जा रहा है, वह सिर्फ़ सच नहीं है , सच के ऊपर टिप्पणी भी है। अमली के आलेख में यह कोशिश लगातार बनी रहती है कि नाटकीय उत्कर्ष के क्षणों में दर्शकों की कार्यक्षमता और चेतना क्षीण न होने पाये और दर्शक ऐसे क्षणों में पर्यवेक्षक के रूप में बदल जायें तथा उनकी चेतना और कार्यक्षमता पूरी तरह जागृत रहे।’
अमली का लेखन कार्य जब पूर्ण हो गया तो इसको तैयार करने की ज़िम्मेदारी उन दिनों पटना की सबसे चर्चित संस्था ‘कला संगम’ ने उठाई। सन् 1984 में केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी , दिल्ली ने एक योजना के तहत देश के कई युवा नाट्य निर्देशकों को अपने-अपने क्षेत्रों के लोक शैली को आधार बनाकर नाटक तैयार करने और उसके मंचन की ज़िम्मेदारी दी थी। उसी योजना के अंतर्गत ‘कला संगम’ ने हृषीकेश सुलभ के बिदेसिया शैलीपर लिखे गये इस नाटक ‘अमली’ को, बिहार के कलाकारों को लेकर भुवनेश्वर में आयोजित पूर्वी क्षेत्र नाट्य समारोह में 29अक्तूबर ,1984 में प्रथम मंचन किया। लुप्त और जर्जर होने वाली लोक शैली को इस तरह परिमार्जित रूप में देख कर दर्शकों को ही नहीं , रंगकर्म से जुड़े लोगों को भविष्य के प्रति सुखद आशा जगी। कला संगम ने पटना में लगातार इसके कई मंचन किए। पटना के अलावा संगीत कला मंदिर द्वारा कलकत्ता में आयोजित नाट्य महोत्सव, 85 तथा उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी द्वारा नैनीताल में आयोजित भारतीय हिन्दी नाटक समारोह, 85 में अमली का मंचन हुआ।
कला संगम द्वारा मंचित इस नाटक के निर्देशक सतीश आनंद थे। इस नाटक की मुख्य भूमिका ‘अमली’ में कविता कुंद्रा की थी। निर्देशक सतीश आनंद स्वयं महादेव राय और नाटक के लेखक हृषीकेश सुलभ अबरार खाँ की भूमिका में थे। सूत्रधार बने थे नीलेश, गड़बड़िया कृष्ण मुरारी। मुंशी जी की भूमिका कन्हैया ने की थी तो रमेसरा, बचना, बुधिया, बुझावन, किसुनवा की भूमिका झुन्नू श्रीवास्तव, अहिन्द्र, सुजाता, नवीन अधिकारी और राजू ने किया था। प्रकाश सदानंद मिश्र का था।इसके साथ एक दर्जन कलाकारों ने ग्रामीण पात्रों की विभिन्न भूमिका निभाई थी। उसी तरह दर्जन भर गायक-वादक ढोलक ,हारमोनियम, डागा, हुरक़ा, ताशा और बांसुरी बजाने के लिए जुड़े हुए थे।
इसमें कोई शक नहीं कि भिखारी ठाकुर के निधन के बाद बिदेसिया लोक शैली के विकास में जो एक लंबा ठहराव आ गया था, उस जड़ता को ‘अमली ‘ नाटक ने तोड़ा। उसको एक नई दिशा दी। सामंत जिस विधा को अश्लीलता की आँधी गली की तरफ़ मोड़ देना चाहते थे, हृषीकेश सुलभ के लिखे इस नाटक ने सर्चलाइट का काम किया। जिस विधा को लोग बिसरा रहे थे, इन्होंने अपने नाटक के द्वारा उसकी वापसी की। केवल शैली को पुर्नजीवित करना उनका उद्देश्य भी नहीं था, इसे लोक से जोड़कर एक वृहद् आयाम भी देना था। नाटक में केवल लोक तत्वों को डाल कर डेकोरेट करना इस नाटक का मक़सद नहीं था। गाँव की बुनियादी मसलों को उन्हीं की भाषा, बोली और रूप में रखना कहीं न कहीं दिलोदिमाग़ में बैठा हुआ था। भिखारी ठाकुर ने बिदेसिया में गाँव के ग़रीब , उपेक्षित लोगों के शहर की तरफ़ पलायन को अपना विषय बनाया था, इतने वर्षों बाद भी यह समस्या अमली में दिखती है। घर में अकेली सुंदरी तब भी असुरक्षित थी, आज भी अमली को मर्दवादी नज़रिए से बार-बार टकराना पड़ता है। अपनी अस्मिता के लिए सुंदरी और अमली दोनों को इस पितृसत्ता से टकराना पड़ता है।
हृषीकेश सुलभ के इस नाटक को लिखे चालीस वर्ष हो गये। आज भी इस नाटक का कहीं न कहीं मंचन होता रहता है। शायद इसलिए कि यह नाटक आज भी मौजूँ है। यह नाटक अपनी लोक शैली से लोगों की चेतना को जगा रहा है। उनके स्वर में स्वर मिला कर ऐसा नादरंग उत्पन्न कर रहा है, जिसकी गूंज टंकारे की तरह दूर-दूर तक जा रही है जिसको सुन कर लोग घरों से निकल कर उधर चल पड़े हैं जिधर ‘बिदेसिया’ हो रहा है… अमली खेला जा रहा है...