मुद्दा

ए के रामानुजन : कितनी रामायणें

कोई दस वर्ष पहले ए के रामानुजन के रामायण से जुड़े लेख को दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से हटाने पर विवाद पैदा हुआ। लेख का शीर्षक है ‘तीन सौ रामायण, पाँच उदाहरण और अनुवादों पर तीन विचार’। लेख़ को साल 2006 में दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में जोड़ा गया था बाद में इस पर हिन्दूवादी दलों की ओर से विवाद किए जाने के कारण लेख़ पर विचार के लिए चार विशेषज्ञों की एक समिति बनाई गई थी।

समिति के चार में से तीन विशेषज्ञ इस लेख़ को पाठ्यक्रम में रखे जाने के पक्ष में थे जबकि एक विशेषज्ञ की राय थी कि इस लेख़ को हटा दिया जाना चाहिए क्योंकि उनके मुताबिक शिक्षक इस लेख़ की पृष्ठभूमि शायद ठीक से समझा नही पाएंगे। दिल्ली विश्वविद्यालय की एकेडेमिक काउंसिल ने 9 अक्तूबर 2011 को हुए बैठक में ध्वनि मत के बाद लेख़ को पाठ्यक्रम से हटाने का निर्णय ले लिया। काउंसिल के 120 उपस्थित सदस्यों में से नौ लोगो ने लेख़ को पाठ्यक्रम में रखे जाने के पक्ष में लिखित मत दिए जबकि बाकी सभी ने लेख़ को हटाए जानें के पक्ष मे वोट दिया। 

इस लेख पर आश्चर्य करना या आपत्ति करना उचित नहीं प्रतीत होता। अगर आपत्ति इस बात को लेकर है कि रामायण तीन सौ कैसे हो सकती हैं, रामायण तो केवल एक हो सकती है तो ऐसे लोगों को इतिहास और मिथकों के बारे में अपनी जानकारी दुरस्त करने की ज़रुरत है। अगर रामानुजम के लेख पर प्रतिबंध लगा भी दिया जाए तो यह सच्चाई बदल नहीं जाएगी कि रामायण एक नहीं अनेक हैं। इंडोनेशिया से लेकर फिजी और सूरीनाम में। अपने अपने घरों में या थोड़ा सा अपनी मातृभाषाओं के समृद्ध साहित्य के बारे में बात करें तो पता चलेगा कि रामायण का अनुवाद देश की कई भाषाओं में हुआ है और अनुवाद करने वालों ने उसमें अपनी कहानियां भी जोड़ी हैं जैसा किसी भी मिथक के साथ होता ही है। 

संतोष देसाई के अनुसार रामकथा ने, तीन राहों से होकर सफ़र किया है : ”ज़मीन के रस्ते उत्तरी राह ने कथा को पंजाब और कश्मीर से चीन, तिब्बत और पूर्वी तुर्कीस्तान में पहुंचाया; समुद्र के रस्ते दक्षिणी राह ने कथा को गुजरात और दक्षिण भारत से जावा, सुमात्रा और मलय में पहुंचाया; और फिर ज़मीन के रस्ते पूर्वी राह ने कथा को बंगाल से बर्मा, थाईलैंड और लाओस पहुंचाया। वियतनाम और कंबोडिया ने अपनी कथाएं अंशतः जावा और अंशतः भारत से पूर्वी राह के ज़रिये हासिल कीं।

अलग-अलग भाषाओं के रामों का चरित्र और चेहरा भी अलग अलग होता है हाँ मूल बात वही रहती है। हिन्दी, अवधी से लेकर दक्षिण भारतीय भाषाओं, मराठी, मैथिली और असमिया भाषाओं में रामायण उपलब्ध हैं और अपने अपने हिसाब से कहानी को बढ़ाया घटाया गया है। जब हम जैन वाचनों की दुनिया में दाख़िल होते हैं, तो पाते हैं कि यहाँ रामकथा हिन्दू मूल्यों की वाहक नहीं रह गयी है। निश्चित रूप से, जैन पाठ यह भावना व्यक्त करते हैं कि हिंदुओं, विशेषतः ब्राह्मणों ने रावण को बदनाम किया है, उसे खलनायक बनाया है। एक जैन पाठ इस सवाल के साथ शुरू होता है, ”रावण जैसे शक्तिशाली राक्षस योद्धाओं को बंदर कैसे परास्त कर सकते हैं?

रावण जैसे कुलीन व्यक्ति और सम्मानित जैन कैसे मांस खा सकते और खून पी सकते हैं? कुंभकर्ण कैसे साल के छह महीने लगातार सो सकता है और कान में खौलता हुआ तेल डाले जाने, हाथियों को उसके ऊपर कुदाये जाने और चारों ओर युद्ध की तुरही और बिगुल बजाये जाने के बावजूद जगता नहीं? यह भी कहा जाता है कि रावण ने इंद्र को पकड़ा और उसके हाथ बांध कर लंका में घसीट लाया। इंद्र के साथ कौन ऐसा कर सकता है? ये सारी बातें बहुत काल्पनिक और अतिवादी प्रतीत होती हैं। ये झूठ हैं और इनमें कोई तार्किक संगति नहीं।”

रामानुजन के अनुसार रामायणों की संख्या और पिछले पच्चीस सौ या उससे भी अधिक सालों से दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में उनके प्रभाव का दायरा हैरतनाक है। जितनी भाषाओं में राम कथा पायी जाती है, उनकी फ़ेहरिस्त बताने में ही आप थक जाएंगे : अन्नामी, बाली, बाँग्ला, कम्बोडियाई, चीनी, गुजराती, जावाई, कन्नड़, कश्मीरी, खोटानी, लाओसी, मलेशियाई, मराठी, ओड़िया, प्राकृत, संस्कृत, संथाली, सिंहली, तमिल, तेलुगु, थाई, तिब्बती – पश्चिमी भाषाओं को छोड़ कर यह हाल है। सदियों के सफ़र के दौरान इनमें से कुछ भाषाओं में राम कथा के एकाधिक वाचनों (टेलिंग्स) ने जगह बनायी है। अकेले संस्कृत में मुख़्तलिफ़ आख्यान-विधाओं (प्रबंध काव्य, पुराण इत्यादि) से जुड़े पच्चीस या उससे भी ज़्यादा वाचन उपलब्ध हैं।

अगर हम नाटकों, नृत्य-नाटिकाओं, और शास्त्रीय तथा लोक दोनों परम्पराओं के अन्य वाचनों को भी जोड़ दें, तो रामायणों की संख्या और भी बढ़ जाती है। दक्षिण और दक्षिणपूर्व एशियाई संस्कृतियों में इनके साथ शिल्प और नक़्क़ाशी, मुखौटा-नाटकों, कठपुतली नाटकों और छाया-नाट्यों को भी अवश्य जोड़ा जाना चाहिए। रामायण के एक अध्येता, कामिल बुल्के, ने तीन सौ वाचनों की गिनती की है। कोई हैरत नहीं कि चौदहवीं सदी में ही एक कन्नड़ कवि कुमारव्यास ने महाभारत लिखना इसलिए तय किया कि उसने धरती को धारण करने वाले ब्रह्मांडीय सर्प शेषनाग, को रामायणी कवियों के बोझ तले आर्तनाद करते सुना। इस पर्चे में, जिसके लिए मैं बहुसंख्य पूर्ववर्ती अनुवादकों और विद्वानों का ऋणी हूं, मैं यह देखना चाहूंगा कि मुख़्तलिफ़ संस्कृतियों, भाषाओं, और धार्मिक परम्पराओं में एक कथा के ये सैंकड़ों वाचन परस्पर कैसे सम्बन्धित हैं : उनमें क्या-क्या अनूदित, प्रत्यारोपित, पक्षांतरित होता है।

वाल्मीकि और कम्बन : दो अहिल्याएं’ ज़ाहिर है, ये सैकड़ों वाचन एक दूसरे से भिन्न हैं। मैंने प्रचलित शब्द पाठांतर (वर्ज़न्स) या रूपांतर (वैरिएन्ट्स) की जगह वाचन (टेलिंग्स) कहना पसंद किया है तो इसका कारण है कि पाठांतर और रूपांतर, दोनों शब्द यह आशय भी देते हैं कि एक कोई मूल या आदि पाठ है जिसे पैमाना बना कर इन भटकावों की पहचान की जा सकती है,। सामान्यतः वाल्मीकि की संस्कृत रामायण को वह दर्जा मिलता है, जो कि सभी रामायणों में सबसे आरंभिक और प्रतिष्ठित है। लेकिन जैसा कि हम देखेंगे, हमेशा वाल्मीकि के आख्यान को ही एक से दूसरी भाषा में ले जाने का काम नहीं होता रहा है।

स्वयं परम्परा एक ओर रामकथा और दूसरी ओर वाल्मीकि, कम्बन या कृत्तिवास जैसे विशिष्ट व्यक्तियों द्वारा रचित पाठों के बीच फ़र्क़ करती है। हालाँकि बाद वाले कई पाठ भी लोकप्रिय स्तर पर रामायण ही कहे जाते हैं (मसलन, कम्बनरामायणम), लेकिन कुछ ही पाठों के नाम में सचमुच रामायण लगा हुआ है; इरामावतारम, रामचरितमानस, रामकियेन – इस तरह के नाम दिये गये हैं। वाल्मीकि द्वारा कही गयी रामकथा के साथ उनके सम्बन्ध भी जुदा-जुदा हैं। कथा और काव्य का यह पारंपरिक अंतर फ्रेंच के ‘सुजेट’ और ‘रेसिट’, या अंग्रेज़ी के ‘स्टोरी’ और ‘डिस्कोर्स’ के अंतर से मेल खाता है। यह वाक्य और कथन के अंतर जैसा भी है। हो सकता है, दो वाचनों में कथा समान हो, पर विमर्श बहुत भिन्न। यहाँ तक कि घटनाओं की संरचना और उनका क्रम समान हो, पर शैली, ब्यौरे, स्वर और टेक्स्चर (बुनावट) – और इसीलिए अभिप्राय – बहुत अलग हों।

यह तो जाहिर है कि भिन्न भिन्न रामायणों पर रामानुजन ने मौलिक काम किया जो अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। ए के रामानुजन उर्फ़ अट्टीपट कृष्णस्वामी रामानुजन का जन्म 16 मार्च, 1929 में मैसूर शहर के एक ब्राह्मिण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम अट्टीपट असूरी कृष्णस्वामी था। वे मैसूर विश्वविद्यालय में गणित के प्राध्यापक एवं एक खगोलशास्त्री थे। रामानुजन की मां अपने समय के एक रूढ़िवादी ब्राह्मिण महिला थी और घर को संभालती थी।

रामानुजन के पिता की मृत्यु 1949 में हो गयी – जब वे (रामानुजन) बीस वर्ष के थे। उनका पालन त्रिभाषी वातावरण में हुआ। वे अपने पिता से अंग्रेजी, अपनी माता से तमिल और बाहर शहर के लोगो से कन्नड़ में वार्तालाप करते थे। शिक्षा अपने ब्रह्म परवरिश के एक बुनियादी आवश्यकता थी। रामानुजन का बौद्धिक जीवन के प्रति जो समर्पण था वह उनके पिता के कारण ही पैदा हुआ था। उनके पिता का अध्ययन कक्ष अंग्रेजी, तमिल तथा संस्कृत की पुस्तकों से लदा रहता था। कभी कभी रात के खाने के वक्त, जब उनके पिता उनकी माता को पश्चिमी संस्कृति के शेक्सपियर जैसे कालजयी कृतियों के अनुवाद सुनाते थे तब वह भी उन्हें गौर से सुना करते थे।

अपने युवा वर्षों में उन्हें अपने पिता के ज्योतिष तथा खगोल विज्ञानं दोनों में विश्वास देख काफी उलझन में पड़ जाते थे : उन्हें तर्कसंगत और तर्कहीन का इस तरह का मिश्रण काफी विचित्र लगता था। मजे की बात है, रामानुजन ने अपनी पहले  कलात्मक प्रयास के रूप में जादू चुना। अपनी किशोरावस्था में, उन्होंने पड़ोसी  दर्जी से, इलास्टिक बैंड से युक्त छुपा जेब वाला एक कोट तैयार करवाया जिसमें उन्होंने खरगोश और फूलों के गुलदस्ते छुपा कर रख लिये। सर की टोपी, जादुई छड़ी और अन्य चीजों से लैस वे स्थानीय विद्यालयों, महिलाओं के समूहों तथा सामाजिक क्लबों में जादू का प्रदर्शन करते थे। एक जादूगर होने की इच्छा शायद उन्होंने अपने पिता  के तर्कहीन की धारणा में विश्वास से प्राप्त की थी। रामानुजन भारतीय थे और उनके अधिकांश काम भारत से सम्बन्धित थे परन्तु उन्होंने अपने जीवन का दूसरा भाग, अपनी मृत्यु तक अमेरिका में ही बिताया। उनका निधन शिकागो, अमेरिका में 13 जुलाई, 1993 को हुआ। 

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शैलेन्द्र चौहान

लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं। सम्पर्क +917838897877, shailendrachauhan@hotmail.com
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