नयी शिक्षा नीति : लागू करने से पहले के कर्तव्य
मेरे एक मित्र ने आग्रह किया था कि मुझे नयी शिक्षा-नीति के लिए सरकार द्वारा मांगे गये सुझावों में योगदान करना चाहिए। उन्होंने मुझे याद दिलाया कि मैंने अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा गठित अम्बानी-बिड़ला समिति की रपट की विस्तृत समीक्षा की थी। उस समीक्षा में प्रस्तुत तर्क के आधार पर मुझे समिति को सुझाव देना चाहिए कि नयी शिक्षा नीति में शिक्षा के उदारीकरण/निजीकरण का अजेंडा आरोपित नहीं किया जाए। मैंने मित्र को जवाब दिया कि राजनीति में नवउदारवादी अजेंडा चलेगा तो उसे शिक्षा में उसके प्रभाव को नहीं रोका जा सकता।
मैंने यह भी कहा कि एक शिक्षक के नाते वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था को लेकर मेरे कुछ सरोकार हैं, जिन पर एक और नयी शिक्षा नीति बनाने/लागू करने से पहले ध्यान दिया जाना चाहिए। लेकिन उन सरोकारों को लिख भेजने का फायदा नहीं है, क्योंकि समिति यह मान कर उन्हें दरकिनार कर देगी कि उनका शिक्षा-नीति से सीधा सम्बन्ध नहीं है। हालाँकि मित्र का इसरार बना रहा। लिहाज़ा, उनकी तसल्ली के लिए यह टिप्पणी।
नयी शिक्षा-नीति (2020) 29 जुलाई को कैबिनेट द्वारा स्वीकृत की जा चुकी है। हालाँकि उस पर बहस/आलोचना जारी है। मेरे दिमाग में तीन जरूरी कर्तव्य थे जो केन्द्र सरकार/राज्य सरकारों को नयी शिक्षा-नीति लागू करने से पहले पूरे करने चाहिए :
एक
नयी शिक्षा-नीति लागू करने से पहले देश के सभी विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्तियाँ स्वीकृत वेतनमान और सम्मानजनक शर्तों के साथ स्थायी रूप से की जानी चाहिए। शिक्षा-नीति कितनी भी उम्दा बनाई गयी हो, अगर गुणवत्ता शिक्षण (क्वालिटी टीचिंग) नहीं है, तो उसका पूरा लाभ शिक्षार्थियों को नहीं मिल सकता। कुछ चुनिंदा निजी और सरकारी स्कूलों को छोड़ कर पूरे देश में प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के शिक्षण की स्थिति अत्यंत खराब है। असमान स्कूल-प्रणाली और बहुपरती शिक्षा की मार इसी स्तर पर सबसे ज्यादा है। देश के हर बच्चे का यह संवैधानिक अधिकार है कि उसे पढाई के लिए प्रशिक्षित अध्यापक, समुचित उपकरण और रचनात्मक वातावरण उपलब्ध हो। नयी शिक्षा नीति में ऑनलाइन मोड में गुणवत्ता-युक्त शिक्षा देकर वैश्विक स्तर हासिल करने का सपना परोसा गया है। आबादी के एक छोटे हिस्से के लिए भी यह सपना बगैर स्थायी शिक्षकों के पूरा नहीं हो सकता।
दो
शिक्षण संस्थाओं के परिसरों में किसी भी स्थिति में पुलिस-बल का मनमाना प्रवेश नहीं होना चाहिए। परिसरों को छावनियों में बदलने से एक कठोर राज्य की मंशा भले ही पूरी होती हो, शिक्षा का संवेदनशील उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। एक सभ्य और व्यवस्थित राज्य की सुरक्षा अथवा कानून-व्यवस्था इतनी कमजोर नहीं मानी जा सकती कि पुलिस-बल परिसरों में सीधा धावा बोल कर उसका बचाव करें। हालाँकि नए भारत के समर्थक ऐसा नहीं मानते, लेकिन महंगी शिक्षा और बेरोजगारी की स्थिति में छात्र-शक्ति समेत देश के युवाओं में आक्रोश और तेजी से बढ़ता जाएगा। आक्रोश बढ़ने पर परिसरों के बाहर भी फैलता है।
पिछले कुछ दशकों में परिसरों में पुलिस की मौजूदगी और हस्तक्षेप की घटनाएँ तेजी से बढ़ी हैं। 15 दिसम्बर 2019 की जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की घटना इसकी ताज़ा मिसाल है। हालत यह है कि खुद कुलपति परिसर में अर्द्धसैनिक बलों की स्थायी तैनाती की मांग करने लगे हैं। पिछले साल विश्वभारती (शांति निकेतन) के कुलपति की मांग पर केन्द्र सरकार ने परिसर में स्थायी रूप से केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ) तैनात करने का फैसला किया।
इसके पहले 2017 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के कुलपति ने परिसर में अर्द्धसैनिक बलों की स्थायी तैनाती की मांग सरकार से की थी। पिछले साल नवम्बर में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के कुलपति ने छात्रों के आन्दोलन से निपटने के लिए खुद केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) को परिसर में बुलाया था। औपनिवेशिक विरासत का बोझा धोते हुए पुलिस सरकारी पक्ष के छात्र-संगठन/नेताओं का बचाव और विरोधियों का दमन करती है। ऐसी स्थिति में राजनीतिक-वर्ग, बौद्धिक-वर्ग और सुरक्षा अधिकारी-वर्ग को स्पष्ट नियमों के तहत यह सुनिश्चित करना चाहिए कि परिसरों के भीतर या बाहर छात्रों पर पुलिस का हमला न हो। एक स्वस्थ, स्वतन्त्र और सौहार्दपूर्ण वातावरण में ही शिक्षा-नीति के उद्देश्य फलीभूत हो सकते हैं।
तीन
अक्सर यह कह दिया जाता है कि छात्र-जीवन पढ़ाई के लिए है, राजनीति के लिए नहीं। लेकिन छात्र-राजनीति की आधुनिक दुनिया के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भारत में स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान और बाद में कई महत्वपूर्ण राजनेता छात्र-राजनीति से आए। नवउदारवादी दौर में निजी संस्थानों और विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों की राजनीति का भी सवाल है। लम्बे समय तक वहां पढ़ने वाले छात्रों को छात्र-संगठन बनाने और छात्र-संघ चुनावों से रोका नहीं जा सकता।
लिहाज़ा, यह धारणा सही नहीं मानी जा सकती कि छात्रों को केवल पढ़ाई करनी चाहिए, राजनीति नहीं। इस बारे में भगत सिंह का कथन है, “वे (विद्यार्थी) पढ़ें। जरूर पढ़ें। साथ ही राजनीति का ज्ञान भी हासिल करें। और जब जरूरत हो तो मैदान में कूद पड़ें और अपना जीवन इसी काम में लगा दें।” डॉ। लोहिया का तर्क है कि ज्ञानार्थी होने के नाते विद्यार्थी चाह कर भी राजनीति से बच नहीं सकते। उनका कहना है, “जब विद्यार्थी राजनीति नहीं करते तब वे सरकारी राजनीति को चलने देते हैं और इस तरह परोक्ष में राजनीति करते हैं।”
यह सही है कि नवउदारवादी दौर में छात्र-राजनीति का चेहरा काफी विद्रूप हुआ है। छात्र-संघ चुनाव, लिंगदोह समिति की सिफारिशों के बावजूद, धन-बल, बाहु-बल और मनोरंजन व्यवसाय (शो बिजनेस) का मिश्रण बन कर रह गये हैं। छात्र-राजनीति से विचारशीलता प्राय: गायब हो चुकी है। लेकिन इसमें राजनीतिक पार्टियों और नेताओं का ज्यादा दोष है। सरकारों की मंशा प्राय: छात्र एवं युवा-शक्ति को भटकाने और आपस में लड़ाने की रहती है। छात्र-संगठनों की संसाधनों के लिए राजनीतिक पार्टियों पर निर्भरता और अस्मितावादी गोलबन्दी के चलते सरकारों के लिए यह आसान हो जाता है। छात्र-नेताओं को खुद छात्र-राजनीति को साफ़-सुथरा बनाने की चिन्ता और पहल करनी चाहिए है, ताकि उसकी साख बहाल हो सके।