नेहरू मॉडल और एक श्रावणी दोपहरी की धूप (भाग-1)
- मृत्युंजय पाण्डेय
नेहरू युग की समाप्ति के समय यानी 1962 में रेणु की ‘एक श्रावणी दोपहरी की धूप’ कहानी प्रकाशित होती है। इस कहानी का सम्बन्ध नेहरू मॉडल से भी है और गाँधी मॉडल से भी। नेहरू जिस मॉडल को स्वतन्त्र भारत में आजमाते हैं, उसे पूरी दुनिया अपना चुकी थी, रही बात गाँधी मॉडल की तो उसे कभी अपनाया ही नहीं गया। लेकिन आज न सिर्फ भारत बल्कि अन्य कई देश भी गाँधी मॉडल की जरूरत को महसूस कर रहे हैं। समय के साथ गाँधी हमें बहुत याद आ रहे हैं। बीते कुछ वर्षों में गाँधी पर सबसे अधिक किताबें भी प्रकाशित हुई हैं।
आजादी के बाद हमारे सामने विकास के दो मॉडल थे। एक पण्डित नेहरू और दूसरे महात्मा गाँधी। नेहरू कल-कारखानों के द्वारा भारत को स्वावलम्बी बनाना चाहते थे, उनकी दृष्टि में यही उचित था। इसके विपरीत गाँधी जी भारत का विकास गाँवों से करना चाहते थे। वे शहर की अपेक्षा गाँव को स्वावलम्बी बनता हुआ देखना चाहते थे। उनके विकास के पैमाने पर गाँव का ‘आखिरी आदमी’ सबसे पहले था। लेकिन आजादी के बाद गाँधी की नहीं, नेहरू की चली। गाँधी का सपना, सपना ही रह गया। स्वतन्त्र भारत ने उनके सपनों को महत्त्व नहीं दिया। नेहरू के विकास मॉडल में औद्योगीकरण, शहरीकरण पर विशेष बल दिया गया। एक तरह से यह मॉडल प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर आधारित है। औद्योगीकरण और शहरीकरण का परिणाम यह हुआ कि हमारी पारम्परिक सामाजिक चीजें हमारे हाथों से फिसलती गयीं। एक बहुत बड़ा परिवर्तन आया। जिसे उथल-पुथल भी कह सकते हैं। गाँधी का राजनीतिक उत्तराधिकारी होने के बावजूद नेहरू ने उनके सपने को अहमियत नहीं दी।
जयप्रकाश नारायण नेहरू के काफी करीब थे। वे नेहरू के मॉडल को प्रश्नांकित करते हुए लिखते हैं— “पण्डित नेहरू ने जो मिश्रित उदार और मार्क्सवादी मॉडल देश के सामने रखा उसमें दम मालूम पड़ता था और एक बार तो ऐसा लगने लगा था कि यह सफल हो रहा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि जब यह लगने लगा कि यह सफल हो रहा है उसी समय मुझे इसकी खामियाँ दिखीं जो विनाशकारी हैं। यही वजह है कि मैं उससे अलग हो गया। इस मॉडल की शुरुआती सफलता की कुछ वजहें हैं। अर्थव्यवस्था काफी समय से सुस्त पड़ी थी। सार्वजनिक क्षेत्र नयी भूमिका में था। वहीं आर्थिक विकास की नयी योजनाओं के लिए बाहर से काफी पैसा मिला था। इससे नेहरू मॉडल शुरुआत में सफल दिखने लगा था। लेकिन यह मॉडल शुरुआत से ही अभारतीय और सम्भ्रांतवर्गीय था इसलिए इसे अन्ततः नाकाम होना ही था। यह कोई संयोग नहीं है कि नेहरू के विकास मॉडल ने आय और धन के स्तर पर बहुत ज्यादा गैरबराबरी पैदा की। इसने सबसे अधिक लोगों को गरीबी रेखा के नीचे धकेला। इसने सबसे अधिक सनकी सम्भ्रांत वर्ग पैदा किया। इसका सबसे बड़ा खामियाजा यह भुगतना पड़ा कि इसने हमारे सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार और अनैतिकता को अपनी जड़ें जमा लेने का अवसर मुहैया करा दिया।” जयप्रकाश नारायण के इस कथन के आलोक में नेहरू मॉडल की नाकामी को बारीकी से समझा जा सकता है।
बाद में इन्दिरा गाँधी ने भी सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए महात्मा गाँधी के सरनेम को लिया, उनकी योजनाओं को नहीं। जे डी शेट्टी भी नेहरू मॉडल की नाकामी को रेखांकित करते हैं— “नेहरू के कार्यकाल में बड़े कारोबारी घराने के विकास की गति इतनी अधिक थी कि उतनी उस दरम्यान दुनिया के किसी भी देश में किसी समूह की नहीं रही। यह मॉडल कृत्रिम था और इसे ध्वस्त होना ही था। इस मॉडल को बढ़ाने के लिए गाँधी को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया।” नेहरू काल से कारोबारी घरानों के विकास की जो गति चली है, वह थमी नहीं है। समय के साथ ये और भी विकास करते जा रहे हैं और गरीब और भी गरीबी रेखा के नीचे उतरते जा रहे हैं। गाँधी को भुलाने का, उनके विकास के मॉडल को नजरअंदाज करने का खामियाजा आज पूरा देश भुगत रहा है। औद्योगिकीकरण के पक्ष में नेहरू के रुझान को देखते हुए सन् 1945 में ही गाँधी जी ने कहा था— “मुझे कोई डर नहीं कि दुनिया उल्टी ओर ही जा रही दिखती है। यों तो पतंग जब अपने नाश की ओर जाता है तब ज्यादा चक्कर खाता है और चक्कर खाते-खाते जल जाता है। हो सकता है की हिन्दोस्तान इस पतंगे के चक्कर में से न बच सके। मेरा फर्ज है कि आखिरी दम तक उसमें से उसे और उसके मार्फत जगत को बचाने की कोशिश करूँ। मेरे कहने का निचोड़ यह है कि मनुष्य जीवन के लिए जितनी जरूरत की चीज है उस पर निजी काबू रहना ही चाहिए—अगर न रहे तो व्यक्ति बच नहीं सकता।” गाँधी जी नेहरू मॉडल के दुष्परिणाम को भली-भाँति जानते थे। उन्होंने सिर्फ भारत को देखा नहीं, बल्कि भारत को जिया था। वे स्वयं में भारत थे (हैं)। डॉक्टर राममनोहर लोहिया भी नेहरू मॉडल के घोर विरोधी थे। इस विषय पर उनकी नेहरू से लम्बी बहसें हुआ करती थीं।
नेहरू के जिस मॉडल की बात गाँधी, जयप्रकाश नारायण, लोहिया और शेट्टी करते हैं, उसे सन् 1924-25 में भी प्रेमचन्द ने देख लिया था। ‘रंगभूमि’ उपन्यास के पांडेपुर गाँव में जब सिगरेट की फैक्ट्री लगने की बात आती है तो सूरदास उसका जमकर विरोध करता है। उसका कहना है कि इससे समाज में दुराचार फैलेगा। शराब-दारू के ठेके खुलेंगे। बाहर से लोग आकार काम करेंगे, जो गाँव की बहू-बेटियों को गलत दृष्टि से देखेंगे। देहात के किसान अपना काम छोड़कर मजदूरी की तलाश में इन कारखानों में जाएँगे। वहाँ वे बुरी आदतें सीखेंगे और उन्हें गाँव में लेकर आएंगे। धीरे-धीरे गाँव-घर की लड़कियाँ और बहूएँ भी मजूरी करने जाएँगी और वे भी बुरे आचरण सीखेंगी। इसीलिए सूरदास मरते दम तक फैक्ट्री का विरोध करता है। प्रेमचन्द का सूरदास कोई और नहीं, बल्कि खुद महात्मा गाँधी हैं। गाँधी आजीवन कल-कारखानों के विरोधी रहे। भारत जैसे देश के लिए वे उचित नहीं मानते थे।
प्रेमचन्द के इसी उपन्यास में हम देखते हैं कि पांडेपुर में फैक्ट्री लगने के बाद परदेसी मजदूर आते हैं, जिन्हें न तो बिरादरी का भय है और न ही सगे-संबंधियों का लिहाज। वे दिन भर मिल में काम करते हैं तथा रात को शराब एवं ताड़ी जैसी मादक चीजों का सेवन करते हैं। पांडेपुर में एक छोटा-मोटा चकला घर भी आबाद हो जाता है। धीरे-धीरे गाँव के लोग इसके प्रभाव में आ जाते हैं। वे भी जुआ खेलते हैं और वेश्याओं के पास जाते हैं। वे अपने ही पड़ोसी के घर में चोरी करते हैं। उनकी आँखों का पानी मर जाता है। बड़े पैमाने पर ये सारी विकृतियाँ कल-कारखानों के लगने के बाद ही आती हैं। गाँव तेजी से बदलने लगा।
नेहरू मॉडल और एक श्रावणी दोपहरी की धूप (भाग-2)
लेखक देवीशंकर अवस्थी पुरस्कार से सम्मानित युवा आलोचक एवं सुरेन्द्रनाथ कॉलेज, कलकत्ता विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं।
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