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पिछले कुछ समय से परिस्थितिवश बॉलीवुड से मोह छूट सा गया, रही सही कसर वेब सीरीज पूरी कर ही रही है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सिनेमा की दृष्टि से आने वाला समय वेब सीरीज का होगा। दर्शकों को समझ आने लगा है कि अब बॉलीवुड के पास वो दृष्टिकोण नहीं है जो समय की माँग है। बॉलीवुड तो अभी भी नासमझी जैसी चीजें दर्शकों को परोस रहा है। ख़ैर समय की माँग और आवश्यकता को देखते हुए इस दौर में क्षेत्रीय सिनेमा भी सिनेमा जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका है। यह उपस्थिति निश्चित रूप से सिनेमा जगत का भविष्य तय करेगी। जिसकी शुरुआत हिमाचल सिनेमा द्वारा स्पष्ट देखी जा सकती है।
अभी हाल ही में क्षेत्रीय सिनेमा के जाने माने फ़िल्म निर्देशक पवन शर्मा द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘वनरक्षक’ देखी। इस पर्यावरण दिवस के अवसर पर ऐसी बेहतरीन फ़िल्म देखना रोमांच और कुदरत के क़रीब ले जाता है। यह फ़िल्म हिमाचल प्रदेश के वनों और वहाँ वनों की समस्याओं को केंद्र में रखकर फ़िल्मायी गयी है। इस फ़िल्म पर कुछ भी लिखने से पहले निर्देशक महोदय से यह छूट चाहूँगा कि मैं कोई फ़िल्म समीक्षक/आलोचक नहीं हूँ। इस फ़िल्म को देखकर मुझे मेरे वो विद्यार्थी और उनकी बातें याद आयीं जो फ़ॉरेस्ट गार्ड हैं। उन्होंने अपने जो व्यक्तिगत मुझसे साझा किया या करते हैं, उन्हें इस फ़िल्म में देखकर मैंने अनुभव किया, उन्ही को ध्यान में रखकर यहाँ कुछ बातें कहना चाहूँगा।
आशा करता हूँ फ़िल्म निर्देशक पवन सर तक मेरी ये बात सबलोग के माध्यम से पहुँचेगी।
बात करें फ़िल्म की तो अभी तक आमतौर पर फ़िल्मों में तीनों आर्मी या पुलिस वालों को नायक के रूप में दिखाया गया है। क्या इनके अलावा हमारे नायक कोई नहीं हैं? या जानबूझकर सिनेमा ने उन्हें उपेक्षित किया है। यह बहस का वैसे इतर विषय है। इस फ़िल्म में जिस तरह फ़ॉरेस्ट गार्ड की ज़िंदगी को फ़िल्माया है, उसकी जितनी तारीफ़ की जाए कम है। फ़िल्म निर्देशक ने दर्शकों को अपना नायक चुनने का एक नया दृष्टिकोण इस फ़िल्म के माध्यम से दिया है।
न जाने ऐसे कितने चिरंजीलाल हैं जिन्होंने जंगल के अस्तित्व को बचाने के लिए अपने प्राणों तक को न्योछावर कर दिया, जंगलों के लिए शहीद हो गए। इससे भी दुःखद पहलू यह है कि न जाने कितने ऐसे चिरंजीलाल हैं जिनके अंतिम दर्शन करने को भी उनके अपने तक नहीं आते। ऐसे असंख्य चिरंजीलालों के कारण हमारे ये जंगल शान से खड़े हैं। चिरंजीलाल फ़िल्म का एक ऐसा नायक है जिसके कथनी और करनी में कोई फ़र्क़ नहीं देखता। विरले होते हैं ऐसे नायक। असल में ऐसे व्यक्ति ही हमारे युवकों के जीवन के आदर्श होने चाहिए।
जहां हमारे देश के जवान देश के बाहर के दुश्मनों से देश की रक्षा करते हैं, वही ये हमारे फ़ॉरेस्ट गार्ड्स हैं जो अपने ही देश के चंद लालची ग़द्दार लोगों से हमारे जंगलों की रक्षा करते हैं। और हमारा अस्तित्व जंगलों से ही है। इसलिए यह कहने में कोई बड़ी बात नहीं होगी कि हमारे प्राकृतिक जीवन के ज़िंदा रहने की बहुत बड़ी वजह ऐसे जाँबाज़ फ़ॉरेस्ट गार्ड हैं, जो अपनी जान की परवाह किए बिना जंगल के जीवन को बचाएँ रखते हैं।
फ़िल्मांकन और अभिनयता को लेकर इस फ़िल्म पर काफ़ी बातें हो चुकी हैं तो उन्हें दोहराने से कोई लाभ नहीं, फिर भी इतना कहना चाहूँगा कि धीरेंद्र ठाकुर, यशपाल शर्मा और फलक खान आदि सभी का अभिनय दर्शकों को अपनी ओर खिचता ही नहीं बल्कि प्रभावित भी करता है। इस फ़िल्म का एक दृश्य ने बहुत प्रभावित किया, जो दोगले समाज के दोगले चरित्र को उद्घाटित करता है।
पर्यावरण संरक्षण के नाम पर देश के लगभग हर संस्थान में लाखों , करोड़ों रुपए सिर्फ़ सेमिनार्स/कॉन्फ्रेन्सेस/कार्यक्रमों आदि के नाम पर बर्बाद कर दिए जाते हैं। जबकि पर्यावरण को नुक़सान की योजना भी इन्ही कार्यक्रमों के समानांतर बनायी जाने लगती है। जैसा कि फ़िल्म में भी दिखाया गया है कि एक विश्वविद्यालय में पर्यावरण सम्बंधित कार्यक्रम चल रहा होता है, वहीं घोषणा होती है कि विश्वविद्यालय के पास के जंगल को काटकर एक बड़ा भवन बनाया जाएगा। पूरी भरी सभा में इस बात का विरोध एक ही विद्यार्थी चिरंजीलाल द्वारा किया जाता है, जिसका ख़ामियाज़ा भी उसे इस विरोध का भुगतना पड़ता है।
फ़िल्म में जैसा नायक दिखाया गया है असल में हमारे देश समाज को ऐसे ही व्यक्तियों की ज़रूरत हैं जो अपनी प्रकृति को बचाने के लिए अपनी नौकरी से लेकर अपनी जान की बाज़ी भी लगा दें। सलाम है देश के ऐसे युवकों को। इस फ़िल्म में जंगल और उसके संरक्षण को लेकर सरकारी स्तर पर जो सीमाएँ या कमज़ोरियाँ हैं, वो भी ‘वनरक्षक’ फ़िल्म में बखूबी दिखाया गया है। एक सवाल और यह फ़िल्म खड़ा करती है कि यदि सरकारी तंत्र को उसका अपना ठीक से नहीं करने दिया जाएगा, तो जंगल कैसे सुरक्षित रह सकेंगे?
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इस फ़िल्म में फ़िल्माया एक गीत, जिसे भजन कहना उपयुक्त होगा, फ़िल्म के साथ गहराई से जोड़ता है। यह गीत गाया है मशहूर गायक हंसराज रघुवंशी ने, उनकी गायकी तो अपने आप में अध्यात्म रूप से हृदय तक पहुँचती है। यह भजन ‘ मां शिकारी देवी’ के ऊपर फ़िल्माया गया है। हिमाचल प्रदेश के मंडी ज़िले में स्थित महाभारत क़ालीन पौराणिक स्थल ‘शिकारी देवी’ का मंदिर है, जो अपनी प्रकृति छटा को लेकर मशहूर है। वहाँ की विषम भौगोलिक स्थिति को देखकर यह अंदाज़ा लगाया जा सकता कि वहाँ शूटिंग करना कितना दुष्कर कार्य रहा होगा।
इसके लिए पवन शर्मा सर की पूरी टीम को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। ऐसी क्षेत्रीय फ़िल्में बनती रहनी चाहिए, जिससे तथाकथित फ़िल्मी कहानियों और नायक/नायिकाओं के बन चुके आदर्शों को टक्कर मिले और वो टूटकर सिनेमा के माध्यम से नए आदर्शों की स्थापना हो। बल्कि क्षेत्रीय सिनेमा को लगातार प्रोत्साहन मिलता रहना चाहिए। ताकि प्रांतीय स्तर की खूबियाँ और कमियाँ एक बड़े फलक के माध्यम से आमजन तक पहुँच सकें। रेटिंग की जरूरत ही क्या है ऐसी फिल्मों के लिए। क्या यह काफी नहीं कि वे आपको चेतनाशील कर जाएं।