शिक्षा

ज्ञान  के मार्ग में बाधा

 

  • महेश चन्द्र पुनेठा

शिक्षा की बदली अवधारणा के अनुसार सीखना ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया है। ज्ञान का अर्थ सूचना और तथ्यों का संग्रह और उन्हें याद करना नहीं है, न ही उन्हें एक मस्तिष्क से दूसरे मस्तिष्क में स्थानांतरित करना है, बल्कि ज्ञान का अर्थ सूचना और तथ्यों के आधार पर विभिन्न अवधारणाओं के बीच संबंध स्थापित कर अपना एक ढांचा खड़ा करना है। ऐसा ढांचा, जिसके मतलब को वह बता सके और साथ ही उसके कारण की व्याख्या कर सके अर्थात उसके पक्ष या विपक्ष  में अपने प्रमाण प्रस्तुत कर सके। अब सवाल है कि यह ढांचा खड़ा कैसे होता है? इस ढांचे को खड़ा करने से पहले बच्चे अपने आसपास का अवलोकन करते हैं, तथ्यों और सूचनाओं का संकलन और वर्गीकरण करते हैं, नई-नई सूचनाओं की खोज करते हैं, प्रयोग द्वारा उनका परीक्षण करते हैं, फिर प्राप्त परिणामों का संष्लेशण-विष्लेशण व पूर्व में प्राप्त निष्कर्षों से तुलना करते हुए स्वयं एक निष्कर्ष तक पहुंचते हैं। इस तरह ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया पूर्ण होती है। जब उनके द्वारा प्रस्तुत निष्कर्ष को समाज की मान्यता प्राप्त होती है तो उसे ज्ञान का सृजन होना कहा जाता है। नई अवधारणा यह मानती है कि ज्ञान प्राप्त या प्रदान नहीं किया जा सकता है। दरअसल ज्ञान के नाम पर जो  प्राप्त या प्रदान किया जाता है, वह सूचना या जानकारी मात्र है। ज्ञान और जानकारी में बहुत अधिक अंतर है। ज्ञान के साथ बोध बहुत गहराई से जुड़ा है। वह अवधारणाओं के बीच संबंधों की एक ऐसी संरचना है, जिसे हम अपने अनुभवों के आधार पर मस्तिष्क में बनाते हैं तथा उसकी जांच करने में सक्षम होते हैं। इस संरचना को बनाने में दूसरे व्यक्ति या सूचनाएं हमारी मदद तो कर सकते हैं, लेकिन बना नहीं सकते हैं। बनाना हमें खुद ही पड़ता है। इसलिए बहुत सारी जानकारी रखने वाला व्यक्ति जानकार कहला सकता है ज्ञानी नहीं। ज्ञानी उसे ही कहा जा सकता है, जो एक निश्चित प्रक्रिया से गुजरते हुए ज्ञान का सृजन करता है और उस ज्ञान को दूसरों को समझाने में सफल होता है। इस संदर्भ में एन.सी.एफ. 2005 सटीक बात कहता है-जब तक सीखने वाला पाठ्यपुस्तकों के पाठ को अपने जीवन संदर्भों से नहीं जोड़ पाता, ज्ञान तब तक महज सूचना ही बना रहता है।

ज्ञान निर्माण की उक्त प्रक्रिया को पूर्ण करने हेतु पर्याप्त समय, स्वतंत्रता और चुनौती की आवश्यकता होती है। नयी–नयी  चुनौतियों से जूझना पड़ता है। ये चुनौतियां बच्चों को चिंतन के अधिक से अधिक अवसर प्रदान करते हैं। चिंतन उनकी कल्पनाशीलता को नई उड़ान प्रदान करता है। नई-नई परिकल्पनाओं को जन्म देता है। ये परिकल्पनाएं उन्हें नया खोजने की ओर प्रवृत्त करती हैं। इस प्रकार सीखने का एक चक्र निरंतर चलता रहता है। इस तरह सीखना स्थाई भी होता है और जीवन की तैयारी में बच्चे की मदद करता है। उसके जीवन में आधारभूत परिवर्तन लाता है। ध्यातव्य है कि बच्चे के पास समय, स्वतंत्रता और चुनौतियां जितनी कम होंगी ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया उतनी ही कमजोर होगी। इन तीनों के अभाव में अवलोकन-पूछताछ-संवाद-खोज-संकलन-वर्गीकरण-प्रयोग-परीक्षण-संष्लेशण-विष्लेशण-निष्कर्ष और प्रस्तुतीकरण का यह चक्र पूरा होना संभव नहीं है। ज्ञान सृजन के लिए इन तीनों का होना उसी तरह जरूरी है जिस तरह वर्षा के लिए गर्मी का होना, निम्न वायुदाब क्षेत्र का बनना, उच्च वायुदाब क्षेत्र से नमी भरी हवाओं का आना और हवाओं के रास्ते में किसी अवरोधक का खड़ा होना। बच्चों के पास इतना समय और स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वे नई जगहों-लोगों से मिल सकें, प्रश्न पूछ सकें, चर्चा कर सकें, चिंतन कर सके ,नई अवधारणाओं से परिचय प्राप्त कर सकें और अपने विचार रख सकें। यह प्रक्रिया बच्चों के भीतर आलोचनात्मक विवेक भी पैदा करती है। इसके लिए गतिविधिपरक शिक्षण का विशेष महत्व होता है। किसी बंद कमरे में बैठकर नए एवं ताजे अनुभव ग्रहण नहीं किए जा सकते हैं। भ्रमण, प्रोजेक्ट कार्य, प्रयोगशाला और पुस्तकालय इसके लिए जरूरी हैं। इनका जितना अधिक और जीवंत प्रयोग किया जाता है, ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया उतनी सहज-सरल और प्रमाणिक होती है। सामूहिकता और सहभागिता का इसमें अपना योगदान होता है। बच्चे अपने वय वर्ग के साथियों के साथ मिलकर और आपसी संवाद से अधिक असानी से सीख पाते हैं। बहुत कुछ ऐसा ग्रहण करते हैं,जो औपचारिक शिक्षण के दौरान नहीं मिलता है।

स्कूल एक ऐसा स्थान होता है, जहां बच्चे को इस तरह का वातावरण उपलब्ध करवाया जाता है कि वह ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया को पूरा कर सके। स्कूल की जिम्मेदारी होती है कि वह सीखने के दौरान बच्चों के सामने नई-नई चुनौतियों प्रस्तुत करे तथा सूचना-तथ्यों और तैयार उत्तरों का जखीरा  उनके पास प्रस्तुत कर ‘स्पून फीडिंग’ करने से बचे। लेकिन जिस तरह से आज ट्यूशन और कोचिंग, पढ़ाई का मुख्य हिस्सा बनता जा रहा है और बच्चे स्कूल की अपेक्षा कोचिंग क्लासेज को अधिक समय दे रहे हैं, ऐसे में प्रष्न उठते हैं कि क्या वहां बच्चों को ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया को पूरा करने हेतु पर्याप्त समय, स्वतंत्रता और चुनौती मिल पा रही है? क्या ट्यूशन या कोचिंग क्लासेज बच्चों के रचनात्मक विकास के अवसर उपलब्ध करवा पा रहे हैं? क्या स्कूल और ट्यूशन के बीच झूल रहे बच्चों के पास इतना अवकाष शेष रह जाता है कि वे कुछ नया सोच या कर पाएं? अपनी मनपसंद की कोई किताब पढ़ पाएं या कोई फिल्म देख पाएं?

हम अपने आसपास मौजूद बच्चों की दिनचर्या पर नजर डालें तो हमें स्थिति की भयावहता के दर्शन हो जाते हैं।एक समय था जब ट्यूशन केवल सीखने में पीछे रह जाने वाले बच्चों के लिए हुआ करता था। धीमी गति से सीखने वाले बच्चे भी वर्ष के कुछ महीनों ही ट्यूशन लिया करते थे जिसमें कठिन माने जाने वाले विषयों के कठिन स्थलों पर मदद दी जाती थी लेकिन आज ट्यूशन पढ़ाई का एक अहम् हिस्सा बन चुका है। स्कूल की पढ़ाई शुरू होने से पहले ट्यूशन शुरू हो जा रहा है। बड़ी कक्षाओं को तो छोड़िए प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चे भी ट्यूशन जाते हुए दिख जाते हैं। बच्चे स्कूल जाने से पहले ट्यूशन और स्कूल से लौटने के बाद ट्यूशन को जाते ही दिखाई देते हैं। थोड़ा बहुत जो समय बचता है उसमें होमवर्क करने में व्यस्त। पहले तो केवल स्कूल का होमवर्क होता था, अब ट्यूशन से भी होमवर्क मिलने लगा है। ट्यूशन-स्कूल-होमवर्क के जाल से बच्चों को जकड़ दिया गया है। उन्हें खेलने तक का समय नहीं मिल पा रहा है। उनका शारीरिक विकास भी अवरूद्ध हो रहा है। जबकि यह माना जाता है कि शारीरिक विकास मानसिक व ज्ञानात्मक विकास में सहयोग देता है। सोचने,तर्क करने ,स्वयं व दुनिया का समझने तथा भाषा का प्रयोग करने की सामर्थ्य पैदा करता है।

क्या ऐसी परिस्थिति में कोई वैज्ञानिक, चिंतक, साहित्यकार आदि पैदा हो सकता है? ट्यूशन जिस तरह से नंबरों की होड़ को बढ़ाते हैं, क्या उससे विद्यार्थियों में उत्सुकता, जिज्ञासा या खोज की प्रवृति विकासित हो सकती है? क्या कोचिंग क्लासेज ‘स्पून फीडिंग’ कर चुनौतियों को खत्म करने का काम नहीं कर रहे है? एक स्कूल किताबी पढ़ाई के इतर बच्चों में जो कुछ पैदा करता है, क्या ट्यूशन या कोचिंग क्लासेज के लिए ऐसा करना संभव है? एक प्रश्न यह भी उठता है कि आखिर बच्चे ट्यूशन करने के लिए क्यों मजबूर हैं? ट्यूशन क्या हमारी संस्थागत औपचारिक शिक्षा व्यवस्था पर एक प्रश्न चिह्न या उसकी असफलता का प्रतीक नहीं? क्या हमारी औपचारिक शिक्षा संस्थान इतने कमजोर हैं कि विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाएं पास करने के लिए विद्यार्थियों को कोचिंग क्लासेज ज्वाइंन करने अपरिहार्य हो जाते हैं? या फिर स्कूली पाठ्यक्रम या प्रतियोगी परीक्षाओं के पाठ्यक्रम में इतना अंतर पैदा कर दिया गया है कि कोचिंग इस दौर की एक अनिवार्य आवश्यकता बन चुकी है, कहीं यह कोई जानी-बूझी चाल तो नहीं? इन तमाम प्रष्नों पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। अन्यथा शिक्षा बच्चों को रोबोट बनाने का साधन मात्र बनकर रह जाएगी, जो कॉरपोरेट जगत के हित में काम करेंगे।

लेखक ‘दीवार पत्रिका एक अभियान’ का संचालन करते हैं |

 

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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