भारत सरकार द्वारा बीते 8 नवम्बर को भोपाल गैस पीड़ितों के हितों और अधिकारों के लिए अपना जीवन समर्पित कर देने वाले स्वर्गीय अब्दुल जब्बार को मरणोपरांत पद्मश्री से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार राष्ट्रपति भवन में आयोजित समारोह में भारत के राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद द्वारा स्वर्गीय जब्बार भाई की पत्नी सायरा बानो को प्रदान किया गया। यह सम्मान सिर्फ जब्बार भाई नहीं बल्कि गैस पीड़ितों के उस 37 साल के संघर्ष का भी सम्मान है जो 1984 में दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक आपदा के बाद शरू हुई थी जिसने अपनी झीलों की तरह शांत शहर भोपाल की पहचान को हमेशा के लिये बदल दिया था। आज भोपाल की पहचान अपने झीलों से अधिक इस त्रासदी की वजह से हैं। यूनियन कार्बाइड नामक अमरीकी कम्पनी में जहरीली गैस रिसाव के चलते लगभग 25 हजार लोगों की मौत हो गई थी और करीब साढ़े पांच लाख से अधिक लोग गैस की चपेट में आने के कारण बीमार हो गये थे।
आज इस त्रासदी के 37 साल बीत चुके हैं और लाखों पीड़ित इंसाफ की राह तकते-तकते थक चुके हैं। यह त्रासदी इतनी भयावाह थी कि आज भी इसकी वजह बनी मिथाइल आइसो साइनाइट (मिक) नाम की जहरीली गैस का प्रभाव यहाँ की चौथी पीढ़ी पर देखा जा सकता है। करोना महामारी के दौरान भी इस त्रासदी का असर देखने को मिला है। इस सम्बन्ध में भोपाल ग्रुप फार इनफार्मेशन एण्ड एक्शन द्वारा किये गये विश्लेषण के अनुसार भोपाल में करोना से अभी तक जो आधिकारिक मौतें हुयी हैं उसमें 47 प्रतिशत गैस पीड़ित थे। गौरतलब है की गैस पीड़ितों के फेंफड़े पहले से ही कमजोर हैं और अधिकतर पीड़ितों को फेंफड़े से सम्बन्धित बीमारियाँ भी हैं ऐसे में उनपर कोविड का असर ज्यादा रहा है।
एक दूसरी त्रासदी यह भी है कि आज भोपाल गैस काण्ड के करीब चार दशक होने को आये हैं लेकिन इस दौरान गैस पीड़ितों के तमाम संघर्षों के बावजूद अभी तक किसी भी सरकार द्वारा इसके प्रभावों का व्यापक मूल्यांकन करने और पीड़ितों के आवश्यक उपचारात्मक उपाय करने की दिशा में ठोस पहल नहीं की गयी है। आज भी पीड़ितों के मुआवजे, उनके स्वास्थ्य देखभाल, जिम्मेदारों को सजा और प्रभावित क्षेत्र में जहरीले कचरे के निपटारन का सवाल बना ही हुआ है।
मुआवजे की स्थिति यह है कि इस गैस काण्ड में अपनी पति को खो चुकी महिलाओं को विधवा पेंशन के तहत प्रति माह मिलने वाले 1000 रुपये के लिए भी भटकना पड़ रहा है। इसी प्रकार से भोपाल गैस पीड़ितों के स्वास्थ्य और देखभाल को लेकर भी सरकारें उदासीन रही हैं। यहाँ तक कि अधिकतर गैस सम्बन्धी बीमारियों के इलाज के लिए कोई मानक प्रोटोकॉल भी नहीं बनाया गया है। दूसरी तरफ अधिकांश गैस पीड़ितों को “अस्थायी रूप से घायल के रूप में वर्गीकृत किया जा रहा है।
इसके पीछे सीधा खेल यह है कि उनको ज्यादा मुआवजे से वंचित किया जा सके। गैस काण्ड का जहरीला कचरा भी भी कारखाने के अंदर और जमीन के भीतर दफ़न है। गैस पीड़ित संगठनों का कहना है कि हर साल बारिश के मौसम में इस कचरे से आस-पास की बस्तियां प्रभावित हो रही हैं, अभी तक करीब 48 बस्तियों में इसका असर देखा जा चुका जिसके चलते इन बस्तियों में भूजल के उपयोग पर रोक भी लगा दी गयी है। जिम्मेदारों के सजा की बात करें तो अब इसकी उम्मीद बहुत कम ही बची है।
पद्मश्री अब्दुल जब्बर ने 35 सालों तक गैस पीड़ितों के इन्हीं सवालों को लेकर संघर्ष किया और अपने अन्तिम समय तक इस संघर्ष का चेहरा बने रहे। 1984 में हुए भोपाल गैस काण्ड के सभी पीड़ितों के इंसाफ के लिए शुरू हुई उनकी लड़ाई उनके अन्तिम दिनों तक निरन्तर जारी रही। अपने इसी संघर्ष के बूते ही वे लाखों गैस पीड़ितों को मुआवजा और यूनियन काबाईड के मालिकों के खिलाफ कोर्ट में मामला दर्ज कराने में कामयाब रहे थे। लेकिन 14 नवम्बर 2019 को उनका निधन हो गया था जिसका असर आज इस संघर्ष पर साफ़-तौर पर देखा जा सकता है।
भोपाल गैस काण्ड के 37वीं बरसी के मौके पर जब्बार भाई को याद करना गैस पीड़ितों के पूरे संघर्ष को याद करने के समान हैं। उन्हें मरणोपरांत पद्मश्री दिया जाना एक अच्छा कदम है लेकिन गैस पीड़ितों को सम्मान के साथ-साथ इंसाफ की भी जरूरत है जो अभी तक उन्हें मिल नहीं सका है, अगर आज जब्बार भाई हमारे बीच होते तो वो भी यही बात दोहराते और हम सबसे ज्यदा बुलन्द आवाज में दोहराते।

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