पुस्तक-समीक्षा

आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना स्त्री स्वतन्त्र नहीं

 

  • एकता वर्मा


सुजाता : एक बटा दो. पृष्ठ- 135, नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन, 2019. मूल्य- 125/-

आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना स्त्री स्वतन्त्र नहीं हो सकती – महादेवी वर्मा

स्त्री की स्वतन्त्रता की पहली सीढ़ी है कि वह आर्थिक रूप से स्वतन्त्र हो। सुजाता का उपन्यास ‘एक बटा दो’ इस पहली सीढ़ी के आगे की यात्रा और उसकी चुनौतियों का वर्णन प्रस्तुत करता है।

उपन्यास दो मध्यवर्गीय स्त्रियों मीना और निवेदिता की जीवन शैलियों के आस-पास बुना गया है। दोनों ही कामकाजी औरतें हैं इसलिए परिवार के ढाँचे में ’मिसफ़िट’ हैं। बाहर की दुनिया में पैर रखने पर उनको सम्भावनाओं का भरा पूरा आकाश तो मिला लेकिन पारिवारिक संरचना ने उनकी इस बदली हुई भूमिका के अनुरूप अपने आप को ढालने के बजाय सिर्फ़ अपने लिए सहूलियतों को ढूँढा और औरत के कंधों पर दोहरी ज़िम्मेदारी ढोने के लिए अकेला छोड़ दिया। इसीलिए उनमें एक तरफ़ घर के भीतर और बाहर की जिम्मदारियों में उलझकर अपने मन को भूल जाने की चिड़चिड़ाहट है तो दूसरी तरफ़ परिवार और पति से जिम्मदारियों के बोझ में साझेदारी न पाकर क्षोभ भी।

किसी व्यक्ति की चेतना, उसकी अस्मिता का निर्धारक तत्व उत्पादन में उस व्यक्ति की स्थिति से तय होता है। चूँकि स्त्री के हिस्से में घरेलू बेग़ार है तो उत्पादन के क्षेत्र से वह बेदख़ल समझी जाती रही है और इसीलिए उसकी विडम्बनाएँ सर्वहारावाद वर्ग की विडंबनायें है। यह उसके शोषण की प्रथम संरचना है। समाज की इस वर्ग संरचना के साथ वह शोषण की दूसरी संरचना पितृसत्ता से टकराती है जहाँ समाज की लैंगिक संरचना पूर्व निर्धारित भूमिकाओं के तले ही उसे जीने का विकल्प देती हैं। समाज के भौतिकवादी विश्लेषण के भारतीय संस्करण में स्त्री एक तीसरी संरचना से टकराती है जाति की संरचना! पुस्तक की शुरुआत में ही अम्बेडकर नगर के विद्यालय की छात्राओं के मनोविज्ञान का चित्रण इसी बिन्दु की ओर इशारा करता है। सुजाता का यह उपन्यास इन विभिन्न सामाजिक संरचनाओं की जटिलता में जूझती स्त्री के लिए सम्भावनाओं और चुनौतियों के चित्र खींचता है।Image result for सुजाता : एक बटा दो.

उपन्यास का शीर्षक एक बटा दो स्त्री जीवन के अधूरेपन को दर्शाता है और कहता है कि इस अधूरेपन का एक निश्चित गणितीय रूप है जिसको समझा जा सकता है। सदियों से स्त्री के व्यक्तित्व की, उसकी इच्छाओं की जो रहस्यवादी व्याख्याएँ हुई हैं जैसे फ्रायड की वह उक्ति कि स्त्रियों की आत्मा पर अपने तीस वर्षों के शोध के बावजूद जिसका उत्तर मैं नहीं दे पाया हूँ, वह है-‘स्त्री क्या चाहती है।’ उपन्यास की लेखिका इन रहस्यवादी एवं दार्शनिक जटिल व्याख्याओं को नकारकर स्त्री मन को सहज-सीधे मानवीय मन के रूप में देखने की बात करती है। यहाँ लेखिका यह स्थापित करती है कि स्त्री की जटिलताएँ थोड़ा सा खोजने पर गणितीय सत्य की तरह स्वाभाविक रूप से उसके परिवेश, उसकी जीवनशैली में ही मिल जाएँगी। उपन्यास में ही एक जगह लेखिका अश्वेत अमरीकी लेखिका नील हर्स्टन की पंक्तियों को उद्धृत करती हैं कि ‘अगर अपने दर्द के बारे में मौन रहोगे तो वे तुम्हें मार डालेंगे और कहेंगे तुम्हें आनंद आया।’ सुजाता का यह उपन्यास अपने हिस्से के दर्द को बयान करने के क्रम में लिखा गया है जिसका शीर्षक निस्संदेह बहुत सारगर्भित एवं रचनात्मक है।Image result for सुजाता : एक बटा दो.

स्त्री लेखन में विशेषकर उपन्यास विधा में स्त्री का सामाजिक संस्थाओं मसलन परिवार, विवाह से मुठभेड़ अधिक ज़ुर्रत से होती है। और प्रेम चूँकि इन संस्थाओं को चुनौती देता है इसलिए स्त्रियाँ अधिकतर इन संस्थाओं को तोड़ प्रेम का चुनाव करती है और यह उनको कहीं हद तक स्वतन्त्रता भी देता है। इस उपन्यास में सुजाता का दृष्टिकोण कुछ अलग है। वह प्रेम के चुनाव की सीमाएँ पहचानती हैं। कुछ सहूलियतों के अलावा प्रेम में भी स्त्री एक पितृसत्तात्मक संरचना से निकल कर दूसरी में स्थान्तरित भर होती है। इसलिए अपने स्त्री पात्रों की मुक्ति को वे किसी पुरुष की सपेक्षता भर में ही नहीं देखती हैं। स्त्री की मुक्ति अंततः एक सम्पूर्ण मनुष्य की मुक्ति में है न कि सपेक्षता में। दोनों ही केंद्रीय पात्र वैयक्तिक स्वतन्त्रता को तरजीह देती हैं और उपन्यास ख़त्म होते होते अपने लिए निर्धारित पुरानी जीवन शैली पर लौटने के बजाय उस शैली की तलाश में निकलती हैं जहाँ उनको मन भर की गुंजाइश मिले, जहाँ उनको ये न कहना पड़े -“अपने ही घर पर तड़पकर कहती थी-ओह माँ,मुझे घर जाना है…और वह घर कहीं नहीं होता था।” यह उपन्यास मन की भाषा के ककहरे को दुहराने का उपन्यास है।Image result for स्त्रियाँ जब नौकरी पेशे

स्त्रियाँ जब नौकरी पेशे की दुनिया से जुड़ती हैं तब उनकी प्राथमिकताएँ, आदर्श और भूमिकाएँ आदि बदल जाते हैं। स्त्री का इस नवीन जीवन शैली और मूल्यों के प्रति अनुकूलन सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताओं को चुनौती के रूप में देखता है। सुजाता जानती हैं कि स्त्री पारम्परिक बनाम आधुनिक की इस मुठभेड़ में सबसे पहले जिस स्तर पर टकराती है वह है उसका मातृत्व। निवेदिता के अबॉर्शन की घटना और नर्स का ‘अबॉर्शन इस अगेन्स्ट नेचर! अगेंस्ट गॉड!” कहना पश्चिम में चल रही गर्भपात की बहसों को इस उपन्यास में शामिल कर लेता हैं। जहाँ ‘प्रो-च्वाइस’ के पक्ष पर निवेदिता है और ‘प्रो-लाइफ़’ पर बचे हुए दूसरे सब। समाज में स्त्री की भूमिका बदलने पर उसके मूल्यों एवं आदर्शों को भी निर्माण की नवीन प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है, पुराने मूल्य ध्वस्त होते हैं जिसका ख़ामियाज़ा स्त्री को ही उठाना पड़ता है। ‘मलाला यूसुफ़जाई मेरी सास की दुश्मन है’ में निवेदिता की सास के द्वारा लड़कियों के स्कूल पर बम गिरा देने को सभी समस्याओं के अंत के रूप में देखा जाना और कामकाजी औरत के बारे में कहना कि ’नौकरी वाली तो मुझे फूटी आँख नहीं जँचती।घर बिखर रहे,ये बन सँवर कर चल देती हैं, बालक रोवे, भूखा टीवी देखता रहे, इनके सेमिनार ज़रूरी हैं।’ इसी सैद्धांतिकी की पुष्टि करते हैं। सुजाता के लेखन की ताज़गी है कि वे समस्याओं को रेखांकित करके छोड़ने की बजाय उसके आगे जाकर विकल्प तलाशने की कोशिश करती हैं। पुराने आदर्शों एवं मूल्यों पर मिसफ़िट आधुनिक स्त्री के लिए वे नया मूल्यबोध, नए आदर्श तलाश कर लाती हैं। उपन्यास में रिटायरमेंट पर एक लड़की द्वारा अध्यापक माँ को लिखे गए ख़त में सुजाता यही बिन्दु बहुत बारीकी से उठाती हैं। ख़त में लिखा है-

“जब हम छोटे थे और आपको नौकरी पर जाना होता था तो हम बहुत उदास होते थे। आज जब मैं ख़ुद नौकरी हूँ और मेरी एक बच्ची है मुझे आपके नौकरी करने की अहमियत समझ आती है। अपने काम को तवज्जो देते हुए अपने बच्चों को भी काम की वैल्यू समझा सकना कितना ज़रूरी है। आपने सिर्फ़ नौकरी नहीं की बल्कि मेरे लिए सीढ़ी तैयार की है।”
यह अंश उपन्यास के ‘की होल’ की तरह देखा जा सकता जहाँ से सारा उपन्यास खुलता है।Image result for सुजाता पितृसत्तात्मक

इन सब केंद्रीय मुद्दों के अलावा कई गौण प्रसंगों में सुजाता पितृसत्तात्मक भूमिका में हैं। विशेषकर उनके सौंदर्य-विवरण के चित्र मध्यकालीन सौंदर्य बोध से युक्त हैं। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री देह है, वही उसका प्रथम परिचय है अन्य बाद में। सुजाता उपन्यास के स्त्री पात्रों का प्राथमिक परिचय बहुत कुछ इसी ज़मीन से गढ़ती हुई प्रतीत होती हैं। इस परिचय में लावण्य और रूप की सत्ता स्थापित होती है फलतः असुंदर का भाव भी स्वतः स्थापित हो जाता है। ”जिसको भीतर से ख़ुशी हो, सजना उसी के चेहरे पर खिलता है। तभी तो दुल्हन कैसी भी हो मेकअप करने बाद वही खिलती है।” यहाँ ‘दुल्हन कैसी भी हो’ में उसी असुंदर सत्ता खड़े कर देने की बू आती है।
मध्यकालीन सौंदर्यबोध स्त्री को यौवन भर में देखने का अभिलाषी है। उनके देह आधारित सौंदर्य के खाँचों से बाहर की स्त्रियाँ असुंदर हैं। स्वाभाविक है कि स्त्री में वृद्ध होने का भय यहीं से उपजता है। यही भय उपन्यास लिखते हुए सुजाता की लेखनी में भी दिखता है –
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चरित्र के निर्माण के लिए रूप, नाक-नक़्श आदि का बयान दिया जाना प्रौढ़ लेखन की प्रवृत्ति नहीं है। दृष्टा के रूप में इस दृष्टिकोण का स्वीकार्य मध्यकालीन प्रवृत्ति का स्वीकार्य है तो सर्जक के रूप में लेखन के कुछ अनगढ़ रूप का प्रमाण। विचार, आदत, द्वन्द, मानसिक स्थितियाँ आदि का वर्णन करके चरित्र का निर्माण अधिक बारीकी से होता है और वही साहित्य के अधिक अनुकूल है किन्तु सुजाता की लेखनी इस दिशा में उतनी प्रखर नहीं जान पड़ती। इस क्रम में कुछ मुख्य पात्रों के अलावा अन्य पात्र पाठक के मन में बहुत स्थूल छवि का निर्माण करते हैं फलतः अधिक देर अंकित भी नहीं रह पाते।
स्कूल की लड़कियों की माहवारी पर बात करते हुए सुजाता वाक्य आधा छोड़ कर डॉट डॉट से काम चलाती हैं। प्रगतिशील स्त्री होने के नाते उनका इन मुद्दों पर खुलकर न बोलना बहुत अखड़ता है। मीना के शब्द कि’ एक बड़ा अपराधबोध था कि अपने बच्चों को सारा दिन के लिए वहाँ छोड़ती हूँ। पढ़ाई पर ध्यान नहीं देतीं। लड़का ज़िद्दी हो गया है। लड़कियाँ काम नहीं सीख रही।’ अपनी भूमिकाओं में लिंगीय विभेद को दर्शाते हैं। अन्यत्र ‘माँ बहन एक कर देना’ जैसे मुहावरा प्रयोग करना पितृसत्ता के भाषायी अतिक्रमण को दर्शाता है। एक स्त्री होने के नाते सुजाता इसका कोई बेहतर विकल्प प्रस्तुत न करके उसे उसी रूप में स्वीकार कर भाषा की पितृसत्तात्मक परम्परा का ही वहन करती हैं।

लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में शोद्यार्थी हैं|

सम्पर्क- ektadrc@gmail.com

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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