पर्यावरण

भारतीय संस्कृति में पर्यावरण की चिंता

 

पृथ्वी और उसके पर्यावरण की  चिन्ता हमारी भारतीय  संस्कृति की  परम्परागत सोच रही है। प्राचीन भारत में पर्यावरण को बिगाड़ने वाले बड़े शहर और धुआँ उगलते कल-कारखाने तो नहीं थे और न ही ग्लोबल वार्मिंग की दूर तक कोई सम्भावना थी, लेकिन बढ़ती आबादी के साथ कृषि योग्य जमीन तैयार करने के लिए जंगल और वृक्ष तो तब कटने ही लगे थे। हमारे पूर्वनों को लगातार कटते वनों और वृक्षों के दूरगामी दुष्प्रभावों का आभास था। वृक्षों की रक्षा के लिए उन्होंने प्रकृति को धर्म से जोड़ने के प्रयास शुरू किए। देवताओं में त्रिदेव के समानान्तर उन्होंने पर्यावरण पर सबसे सकारात्मक प्रभाव डालने वाले तीन वृक्षों की त्रिमूर्ति तैयार की और उन्हें काटना वर्जित कर दिया। ये तीन वृक्ष हैं – पीपल, वट अर्थात बरगद और नीम। पीपल को ब्रह्म देव का निवास, बरगद को शिव का और नीम को देवी दुर्गा का आवास बताकर उन्हें पूजनीय बनाया। लोगों के दिमाग में यह बात गहरे तक उतारने के लिए उन्होंने इन वृक्षों के गिर्द कई मिथकों और त्योहारों की रचना की।

उपरोक्त तीनों वृक्षों के अलावा औषधीय प्रभाव के कारण आँवले और शमी के वृक्ष को तथा कीटाणुनाशक गुणों के लिए तुलसी के पौधे को पवित्र घोषित किया गया। जीवनदायिनी नदियों को देवी और माँ तथा जलाशयों को देवताओं की क्रीड़ा-भूमि बताकर उनकी निर्मलता की रक्षा के प्रयास हुए। प्राचीन भारत के तमाम मन्दिर  नदियों और जलाशयों के किनारे बनाए गए और उन मन्दिरों  के परिसर में पवित्र पेड़ों की उपस्थिति को अनिवार्य बताया गया। हमारी प्रकृति में मौजूद जीव-जन्तुओं की पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

उन्हें बचाने के लिए सिंह, हाथी, साँप, गाय, बैलों, घोड़ों, मछलियों सहित पशुओं की कई प्रजातियों को देवताओं का अवतार, वाहन या प्रिय बताकर उनके साथ हमारे सौहार्दपूर्ण रिश्ते बनाने की चेष्टाएँ हुईं। पक्षी तो हमेशा से ही पर्यावरण के बैरोमीटर रहे हैं। जहाँ प्रकृति का सौंदर्य होता है, पक्षियों के गीत वहीं गूँजते हैं। पक्षी जिस भी जगह से दूरी बना लेते हैं, उसे अपवित्र और रहने लायक नहीं माना जाता। बहुत सारी आदिवासी परम्पराओं में मनुष्य और पक्षियों का सनातन रिश्ता आज भी कायम है। उन्हें पूर्वजों की आत्मा कहा गया जो बुरी आत्माओं से अपनी संतानों की रक्षा भी करती हैं और उन्हें आने वाले अनिष्ट की चेतावनी भी देती हैं। आदिवासी संस्कृतियों में जब तक घर के छप्पर पर पक्षियों का कलरव नहीं गूँजे, घर में किसी धार्मिक अनुष्ठान का आरम्भ नहीं होता।

हमारी संस्कृति में कई-कई देवताओं की कल्पना प्रकृति और पर्यावरण के रूपक की तरह की गई है। इसके सबसे बडे उदाहरण देवताओं में प्रथम पूज्य गणेश हैं। गणेश का मस्तक हाथी का है। चूहे उनके वाहन हैं। बैल नंदी उनका मित्र और अभिभावक। मोर और साँप उनके परिवार के सदस्य। पर्वत उनका आवास है और वन क्रीड़ा-स्थल। उन्हें गढ़ने में नदी गंगा की बड़ी भूमिका रही थी। गणेश का हरा रंग प्रकृति का और लाल रंग शक्ति का प्रतीक है। महँगी पूजन सामग्रियों से नहीं, इक्कीस पेड़-पौधों की पत्तियों से उनकी पूजा होती है। प्रकृति में बहुतायत से मौजूद हरी-भरी दूब उन्हें सबसे प्रिय है। जबतक इक्कीस दूबों की मौली समर्पित न की जाय, उनकी पूजा अधूरी मानी जाती है। मान्यता है कि आम, पीपल और नीम के पत्तों वाली गणेश की आकृति घर के प्रवेश-द्वार पर लगाने से घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। प्रकृति के कई उपादानों के साथ कैलाश पर्वत पर रहने वाले भगवान शिव, क्षीरसागर में शेषनाग पर आवास करने वाले भगवान विष्णु और मेरू पर्वत पर कमल के फूल पर विराजमान ब्रह्मा स्वयं प्रकृति के रूपक हैं।

हमारी संस्कृति में पृथ्वी और उसके पर्यावरण के प्रति कैसी श्रद्धा हुआ करती थी, इसे  वेदों की ऋचाओं से बखूबी समझा जा सकता है। ऋग्वेद में देवताओं को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है- जल, वायु और भूमि के देवता। देवताओं का यह वर्गीकरण हमारे पूर्वजों की पर्यावरणीय सोच के अनुरूप है। कुछ अन्य ऋचाओं में पृथ्वी की रक्षा के लिए वृक्ष और जल को महत्वपूर्ण मानते हुए कहा गया है- ‘वृक्षाद् वर्षति पर्जन्य: पर्जन्यादन्न सम्भवः।’ अर्थात् वृक्ष जल है, जल अन्न है, अन्न जीवन है। छान्दोग्य उपनिषद् में उद्दालक ऋषि अपने पुत्र श्वेतकेतु से कहते हैं  कि वृक्ष जीवात्मा से ओतप्रोत होते हैं और वे हम मनुष्यों की तरह ही सुख-दुख की अनुभूति करते हैं।

 

एक वृक्ष की मनुष्य के दस पुत्रों से तुलना करते हुए कहा गया है – दशकूप समावापी: ‘दशवापी समोहृद: / दशहृद सम:पुत्रो दशपुत्रः समोद्रुम:।’ वेदों का संदेश हैं कि मनुष्य शुद्ध वायु में साँस ले, शुद्ध जलपान करे, शुद्ध अन्न-फल का भोजन करे, शुद्ध मिट्टी में खेले-कूदे और शुद्ध भूमि में कृषि करे तो उसकी आयु सौ बरसों की हो सकती है। यहाँ पृथ्वी  के प्रति कही गई अथर्ववेद की एक ऋचा द्रष्टव्य है : यह हमारी पृथ्वी ही स्वर्ग है/यही अंतरिक्ष है/यही देव, यही पंचजन/यही हमें पैदा करने वाली माँ/यही उत्पादक पिता/यही उत्पन्न हुई संतान है/जो कुछ उत्पन्न हुआ है/जो कुछ उत्पन्न हो रहा है/जो उत्पन्न कर रहा है/वह सब अदिति पृथ्वी ही है/इस पृथ्वी का हम नमन करते हैं/और आवाहन करते हैं कि/वह हमें सदा शरण में रखें/हमारी रक्षा करें/और हमें सुख प्रदान करें! (अथर्ववेद 7/6)

हमारे पूर्वजों ने पर्यावरण का महत्व समझा और लोगों को उसके प्रति जागरूक करने के उद्देश्य से पेड़-पौधों, नदियों, जलाशयों, वायु और जीव- जन्तुओं के गिर्द असंख्य मिथक और प्रतीक गढ़े। कालान्तर में वे तमाम  मिथक और प्रतीक हमारे कर्मकाण्डीयआदर्श हो गए और उनके पीछे छुपे हुए उद्देश्य विस्मृति के अन्धकार में खोते चले गए। परम्पराओं की हमारी अधकचरी समझ के कारण हमारी पृथ्वी आज अपने अस्तित्व के सबसे बड़े संकट से जूझ रही है। अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए हम जिस तरह पृथ्वी का दोहन, प्रकृति के साथ अनाचार और  नदियों के साथ दुर्व्यवहार कर रहे हैं उससे पृथ्वी पर मनुष्य ही नहीं, हर तरह के जीवन के लिए खतरा उपस्थित हो गया है।

लगातार जंगल कटने और बेतहाशा औद्योगिकीकरण के कारण धरती का तापमान बढ़ रहा है। नदियाँ दूषित हो रही है। हवा में जहर घुल रहा है। दुनिया भर में ग्लेशियर के तेजी से पिघलने की वजह से समुद्रों की सतह भयानक गति से ऊपर उठ रही है। यह भविष्य के एक और जलप्रलय की चेतावनी है। आज हमारी प्रकृति और पर्यावरण विकास की हमारी अन्धी दौड़ की कीमत चुका रहे हैं। कल इसकी कीमत हम और हमारी आने वाली  पीढ़ीयाँ चुकाएँगी। अपनी कुछ उज्ज्वल पर्यावरणीय परम्पराओं और बुद्धि-विवेक से भी कटे हुए हमलोग जिस रफ्तार से अपनी प्रकृति को उजाड़ रहे हैं उससे तो लगता है कि इस पृथ्वी पर अपनी सन्तानों के लिए हम कुछ भी छोड़कर नहीं जाना चाहते

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ध्रुव गुप्त

लेखक भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी तथा कवि एवं कथाकार हैं। सम्पर्क +919934990254, dhruva.n.gupta@gmail.com
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