सामयिक

अफवाहों एवं धारणाओं के बीच टीकाकरण अभियान

 

प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा 16 जनवरी को समूचे भारत में कोविड-19 महामारी के ख़िलाफ़ टीकाकरण अभियान की शुरुआत कर दी गयी है। इसके साथ ही सम्पूर्ण देश में टीकाकरण के लक्ष्य को पूरा किया जायेगा ताकि हर एक व्यक्ति को इसका लाभ मिल सके। पिछले एक साल से कोरोना के ख़िलाफ़ लड़ाई में यह एक बेहद ही महत्वपूर्ण कड़ी है। साथ ही विश्व के अन्य देशों में भी इसकी शुरुआत हो चुकी है। यक़ीनन यह एक हर्ष का विषय है और सबों का सहयोग आपेक्षित है। परन्तु कुछ समस्याएँ हैं जिन पर चर्चा करना अनिवार्य है।यहाँ मुख्यतः हम सामुदायिक धारणाओं (कम्युनिटी परसेप्शन) की बात करेंगे।

चाहे ग्रामीण क्षेत्र हो याशहरी, हमारीजन स्वास्थ्य प्रणाली (पब्लिक हेल्थ सिस्टम) के प्रभावी ढंग से कार्य नहीं कर पाने के पीछे इसकी गुणवत्ता के साथ-साथ लोगों की धारणाओं का महत्वपूर्ण योगदान है। हालाँकि धारणाओं के विकसित होने में दोषपूर्ण व्यवस्था का भी बड़ा योगदान है। सीधे शब्दों में कहें तो जनता इस व्यवस्था पर कितना भरोसा करती है यह मायने रखता है।

मैं यहाँ झारखण्ड राज्य की बात करूँगा। स्वास्थ्य मानकों पर झारखण्ड की स्थिति अन्य राज्यों की तुलना में दयनीय ही है। बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी है। डॉक्टर-नर्स की कमी वैसे तो समूचे देश में है पर हालात हमारे यहाँ कुछ ज्यादा ही ख़राब है। WHO के अनुसार राज्य में शिशु मृत्युदर, पोषण तथा स्वच्छता की दिशा में सुधार तो हो रहा है परन्तु इसकी गति सुस्त है। बहरहाल, बेहतरी के तमाम प्रयास किये जा रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि सरकार द्वारा दी जाने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं पर जनता कितना विश्वास करती है? सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में आप जायेंगे तो बेहद रोचक दृश्य मिलेंगे। भारत में लगने लगी कोरोना की वैक्सीन, पढ़ें- टीकाकरण के पहले दिन की 10 बड़ी बातें - India vaccinates 1.91 lakh against Corona, 10 points of first day of vaccination drive - AajTak

यहाँ जन स्वास्थ्य प्रणाली में सबसे निचले स्तर पर सहिया दीदी, जल सहिया, आंगनबाड़ी सेविका आदि बहुत ही साधारण अनुदान पर काम करतीं है, जिन्हें हम हेल्थ सेक्टर के फ्रंट लाइन वर्कर्स कहते हैं। जैसा कि स्पष्ट है, फ्रंट लाइन वर्कर्स होने के कारण ग्रामीण जनता से सीधा सम्पर्क इन्हीं का रहता है क्योंकि हर गाँव में इनकी उपस्थिति होती है या यों कहें कि ये अपने गावों में ही काम करती हैं। यहाँ स्वास्थ्य विभाग की प्रतिनिधि यही सहिया दीदी आदि हैं।

गांवों में तमाम जन स्वास्थ्य सुविधाएँ इनके माध्यम से ही मिलती हैं। जैसे कि टीकाकरण, समय-समय पर जरूरी दवाओं का वितरण आदि। साथ ही लोगों को स्वास्थ्य सुविधाओं, स्वच्छता, परिवार नियोजन तथा सरकारी अस्पतालों में प्रसव के लिए प्रोत्साहित करने का जिम्मा भी इन्हीं के हाथों है। इन हेल्थ वर्कर्स की मानेंतो यह काम काफी चुनौतियों से भरा है। चुनौती इस प्रकार से कि इन गतिविधियों की सामाजिक तथा सामुदायिक जबाबदेही इन सेविकाओं पर ही आ जाती है। और यह जबाबदेही आप लें या न लें परन्तु समुदाय आप पर थोप ही देता है। वह कैसे?

वह इस प्रकार कि इन दवाओं अथवा टीकों से अगर कुछ नुकसान या साइड इफ़ेक्ट हुआ तो लोग सीधे इन हेल्थ वर्कर्स को पकड़ेंगे। ठीक उसी प्रकार जैसे अगर कोई फाइनेंस कंपनी लोगों के पैसे लेकर रफूचक्कर हो जाती है तो लोग उसके एजेंटों को धर लेते हैं। यही नहीं, ग्रामीण परिवेश में हेल्थ वर्कर्स की सामाजिक छवि पर भी काफी प्रभाव पड़ता है। जैसे- लोग यह नहीं कहते की सहिया दीदी ने दवाई दी थी, बल्कि यह कहेंगे की फलां की बहू ने दिया। सीधे शब्दों में कहें तो यहाँ काम तो सरकारी हो रहा परन्तु आक्षेप व्यक्तिगत रूप से हेल्थ वर्कर्स पर पड़ रहा है। CoWIN प्लेटफार्म कोरोना वायरस टीकाकरण अभियान का आधार बनेगा- केंद्र सरकार - India TV Hindi News

इन हेल्थ वर्कर्स से चर्चा के दौरान अनेक रोचक बातें पता चलती है। काम के दौरान जिन सवालों से वो रूबरू होतीं हैं वो भी काफी रोचक हैं, जैसे:

  • कुछ हो गया तो कौन जिम्मेवारी लेगा। आप लीजियेगा? आप ही न लीजियेगा क्योंकि दवाई आप दे रहे हैं।
  • सरकारी चीज का क्या भरोसा, कुछ हो गया तो।

परिवार नियोजन तथा सेक्सुअल हेल्थ की जागरूकता के सन्दर्भ में चुनौतियाँ तब बढ़ जाती हैं जब इन हेल्थ वर्कर्स को शर्म-लाज के चश्मे से देखा जाता है। गाँव में इनकी अलग ही छवि बन जाती है।ग्रामीण परिवेश में इन मुद्दों पर खुल कर बात करना आज भी कठिन है।

इन धारणाओं के पीछे अफवाहों का बड़ा हाथ होता है। और जब अफवाह किसी प्रभावशाली व्यक्ति जैसे कि धार्मिक और सामुदायिक मुखिया के तरफ से निकले तब जनता की धारणा प्रबल रूप ले लेती है। सहिया दीदी बतातीं हैं कि यदि इनके तरफसे टीका या दवाई सम्बंधित कोई बात निकलती है तो फिर क्या मजाल कि कोई व्यक्ति सहयोग कर दे। इनकी बातों को पूरा समुदाय सिर आखों पर लिए घूमता है। यही नहीं, स्थानीय स्तर पर टीकाकरण/दवाई वितरण का पुरजोर विरोध भी होता है। सीधे शब्दों में कहें तो जनता को इन सामाजिक तथा असामाजिक तत्वों द्वारा भड़का दिया जाता है जिसका सीधा असर जन स्वास्थ्य प्रणाली पर पड़ता है।

जनमानस में अफवाहें काफी प्रबल रूप से कार्य करतीं हैं। इन दवाओं को लेकर तरह तरह की बातें चलती हैं। हेल्थ वर्कर्स बताते हैं कि अल्पसंख्यक समुदायों में यह अफवाह फैला दी जाती है कि दवाई लेने से बच्चे पैदा नहीं होंगे या एक ही बच्चा पैदा होगा। या फिर इस दवाई से धर्म भ्रष्ट हो जायेगा क्योंकि इसमें फलां जानवर का अंश है। या किसी साजिश के तहत ये दवाई बाँटी जा रही है। इन अफवाहों के ख़िलाफ़ जनता के बीच विश्वास कायम करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है।  Corona Vaccination Today, India Becomes Number One In World After Highest Vaccintion In One Day On 16th January - कोरोना टीकाकरण: भारत पूरी दुनिया में सबसे आगे, दो दिन में सवा दो

नतीजन वितरण को दी जाने वाली अनेक पोषक दवाइयाँ, कंडोम, गर्भनिरोधक गोलियां आदि रखी रह जाती हैं। ऐसी स्थिति में हेल्थ वर्कर्स विभाग तथा जनता के बीच फंस जाते हैं- जनता सहयोग नहीं करती और विभाग लगातार दबाब दिए रहता है। फलस्वरूप दवाइयाँ बिगड़ जाती है तथा विभाग को गलत रिपोर्ट भेज दी जाती है। हेल्थ वर्कर्स की मानें तो कृमि, फाईलेरिया, गर्भनिरोधक गोलियाँ आदि नियमित रूप से वितरण की जाने वाली दवाईयाँ नष्ट कर देनी पड़ती है क्योंकि लोग लेना नहीं चाहते।

हालाँकि कतिपय हेल्थ वर्कर्स की उदासीनता भी इन कार्यक्रमों को प्रभावी रूप से चलने नहीं देती। अनेको ऐसे उदाहरण सामने आए हैं जहाँ हेल्थ वर्कर्स अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं करते। टीवी रेडियो पर विज्ञापन तथा सड़कों पर होर्डिंग्स जनमानस के बीच विश्वास कायम करने सफल नहीं हो पा रहे। इस क्षेत्र में सक्रिय गैर-सरकारी संगठन जनता तथा जन स्वास्थ्य प्रणाली के बीच सुदृढ़ संबंध कायम करने में असफल साबित हो रहे हैं।

ऐसी परिस्थितियों के मद्देनजर कोविड-19 का टीकाकरण आम जनमानस में चुनौती पैदा करेगा जहाँ पहले से ही तमाम तरह के अफ़वाह फैल चुके हैं। टीकाकरण के पूर्व कोई खास सामुदायिक लामबन्दी और जागरूकता भी नहीं की गई है। दिन प्रतिदिन टीका के परिणामों की ख़बरें इन्टरनेट पर दौड़ रहे हैं। इसके अतिरिक्त कम प्रभावित राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में अनेकों के बीच अभी भी यह धारणा है कि वो कोरोना संक्रमण से अजेय हैं अतः उन्हें टीका की कोई जरुरत नहीं है।गावों में तो कोरोना है ही नहीं, यह तो शहरों की चीज है। जाहिर है इन सबों को सुलझाना एक चुनौती भरा कार्य होगा। टीकाकरण अभियान को सुचारू रूप से चलाने के लिए बेहतर तरीके से जागरूकता के साथ-साथ सामुदायिक तथा सामाजिक लामबन्दी की जरुरत पड़ेगी।

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सुबोध कुमार

लेखक समाज विज्ञान के शोधार्थी हैं। सम्पर्क +919408878710, subodh.cug@gmail.com
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