सिनेमा

वांटेड बनाना ज़रूरी

 

अनवांटेड फिल्म भारत के उन नागरिकों को  समर्पित है जो  ज़िन्दा तो है पर सरकारी दस्तावेजों में जिन्हें मृत घोषित किया जा चुका है और अब वे अपने जीवित होने की पुष्टि का संघर्ष कर  रहे हैं। मेरे  लिए अनवांटेड फिल्म उन कलाकारों को भी प्रोत्साहित करने वाली है जिनके पास प्रतिभा है पर कोई गाडफादर नहीं। एक मलयालम फिल्म आई थी ‘सिनेमाबंदी’ थीम थी कि ‘दिल से हर कोई फिल्मकार है’  और कैमरा मानों वो दृष्टि है जिससे आप ये दुनिया देखते हैं इसलिए “सिनेमा बंदी” फिल्म उस मिथक को तोड़ती है कि फ़िल्म निर्माण सिर्फ ख़ास वर्ग के लोग ही कर  सकते हैं। फ़िल्म का अंत परम्परागत फ़िल्मों की भाँति सुखद था, फिल्म थिएटर में रिलीज़ होती है और हिट होती है। (यहाँ क्लिक कर पूरी समीक्षा पढ़ सकते हैं)

“अनवांटेड” फ़िल्म के साथ ऐसा न हुआ जो इस बात की पुष्टि करता है कि सिनेमा ख़ासकर बॉलीवुड पर आज भी ख़ास वर्ग का अधिपत्य है।आप थोड़ा ही गूगल सर्च करेंगे तो आपको वह फिल्म और उससे जुड़े बड़े नामों की डिटेल्स भी मिल जाएगी जो इसी कथानक पर बनी है जिसके कारण फिल्म को रिलीज़ नहीं करने दिया गया। अन्यथा फिल्म निर्माता और निर्देशक  को यह न कहना पड़ता कि क्योंकि हमारा कोई फ़िल्मी बैकग्राउंड नहीं है इसलिए हमें थिएटर पर अपनी फिल्म रिलीज़ करने की कोई सुविधा नहीं मिली।

झारखण्ड से फिल्म के सम्पादक और निर्देशक दिलीप देव  जो 22 वर्षों से फिल्मों में काम कर रहें हैं लेकिन आज भी उनके साथ ‘बाहरी’ जैसा व्यवहार होता है, यही कारण है कि उन्हें अपनी फिल्म यूट्यूब पर रिलीज़ करनी पड़ी । निर्माता मधुमिता राय  के अनुसार तमाम बाधाओं के बाद फिल्म बना तो ली गयी लेकिन ‘जाने कौन सी महान शक्तियां हमारे खिलाफ थी कि ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म पर भी न रिलीज़ कर पाए पर “मैं हारी नहीं हूँ मेरे हौंसले मुझे आगे बढ़ने के लिए बोल रहें हैं , मुझे कुछ नया रास्ता खोजने के लिए बोल रहें हैं” और यही सॉलिड कारण है कि मैं इस “अनवांटेड” फिल्म को ‘मोस्टवांटेड’ फिल्म बनाने की बात कर रहीं हूँ जिसे सभी को देखना चाहिए। कारण सिर्फ इतना ही नहीं है बल्क़ि फिल्म का अछूता विषय भी मुझे फिल्म के विषय में लिखने को विवश कर रहा है।

फिल्म की कहानी सिर्फ ‘कहानी’ नहीं बल्कि सत्य घटनाओं पर आधारित है, एक ऐसा विषय जिसके बारे में बहुत कम लोग जानतें हैं अथवा जानते भी हैं तो बहुत सतही तौर पर अथवा उस पर बात नहीं ही होती, क्या आप जानतें हैं कि भारत में ऐसे लोग भी हैं जिन्हें जीते जी सरकारी कागजों पर मृत घोषित किया जा चुका है उनका मृत्यु प्रमाण पत्र  भी बन चुका है और वे अपने ज़िन्दा होने के लिए ‘कि हम जिंदा हैं मुर्दा नहीं’ का संघर्ष कर रहें हैं’। जायदाद हड़पने से लेकर परस्पर रंजिश और पारिवारिक दुश्मनी के चलते लोग इस प्रकार के कुचक्र रचतें हैं कि अच्छा भला हांड-माँस का व्यक्ति आँखों से ओझल  मान लिया जाता है। पेंशन मामलों में भी इस तरह  की  धाँधली खूब  होती है।

कोरोना काल में तो इस तरह के केस  बहुतायत में सामने आ रहे हैं। ऐसे अनोखे विषय पर  फ़िल्म बनाने का जोखिम उठाना आसान न  रहा होगा। फिल्म के आरंभ में जब खलनायक कहता है “हँसों मत ये कोई मज़ाक का विषय नहीं है, बहुत ही सीरियस मामला है” दर्शकों को फिल्म के विषय का महत्त्व समझ आ जाता है। मनोरंजन उद्योग यानी फिल्मों में इस तरह के विषय पर फिल्म बनाने के लिए पूरी टीम बधाई की  पात्र  हैं। फ़िल्में,जहाँ जितना पैसा लगाया जाता है उसकी वापसी की उम्मीद थिएटर पर टिकी होती है, जो दर्शकों को खींच कर लाने से ही पूरी हो सकती है। यद्यपि हमारा दर्शक आज बदल रहा है, ओटीटी प्लेटफार्म ने भी दर्शकों की रुचि में संवर्धन किया है जिसका असर बॉलीवुड फिल्मों पर देख रहें हैं। आज का दर्शक ‘जागो ग्राहक जागो’ के तहत जागरूक हो रहा है, उसकी रुचि और समझ भी बदल रही है, अब वे अविश्वसनीय घटनाओं  और अतिरंजनापूर्ण कथानकों को छोड़ तुरंत आगे बढ़ जाता है । यह फ़िल्म ऐसे ही वर्ग और सोच को प्रदर्शित करती है ।

अनवांटेड फिल्म शुरू होती है ‘भगवान बुद्ध, महात्मा गांधी और बॉलीवुड के देश से’  के वाक्य से साथ। जिसमें बॉलीवुड शब्द साइज में सबसे ज्यादा बोल्ड लेटर्स में है जो बता रहा है कि भारतीय समाज पर  सर्वाधिक प्रभाव बॉलीवुड का है।

पंचों के बीच खड़ा मंगल नामक व्यक्ति कह रह है कि ‘हम जिंदा है!’ “इतिहास में पहली बार हुआ है कि एक मुर्दा आदमी कह रहा है कि हम जिंदा हैं। मामला बहुत सीरियस है” के साथ फिल्म आरंभ होती है और उसके बाद फिल्म महात्मा गांधी की प्रसिद्ध सूक्ति के साथ चार अध्यायों में आगे बढ़ती है और अंत में भी यही लिखा आता है “पहले वह आप को अनदेखा करते हैं, फिर वे आपका मज़ाक उड़ाते हैं फिर वे आपको मारना चाहतें हैं, और तब आपकी जीत होती है ‘महात्मा गाँधी’  लेकिन अंत तक संघर्ष जारी रहता है।

सरपंच का बेटा होने के बावजूद मंगल एक सीधा लड़का है, समझदार है लेकिन हकलाने की वज़ह से उसके भीतर आत्मविश्वास की कमी है, बचपन से ही गाँव के बच्चे उसे तंग करते हैं लेकिन वह कोई प्रतिरोध या लड़ाई नहीं करता,आर्केस्ट्रा में काम करने वाली बसंती से शादी करने की इच्छा रखता है उधर बसंती फ़िल्मों में हीरोइन बनना चाहती है लेकिन प्रेमी लल्लन उसे धोखा देकर मुंबई भाग गया, बसंती की पियक्कड़ बाला बुआ के समझाने पर वह शादी के लिए तैयार हो जाती है लेकिन सगाई के बाद लल्लन गाँव वापस आ जाता है, यहीं से तब शुरू होता है उसका प्रपंच वह किस तरह शाहरूख़ खान का उदाहरण देकर नायक को बरगलाता है। मंगल एक साल के लिए गायब हो जाता है किसी को मंगल की खबर नहीं लगती और लल्लन हरिद्वार से उसका मृत्यु प्रमाणपत्र गाँव वालों को दिखाता है लेकिन 364 दिन के बाद मंगल की वापसी से कहानी में ट्विस्ट आता है, आगे क्या होता है इसके लिए आपको फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए शोषण के प्रतिरोध के लिए महात्मा गाँधी के विचारों का सहारा लिया गया है,जो यह स्पष्ट करता है कि महात्मा गाँधी के विचार आज भी प्रासंगिक हैं।

कहानी में सभी कलाकरों ने अपना बेहतरीन योगदान दिया है, नायक नरेंद्र बिंद्रा ने सरल सीधे लड़के का रोल बखूबी निभाया है , नायिका शाजिया कश्यप और राणा अभिनव गौड़ दोनों ही मंजे हुए कलाकार लगे । बाला बुआ के रूप में बहुमुखी प्रतिभा की धनी विभा रानी ने अपने स्वाभाविक अभिनय से खूब मनोरंजन किया। उनका एक संवाद बड़े ही मज़ाकिया लहजे में पितृसत्ता पर प्रहार करता है कि पति तो मर गया लेकिन “हमें भरी जवानी में यह सादा कपड़ा पहनने के लिए छोड़ गया” यानी हमारे समाज में एक विधवा को जीवन के विविध रंगों से वंचित रखा जाता है ।

और भी कई संवाद महत्त्वपूर्ण है जैसे बसंत कहती है “गाय हैं क्या, जो जहां मर्जी हो बाँध दोगे? हम लल्लन से प्यार करते हैं उसे शादी करेंगे! सरकारी कर्मचारी कहता है “मंगल आजाद मर चुका है, लाल लाइन यानी मृत्यु !18 जून 2013 को आपकी मृत्यु हो चुकी है, सरकारी अभिलेख है गलत नहीं है,” गाँव वाले भी कहतें हैं “जब कागज में दर्ज हो गया कि आप मर गये तो कैसे मान लें कि आप जिंदा है।”

सरपंच कहता है “सत्ता सेवा का माध्यम है शोषण का नाही” जब मंगल अपने जिन्दा होने के प्रमाण के लिए सत्याग्रह करता है तो कहता है “शाहरुख खान बनने की इच्छा करना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन वास्तव में खुद को शाहरुख खान मान लेना और अपनी आइडेंटिटी को भूल जाना गलत था” जैर्री सिल्वेस्टर का संगीत कर्णप्रिय है आपके मन में करुणा उपजाता है, लोक गीतों की महारथी विभा रानी का विवाह का गीत मन मोह लेता है । उत्तरप्रदेश के बनारस मणिकर्णिका गोरखपुर,कुशीनगर आदि स्थानों की सुंदर तरीके से कैमरे में कैद किया किया गया है ।

कहानी का एक अन्य पाठ यह भी है कि आज के समाज और राजनीति में सीधे सरल ईमानदार लोगों की सर्वथा उपेक्षा की जाती है, उनकी आवाज़ कोई सुनना नहीं चाहता, उन्हें अनवांटेड क़रार दिया जाता है। जिंदा यानी जिनके ज्ञान चक्षु खुल गयें हैं उनके साथ दुर्व्यवहार होता है। में सरकारी दस्तावेज़ों में अर्थात सत्ता के अधिकारों के दुरुपयोग की क्रूर दास्ताँ बताते हैं । जिनके कारण मंगल जैसे लोगों का अस्तित्व खतरें में है लेकिन फिल्म के अंत में लिखा आता है “संघर्ष जारी है।”

पंचों में चौबे जी और  भाई हिंदू मुसलमान बगल में बैठे हैं लेकिन स्वार्थी सत्ताधारी ताकतें उन्हें हज़ और तीर्थ विवश कर देती हैं। आज भी हमारी राजनीतिक गलियारों में सभी महत्त्वपूर्ण मुद्दें धर्म के आवरण में छिपा दिए जातें हैं। अंत में यही कहूँगी कि “अनवांटेड” फिल्म के सभी कलाकार तकनीशियन छोटे शहरों से लेकिन प्रतिभावान हैं ,उनका कोई गॉडफ़ादर नहीं हैं अगर इस तरह की फ़िल्मों को प्रोत्साहन नहीं दिया गया तो स्पष्ट है कि आप घटिया बे-सिर पैर के फूहड़ मनोरंजन के लिए तैयार हैं । यह पारिवारिक फिल्म है,जो मनोरंजन के साथ साथ सामजिक समस्या को भी सामने रखती है। फिल्म को देखना और लाइक करना उन सभी लोगों के लिए प्रोत्साहन का बटन होगा जो बॉलीवुड को कुछ सार्थक व सुंदर देना चाहतें हैं।

फिल्म निर्देशक व संपादन – दिलीप देव
फिल्म निर्माता-  मधुमिता राय
कहानी व पटकथा –राणा अभिनव गौड़ वह दिलीप देव

कलाकार – नरेंद्र बिंद्रा, रविभूषण शाह , जयशंकर पांडेय, विभा रानी, शाजिया कश्यप
संगीत – जैरी सिलविस्टर

यूट्यूब पर यहाँ क्लिक कर फिल्म देख सकते हैं,देखनी चाहिए।

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रक्षा गीता

लेखिका कालिंदी महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) के हिन्दी विभाग में सहायक आचार्य हैं। सम्पर्क +919311192384, rakshageeta14@gmail.com
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