फाहियान का यात्रा विवरण: पाँचवी शताब्दी के भारत के कुछ चित्र
ईसा पूर्व छठी शताब्दी के धार्मिक आन्दोलनों में बौद्ध धर्म का उदय एक महत्वपूर्ण घटना थी। जरूर इसके ‘उदय’ के अपने सामाजिक-आर्थिक कारण भी थें। अपने ‘समतावादी’ दर्शन के कारण इसने समाज के बड़े वर्ग को आकर्षित किया। इससे अस्पृश्य कही जाने वाली जातियों के अलावा शासक वर्ग जो क्षत्रिय थें, भी आकर्षित हुए, और इसका प्रसार तेजी से हुआ, और तत्कालीन भारत से बाहर भी कई देशों में फैला, जिसमे चीन भी महत्वपूर्ण है। सम्राट अशोक ने मध्य एशिया में धर्मप्रचारार्थ शिक्षक भेजे थे जिसका प्रभाव भी अवश्य पड़ा होगा। श्री जगनन्नाथ वर्मा के अनुसार “बौद्ध धर्म की उदार नीति की चर्चा चीन देश मे दिनों दिन फैलती गयी और ईसा के जन्म के 67 वर्ष पीछे चीन के सम्राट ‘मिंगटो’ ने भारतवर्ष से बौद्ध शिक्षकों को बुलाने के लिए अपने दूत भेजे। दूत कश्यप मातंग और धर्मरक्षक नामक दो आचार्यों को अपने साथ चीन ले गये। उन्होंने बौद्ध धर्म के अनेक ग्रन्थों का चीनी भाषा मे अनुवाद किया”।
फाहियान (337-422 ई.) पारिवारिक परिस्थितियों वश बचपन से भिक्षुसंघ में रहा और अंततः भिक्षु का जीवन स्वीकार कर लिया। उसका जन्म चीन के ‘पिंगयाँग’ प्रदेश के ‘उयंग’ में हुआ था। धार्मिक शिक्षा ग्रहण के दौरान जब वह पिटक ग्रंथों का अध्ययन करने लगा तो उसे पता चला कि पिटक का जो अंश उसके देश (चीन) में है वह अधूरा और क्रमभ्रष्ट है। यह देखकर उसे दुख हुआ और उसने दृढ़ संकल्प किया किया कि भारत जाकर ‘विनय पिटक’ की पूरी प्रति प्राप्त कर अपने देश के भिक्षुसंघ में प्रचार करूँगा। इस उद्देश्य में उसके चार और मित्र शामिल हो गयें, और सन 400 ई. में सभी तीर्थयात्रा और ग्रंथों की प्रतियाँ प्राप्त करने ‘चांग गान’ से भारतवर्ष की यात्रा के लिए निकल पड़ें।
उनके यात्रा का मार्ग इस प्रकार था- ‘चांग गान’ से ‘लूंग’ प्रदेश होकर ‘किनक्कीई’ प्रदेश। यहाँ से ‘लियंग’ होते हुए ‘याँगलो’ पर्वत पार कर ‘चांगयीं:’ पहुँचे। यह चीन के प्रसिद्ध दीवार के पास है। उस समय यह नाका था। चीन देश का माल यहीं से होकर बाहर जाता था और पश्चिम का माल इसी से होकर भीतर आता था। यहाँ से ‘तुनव्हांग’ फिर गोबी मरुस्थल होकर ‘शेनशेन’ जनपद पहुंचे। वहाँ से ‘ऊए’। यह सम्भवतः तुर्किस्तान के किनारे था। यहाँ से ‘खुतन’ नगर, वहाँ से ‘जीहो’, वहाँ से ‘युव्हे’। सम्भवतः यह समरकन्द के पास का क्षेत्र है। वहाँ से फिर ‘कीचा जनपद’, यहाँ से ‘कबंध देश’, ‘किउएउ’ नगर, ‘पीहो’ प्रदेश, ‘ईखा’ प्रदेश, ‘पोसि’, ‘सिमी’ जनपद, फिर ‘उद्यान जनपद’, वहाँ से ‘सुहोतो’ प्रदेश, फिर वहाँ से ‘गांधार’ जनपद पहुंचे।
गांधार से वे ‘तक्षशिला’ पहुंचे, फिर वहाँ से ‘पुरुषपुर’ (पेशावर), वहाँ से ‘हेलो’, जलालाबाद के पास, वहाँ से ‘लोए’ प्रदेश, ‘योना’, ‘पीतू’ जनपद, ‘मथुरा’, कान्यकुब्ज, साकेत (अयोध्या), श्रावस्ती, ‘नेपिकिया’, कपिलवस्तु, लुम्बिनी, राम जनपद, कुशनगर, वैशाली, पाटलीपुत्र (पटना के पास), नाल (नालंदा), राजगृह, गृद्धकूट पर्वत, गरुणपाद पर्वत (बोधगया के पास), काशी नगर, पाटलिपुत्र, चंपा जनपद (भागलपुर के पास), तम्बलिप्ति (बंगाल का तामलुक), सिंहल देश (श्रीलंका), जावा द्वीप, सिंगचाव, नानकीन, किंगचाव, यहीं 88 वर्ष की अवस्था मे उनका निधन हो गया। इस तरह ‘चांगन’ प्रदेश जहाँ से उसने यात्रा की थी, वापस नही पहुंच सका। इन सभी जगहों की आज इतने वर्षों बाद पहचान करना कठिन है;कइयों की पहचान मिट गयी है, कइयों के नाम बदल गये हैं, फिर फाहियान के विवरण की अपनी गलतियाँ होंगी। इसलिए विद्वानों में मतभेद भी हैं, मगर बहुत से जगहों की पहचान स्पष्ट भी है।
इस तरह देखा जा सकता है कि फाहियान ने उन्ही स्थानों की यात्रा की जो जो गौतम बुद्ध के जीवन, उनके कार्यक्षेत्र और बौद्ध धर्म से जुड़े हुए थे। वैसे भी उनका उद्देश्य ‘तीर्थ यात्रा’ भी था, और पांडुलिपि भी उन्ही स्थानों पर प्राप्त होने की संभावना अधिक थी। इस विवरण में उसने बौद्ध भिक्षुओं की दिनचर्या, उनके कर्मकांड, उत्सव, तत्कालीन शासकों द्वारा संघ को सहयोग बौद्ध संघ के अचार संहिता पर विस्तार से लिखा है। स्थानों के वर्णन में बुद्ध से जुड़ी घटनाओं और कथाओं, उनके ‘पूर्व जन्म’ से जुड़ी कथाओं (जातक कथाओं) का विशेष उल्लेख किया गया है। उनके ‘विदेशी’ होने के कारण अधिकतर उन्हें उत्सुकता और सम्मान से देखा जाता था। ‘हिन्दू’ और ‘जैन धर्म’ के प्रति उसके मन प्रतिस्पर्धा भाव परिलक्षित होता है, वह उन्हें ‘ईर्ष्यालु’ कहता है, और उन ‘मिथकों’ का जिक्र करता है जिनमे बुद्ध उन्हें ‘निरुत्तर’ करते हैं। एक जगह ‘ब्राह्मण’ यात्री भी तूफान में जहाज के फँस जाने पर उसका कारण ‘श्रमण’ (फाहियान) को मानते हैं। विवरण में जगह-जगह ‘चमत्कार’ ‘अंधविश्वास’ और सुनी-सुनाई बातें हैं, जो तत्कालीन समाज के वैचारिक सीमा में आश्चर्य जनक नही है।
फाहियान जब भारत आया उस समय मध्य देश (उत्तर भारत) का शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय (380-412ई.) था। फाहियान ने उसके बारे में लिखा है – “लोग राजा की भूमि जोतते हैं और उपज का अंश देते हैं। जहाँ चाहे जाएं, जहाँ चाहें रहें। राजा न प्राण दंड देता है न शारीरिक दंड देता है। अपराधी को आवश्यकतानुसार उत्तम साहस और मध्यम साहस का अर्थदंड दिया जाता है। बार-बार दस्यु कर्म करने पर दक्षिण करच्छेद किया जाता है। राजा के प्रतिहार और सहचर वेतनभोगी हैं। सारे देश मे कोई अधिवासी न जीव हिंसा करता है, न मद्य पीता है और न लहसुन प्याज खाता है; सिवाय चंडाल के। दस्यु को चांडाल कहते हैं। वे नगर में बाहर रहते हैं और नगर में जब पैठते हैं तो सूचना के लिए लकड़ी बजाते चलते हैं, कि लोग जान जाएं और बचा कर चलें, कहीं उनसे छू न जाएं। जनपद में सूअर और मुर्गी नही पालते, न जीवित पशु बेचते हैं, न कहीं सूनागार और मद्य की दुकानें हैं। क्रय विक्रय में कौड़ियों का व्यवहार है। केवल चांडाल मछली मारते, मृगया करते और मांस बेचते हैं। ” इस विवरण से शासन के सामंती प्रकृति का पता चलता है जहाँ राजा समस्त भूमि का स्वामी होता है। ‘चांडाल’ वर्ग के प्रति अश्पृश्यता की भयावहता स्पष्ट है।
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फाहियान के विवरण से ऐसा लगता है कि इस समय बौद्ध धर्म उत्कर्ष पर है लेकिन रामशरण शर्मा के अनुसार “गुप्तकाल में बौद्ध धर्म को राजाश्रय मिलना बहुत घट गया। फाहियान ऐसी धारणा देता है कि बौद्ध धर्म बहुत समुन्नत स्थिति में था। लेकिन यथार्थ में इस धर्म का जो उत्कर्ष अशोक और कनिष्क के दिनों में था वह गुप्काल में नही रहा। परंतु कुछ स्तूपों और विहारों का निर्माण हुआ, तथा नालंदा बौद्ध शिक्षा का केंद्र बन गया”। फाहियान स्तूपों और महलों के स्थापत्य से मुग्ध होता रहा और कई जगह इनकी प्रशंसा की है। पाटलिपुत्र में सम्राट अशोक के प्रासाद के बारे में लिखा है “पुष्पपुर (पाटलिपत्तन) अशोक राजा की राजधानी था। नगर में अशोक का राज प्रासाद और सभाभवन है। सब असुरों के बनाए हैं। पत्थर चुनकर भीत और द्वार बनाए हैं। सुंदर खुदाई और पच्चीकारी है। इस लोक के लोग नही बना सकते। अब तक वैसे ही हैं। ” आगे अशोक द्वारा 84000 स्तूप बनवाये जाने का जिक्र है, जिसमे अतिरंजना हो सकती है, मगर उसके (अशोक) बौद्ध धर्म के प्रति लगाव स्पष्ट है। वैसे यह इतिहास में सर्वविदित भी है।
फाहियान मुख्यरूप से विनय पिटक की खोज में आया था। पटना में उसे सफलता मिली। वहाँ उसे निम्न ग्रन्थ प्राप्त हुए (1) महासंघिक निकाय का विनय पिटक (2) एक अज्ञात निकाय का विनय पिटक (3) सर्वास्तिवाद निकाय का विनय पिटक (4) संयुक्त धर्म हृदय (5) एक और अज्ञात निकाय का विनय पिटक (6) परिनिर्वाण वैपुल्य सूत्र (7) महासंघिक निकाय का ‘अभिधर्म पिटक’। यहाँ तीन वर्ष रहकर उसने संस्कृत ग्रंथों का अभ्यास किया और विनय पिटक की। प्रतिलिपि की। इसी तरह सिंहल (श्रीलंका) में वह दो वर्ष रहा, वहाँ उसे चार पुस्तकों की प्रतियाँ मिली (1)’ महिशासक ‘निकाय का विनय पिटक (2) दीर्घगाम (3) संयुक्तागम (4) संयुक्तसंचय पिटक। इनकी प्रतिलिपि ले जाने में उसने काफी मेहनत की, एक बार समुद्र यात्रा में तूफान आने पर जब सारे समान पानी मे डाले जा रहे थें, उसने बड़ी मुश्किल से इनका बचाव किया।
फाहियान ने विवरण में तत्कालीन समय के कई बौद्ध पर्वों का रोचक वर्णन किया है। इनमे पाटलिपुत्र के रथयात्रा का वर्णन देखें – “प्रतिवर्ष रथयात्रा होती है। दूसरे मास की आठवीं तिथि को यात्रा निकलती है। चार पहिये के रथ बनते हैं। यह यूप पर ठाती जाती है जिसमे धुरी और हर्से लगे होते हैं। 20 हाथ ऊंचा और स्तूप के आकार का बनता है। ऊपर से सफेद चमकीला ऊनी कपड़ा मढ़ा जाता है। भांति भांति की रंगाई होती है। देवताओं की मूर्तियाँ सोने चाँदी और स्फटिक की भव्य बनती हैं। रेशम की ध्वजा औऱ चाँदनी लगती हैं। चारो कोने कलगियाँ लगती हैं। बीच मे बुद्धदेव की मूर्ति होती है और पास में बोधिसत्व खड़ा किया जाता है। बीस रथ होते हैं। एक से एक सुंदर और भड़कीले, सबके रंग न्यारे। नीयत दिन पर आस-पास के यती और गृही इकट्ठे होते हैं। गाने बजाने वाले साथ लेते हैं। फूल और गंध से पूजा करते है। फिर ब्राम्हण आते हैं और बुद्धदेव को नगर में पधारने के लिए निमंत्रित करते हैं। पारी पारी नगर में प्रवेश करते हैं। इसमे दो रात बीत जाती है। सारी रात दिया जलता है। गाना बजाना होता है। पूजा होती है। जनपद में ऐसा ही होता है”
इस तरह फाहियान का यह यात्रा विवरण इतिहासकारों के साथ-साथ सामान्य पाठकों के लिए भी रोचक है। यह कल्पना करना भी अपने आप मे रोमांचक है कि कैसे आज से 1600 वर्ष पूर्व बिना यातायात के आधुनिक साधनों के इतनी लम्बी दुर्गम यात्रा, जहाँ सड़क भी न हो कैसे पुरी की होगी। निश्चय ही फाहियान और उसके मित्रों को विकट दिक्कतों का सामना करना पड़ा होगा, जिसकी झलक विवरण में है। उनके एक मित्र का यात्रा के दौरान ही अत्यधिक ठंड से निधन हो जाता है, समुद्री जहाज तूफान से राह भटक जाता है; मुश्किल से जान बचती है। इस विवरण के उपलब्धि और सीमाओं के बारे में अधिकारी विद्वान लिखते ही रहे हैं, हमारी टिप्पणी एक जिज्ञासु पाठक की ही प्रतिक्रिया है।