अफगानिस्तान से पारम्परिक रिश्ते
भारत अफगानिस्तान का सम्बन्ध एक दो सदी का नहीं बल्कि आदिकाल से है। यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत की सभ्यता और भारतीय सभ्यता का इतिहास, दक्षिण एशिया के उस भूभाग जिसको हम अफगानिस्तान के नाम से जानते हैं, के बिना या उसकी चर्चा के बिना अधूरा होगा। आदिकाल में जिस पुरानी सभ्यता का सुराग हमें मिलता है यानी हड़प्पा सिंधु घाटी सभ्यता का उस हड़प्पा का बहुत सारा भाग मौजूदा अफगानिस्तान में है और भारत में भी। यह क्षेत्र ईसा पूर्व में मौर्य साम्राज्य का भी हिस्सा था। उससे पहले महात्मा बुद्ध का जो आन्दोलन चला और जो बौद्ध धर्म का प्रचार प्रसार हुआ तब भी भारत के अलावा खुद यह हिस्सा भी उसका एक केन्द्र बना। कनिष्क की हुकूमत भी मध्य एशिया से लेकर और उत्तर भारत तक फैली हुई थी। यह सिलसिला मध्यकाल में भी जारी रहा।
दरअसल मुख्य रूप से उतरी और उत्तर पश्चिमी भारत का एक अभिन्न रिश्ता अफगानिस्तान के साथ रहा है। मध्यकाल में तुर्क शासक भी मूलतः इसी इलाक़े से आये थे। बल्कि अधिकतर ऐसा देखने में आया कि वे मध्य एशिया से पहले अफ़ग़ानिस्तान में आकर रुके, उनकी दो-तीन पीढ़ियां रहीं, फिर उन्होंने भारत की तरफ प्रस्थान किया।
यह बात ध्यान देने की है कि तुर्क या मद्धेशिया या अफगानिस्तान के लोग भारत की तरफ ही क्यों आये? उसका बुनियादी और ऐतिहासिक कारण यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप का हमेशा से ही बड़ा गहरा रिश्ता रहा है अफगानिस्तान और मद्धेशिया से। यह रिश्ता सांस्कृतिक था तथा व्यापारिक भी। यहाँ से व्यापारी लाखों में जाते थे, कई महीनों, वर्षों रहते थे और अपना व्यापार करते थे। फिर वापस आते थे कई बार यह भी देखने में आया कि वहाँ पर उनका परिवार होता था। वहाँ के लोग भी इस तरफ आते थे। इसी के साथ सांस्कृतिक धाराएँ, दर्शन और धार्मिक परम्पराओं का भी हमेशा आदान-प्रदान होता रहा। जैसे ईसापूर्व में जब बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ तो उससे पूरे इलाके में बौद्ध धर्म फैला जो फिर चीन और पूर्वी एशिया में गया। इस तरह से जब उस इलाके में इस्लाम और फिर बाद में सूफी परम्परा को लोगों ने अपना लिया तो फिर वहाँ से भी लोग भारत की तरफ आये। खासतौर पर सूफी लोग आये। अफगानिस्तान के उत्तर में अब जो है उसमें बहुत सारी परम्पराएँ हैं।
अलबरूनी भी वहीं से आए जिन्होंने भारतीय संस्कृति यहाँ के समाज और यहाँ के दर्शन के बारे में शोध किया और इसके लिए कई वर्षों तक इस पूरे इलाके में अध्ययन और भ्रमण किया। उसके बाद से एक ऐसी पुस्तक लिखी जो आज भी हमारे लिए एक एनसाइक्लोपीडिया की तरह है। इस पुस्तक से उस समय के भारत की संस्कृति, दर्शन और ज्ञान परम्परा के बारे में हमें सूचना मिलती है। एक तरह से यह पहला गंभीर शोध कार्य था। उनकी इस किताब के जरिए पूरे एशिया में और विश्व में लोगों ने भारत को देखा और उसे समझा। यह एक तरह से हमारी सभ्यता का दर्पण बन गया।
सूफी परम्परा की बात आई है तो यह बताते चलें कि अफगानिस्तान हमेशा ही महान संतों का केन्द्र रहा है उनमें से खासतौर पर हम मौलाना रूमी का नाम ले सकते हैं। ख्वाजा अब्दुल अंसारी जिनका भारतीय महाद्वीप पर बहुत असर रहा बल्कि मौलाना रूमी की रचनाओं पर भी भारतीय दर्शन का प्रभाव है। भारत में जो महाकाव्य लिखे गए या भक्तिकाल में जो किताबें आई खासतौर से जायसी या अमीर खुसरो एवं दूसरे अन्य लोगों ने जो लिखा है उसमें भी हम साफ तौर पर सूफियों का प्रभाव देखते हैं।
इस तरह से दूसरे लोगों का भी आना-जाना रहा। उदाहरण के तौर पर भारत में जो सबसे प्रसिद्ध और प्रचलित सूफी परम्परा है वह चिश्तिया सिलसिला है। इसके संस्थापक ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती थे जो ख्वाजा गरीब नवाज के नाम से मशहूर हैं। इनकी दरगाह राजस्थान के शहर अजमेर में है। इनको मानने वाले करोड़ों की तादाद में हैं और उसमें सारे धर्म संप्रदायों के लोग शामिल हैं। उनका ताल्लुक भी अफगानिस्तान के शहर से है। उन्होंने चिश्तिया सिलसिले की बुनियाद डाली और लोगों में प्रेम, स्नेह, मोहब्बत और इंसानियत का पैगाम दिया। इस परम्परा में महान सूफी हुए जो पूरे भारतीय महाद्वीप में फैले हुए थे, जिनमें बाबा फरीद, ख्वाजा बख्तियार काकी और हजरत निजामुद्दीन औलिया हैं। सूफियों का पंजाब से लेकर असम और दक्षिण तक पूरे भारत की इस साझी संस्कृति को बनाने में एक बड़ी भूमिका रही है। इसी तरह से एक शाह अर्जानी थे जो हजरत के अजीज अंसारी के सिलसिले से थे। पटना में उनकी बड़ी दरगाह है। भारत में उनके मानने वालें हजारों की तादाद में है। वे अफगानिस्तान से होकर ही आये थे।
लेकिन अफगानिस्तान में पठानों की हुकूमत हुई और भारत में भी रही। इनमें खासतौर से खिलजी, इब्राहीम लोधी वगैरह उल्लेखनीय हैं। हम जानते हैं कि एक समय ऐसा भी था जब आपस में राजाओं में टकराव हुआ तो पठान और दूसरे जो लोग थे वह एक साथ हो गए थे। भारत की आजादी के समय भी जब अंग्रेजों के साथ लड़ाई चल रही थी उसमें भारत के स्वतन्त्रता सेनानी और अफगानिस्तान के लोगों में बड़ा मेल-जोल था और वे एक दूसरे की मदद कर रहे थे।
प्रथम भारतीय निर्वासित हुकूमत 1 दिसम्बर, 1915 को अफ़ग़ानिस्तान में ही कायम हुई थी वह जिसके अध्यक्ष और राष्ट्रपति राजा महेंद्र प्रताप सिंह, प्रधानमन्त्री मौलाना बरकतुल्लाह वाली और गृह मन्त्री उबैदुल्लाह सिंधी थे। ये सब भारतीय स्वतन्त्रता सेनानी, लेखक और क्रान्तिकारी थे। 1919 में ब्रिटिश शासन से अपने को स्वतन्त्र घोषित अफगानिस्तान के शासक अमानुल्लाह खान से इनका अच्छा रिश्ता था। तो हम देख रहे हैं कि यह किस कदर लोगों का एक दूसरे के साथ जुड़ाव रहा।
इसी तरह जब खिलाफत आन्दोलन हुआ तो वह उत्तर भारत का सबसे बड़ा आन्दोलन था। अफगानिस्तान के लोग एक दूसरे से इस आन्दोलन में मिलकर चले और जब यहाँ गाँधी जी आजादी की लड़ाई में शामिल हुए तो वहाँ खान अब्दुल गफ्फार खान आन्दोलन चला रहे थे। उन्होंने जिस तरीके से वहाँ स्वतन्त्रता आन्दोलन चलाया या समाज सुधार का काम किया था उससे लोगों ने खान साहब को सीमांत गाँधी के नाम से भी याद किया। खान साहब भारत के स्वतन्त्रता संग्राम, हिन्दू मुस्लिम एकता और समाज सुधार के लिए खासतौर से विभाजन के खिलाफ जिस तरह से डटकर खड़े हुए थे इसके लिए उनको हम सब याद करते हैं। वह हमारे लिए एक बड़े प्रेरणा स्रोत रहे हैं।
साहित्य के क्षेत्र में भी भारत और अफगानिस्तान का गहरा रिश्ता रहा है। यह सिलसिला बीसवीं सदी से अब तक चलता रहा है। टैगोर ने भारतीय और अफ़ग़ान लोगों का जो स्नेह का रिश्ता था उसको अपनी एक कहानी काबुलीवाला में दिखाया है। उसकी बुनियाद पर फिल्मी बनी। वह सिर्फ एक कहानी नहीं बल्कि हमारे रिश्तों का एक सच्चा दर्पण है।
इस तरह से हम देखते हैं कि ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं हर क्षेत्र में अफगानिस्तान के साथ हमारा रिश्ता बहुत ही नजदीकी और स्नेह भरा रहा है। आज हालाँकि राजनीतिक दृष्टि से हालात् काफी बदल गये हैं लेकिन अफगानी आवामों में भारतीय लोगों के लिए बड़ी आस्था है। वह सम्मान की दृष्टि से भारतीयों को देखते हैं। खुद भारत भी उनके साथ जुड़ाव महसूस करता है। जरूरत है कि हम इन रिश्तों को मजबूत करें। अफगानिस्तान इस पूरे महाद्वीप के लिए मध्य एशिया और उत्तरी एशिया का एक दरवाजा है और वहाँ पर अमन शान्ति पूरे महाद्वीप के लिए जरूरी है। पूरे हिस्से में अमन और शान्ति का माहौल कैसे बने, इसके लिए प्रयास जरूरी है।