राज्य समाज के कल्याण के लिए साधन का काम करता है जबकि समाज स्वयं साध्य है। दूसरे शब्दों में कहें तो सदैव साधन का अस्तित्व साध्य के लिए है न कि साध्य का अस्तित्व साधन के लिए। लेकिन आधुनिक समाज की संकल्पना में राज्य को सर्वोपरि रखकर समाज की भूमिका को सीमित कर दिया गया। समस्या यहीं से शुरू हुई। शहर हो या गाँव उन्हें हर छोटे बड़े कार्यों के लिए प्रशासन का मुंह देखना पड़ता है लेकिन परम्परागत समाज आत्मनिर्भर समाज था इसलिए स्वायत्तता भी थी। वो जानता था राज्य व प्रशासन के संसाधन सीमित हो सकते है उनके द्वारा दी गयी सेवाएं ठप्प पड़ सकती है लेकिन समाज के पास अपने कई विकल्प होते है थे।
एक और एक मिलकर ग्यारह की कहावत को चरितार्थ करता परम्परागत समाज सामूहिक योगदान से अपने छोटे बड़े कार्यो को एक दूसरे के सहयोग से पूरा कर लेता था। बड़े से बड़े आपातकाल में समाज एक दूसरे के साथ खड़ा रहता था। प्राचीन समय में हर गाँव अपने स्तर पर पर्यावरण, स्वच्छता व जल प्रबंधन की सुव्यवस्थित व्यवस्था का संचालन करता था। लोककल्याण के कार्यों के लिए समाज अपने अनुशासन व नियमों में बंधा होता था। लेकिन आधुनिक विकास के दौर में जब समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व राज्य प्रशासन को सौंप दिया तब से समाज की शक्तियां क्षीण होती चली गयीं।
आधुनिक शासन प्रणाली में राज्यों के अपने अनुशासन व नियम होते हैं जिन्हें कानून बनाकर लागू किया जाता हैं। देश व नागरिकों के हित में वन संरक्षण, जीव संरक्षण, प्रदूषण नियन्त्रण जैसे कानून इसी का उदाहरण है। परम्परागत समाज में लोक कल्याण के जो नियम होते हैं वो कर्तव्यों से जुड़े थे जिनका समाज, रीति रिवाज, परम्परा व आस्थाओं के रूप में स्वेच्छा से पालन करता था। जल संचयन की ही बात करें तो आज हम सरकारों से ही उम्मीद करतें हैं कि जल संचयन उनकी जिम्मेदारी है जबकि पहले यह कार्य समाज करता था। धर्म और पुण्य से जोड़कर समाज के समर्थवान लोग पोखर और तालाब बनवातें थे। इसके लिए समाज के अलग अलग अनुभवी कुशल कारीगर अपना योगदान देते थे।
प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ने ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। आधुनिक नीति निर्धारकों को यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिए। समाज के सहयोग से तालाब कहाँ बनना चाहिए इसका चुनाव करने वालों को बुलई कहा जाता था। जमीन की पैमाइश का काम गजधर का था। सिलवट समुदाय पत्थर का काम करते थे। सिरभाव कहे जाने वाले लोग औजार के बिना ही पानी की ठीक जगह बताते थे। आम अथवा जामुन की लकड़ी से भूजल सूंघकर बताने वाले जलसूंधा कहलाते थे। पथरोट और टंकार तालाब बनाते थे। खंती मिट्टी काटते थे। मिट्टी खोदने का काम सोनकर करते थे। मटकूट मिट्टी कूटते थे। ईंट और चूने-गारे का काम चुनकर करते थे।
इसके अलावा तालाब बनाने वालों में दुसाध, नौनिया, गोंड, परधान, कोल, धीमर, भोई, लुनिया, मुरहा और झांसी समुदाय के लोग कुशल कारीगर माने जाते थे। उस समय पोखर और तालाब बनवाने का काम सिर्फ राजा और जमींदारों का ही नही था आम लोग भी तालाब बनवाते थे क्योंकि यह जनकल्याण की दृष्टि से पुण्य के साथ साथ यश और कीर्ति वाला कार्य था। धर्म और पुण्य से जुड़े पोखर बनवाने से पहले यज्ञ और उत्सर्ग की परम्परा पोखर खुदवाने का अनिवार्य अंग था। यज्ञ में पूरे समाज की उपस्थिति होती थी। इसके बाद ही इस पोखर का जल देवताओं पर चढ़ाया जा सकता था या दैनिक काम काज में इसका उपयोग किया जा सकता था।
पोखर व तालाब बनाने की परम्परा का उल्लेख धार्मिक ग्रंथ व पुराणों में भी किया गया है। लगभग 800 से 300 ई. पू. रचित गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र में इसे धार्मिक कार्य की मान्यता दी गयी । इन सूत्रों के अनुसार किसी भी वर्ण या जाति के स्त्री व पुरूष पोखर खुदवा सकते हैं और उसका यज्ञ करवा कर समाज के उपयोग के लिए उत्सर्ग कर सकते हैं। पौराणिक ग्रंथों में लोक कल्याण के लिए खुदवाये गये जल कोष को चार वर्गों में विभाजित किया गया है।
पहला वर्ग गोलाकर कूप, जिसका व्यास 7 फीट से 75 फीट हो सकता है और जिससे जल निकालने के लिए किसी यन्त्र जैसे डोल डोरी का प्रयोजन हो। दूसरा वर्ग चौकोर आकार का वापी, बहुत छोटा पोखर होता था। जिसकी लम्बाई 75 से 150 फीट होती थी और जिसमें जलस्तर तक पांव के सहारे पहुंचा जा सकता हो। तीसरे वर्ग में गोलाकार पुष्करणी छोटा पोखर जिसका व्यास 150 से 300 फीट तक हो। चौथे वर्ग में चौकोर आकार का तड़ाग (पोखर) जिसकी लम्बाई 300 से 450 फीट तक हो। मत्स्यपुराण में पांचवें वर्ग में हदक की चर्चा की गयी है। जिसका पानी कभी नहीं सूखता हो।
चौदहवीं शताब्दी में पोखर का एक और वर्ग ‘सरोवर’ बनवाने की परम्परा मिलती है इससे पहले पोखर के पांच वर्ग (कूप, वापी, पुष्करणी, तड़ाग और हदक) का वर्णन मिलता है जिसमें सरोवर नही था। सरोवर के बाद पोखर को सातवां वर्ग कहा जा सकता है। ज्योतिरीश्वर ठाकुर ने वर्णरत्नाकर (चौदहवीं शताब्दी) में सरोवर और पोखरा का वर्णन किया है। पोखर निर्माण में बाद के युगों में बदलाव के बाद सरोवर और पोखरा का प्रचलन हुआ होगा। मिथिला में प्रचलित इस लोकोक्ति से ( पोखर, रजोखरि और सब पोखरा; राजा शिवसिंह और सब छोकड़ा। / तालते भूताल ताल आरो सब तलैया, राजा शिवसिंह आरो रजैया ) तालाब व पोखर के आकार और प्रकार में बदलाव का संकेत मिलता है।
राजा शिवसिंह ने अपने राज में पग पग पर पोखर खुनवाने का काम किया था। (माना जाता है कि विद्यापति ने राजा शिवसिंह के कहने पर इन पंक्तियों की रचना की ) ज्योतिरीश्वर ठाकुर (राजा हरिसिंह के समकालीन) और विद्यापति (राजा शिवसिंह के समकालीन ) के बीच करीब एक सौ वर्ष का अन्तर है। हो सकता है कि वर्णरत्नाकर के सौ वर्ष बाद रजोखरि बनाए जाने के बाद पोखर के आकार की मान्यता बदल गयी हो और तब इस लोकोक्ति का प्रचार हुआ हो।
ऐसे अनेक लोकोत्तियों से मिथिला के इतिहास में विभिन्न प्रकार के पोखर खुदवाने के काफी प्रसंग उपलब्ध हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बिहारी लाल फितरत ने अपनी पुस्तक ‘आईना-ए-तिरहुत’ में मिथिला के विभिन्न पोखरों का विस्तार से वर्णन किया है। इसमें वर्णित सभी पोखरों के नाम के साथ कोई न कोई दन्तकथाएं जुड़ी है। इन सभी दन्तकथाओं में विभिन्न कालों के ऐतिहासिक साक्ष्य उस गाँव व क्षेत्र के इतिहास को जानने की कड़ियां हो सकतीं हैं। जिसपर शोध करने की आवश्यकता है।
पोखरों के संदर्भ मे चमाईन पोखर से जुड़ी लोककथा जल संग्रहण के लिए व्यक्तिगत प्रयासों के साथ सामाजिक सहयोग की समृद्ध परम्परा का साक्ष्य प्रस्तुत करती है। लोककथा है कि न्यायदर्शन के प्रसिद्ध विद्वान अयाची मिश्र के पुत्र शंकर मिश्र ने राजा से प्राप्त बेशकीमती हार को अपनी पहली कमाई के रूप में चमाईन को दे दिया और चमाईन ने उस उपहार स्वरूप बेशकीमती हार को लोक कल्याण के लिए पोखर बनाने के लिए दान कर दिया। तब से लोक में प्रचलित इस कथा के साथ जीवित है एक साधारण महिला के असाधारण उदारता और विशालता की कहानी। जनश्रुति अनुसार उसने अपनी कीर्ति के लिये अपने गाँव सरिसब-पाही में एक पोखर खुदवाया था। जिसे चमइनियां पोखर कहा जाता है। यह पोखर आज भी इस गाँव में मौजूद है।
पोखर परम्परा में एक और लोककथा का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें चार भाइयों का जिक्र आता है -इस कथा में एक दिन खेत जाते समय बच्ची को एक नुकीले पत्थर से चोट लग जाती है। गुस्से में आकर अपने दरांती से उस पत्थर को उखाड़ने के लिए जैसे ही दरांती उस पत्थर पर मारती है वह लोहे से सोने में बदल जाती है। ऐसा देख बच्ची भागी भागी खेत पर आती है और पूरा धटनाक्रम एक सांस में अपने पिता और चाचाओं को बताती है। चारों भाई समझ जाते है कि यह कोई साधारण पत्थर नही बल्कि पारस है। जिसको छूकर लोहा सोने में बदल गया। उन भाईयों को लगता है कि यह बात राजा को बता देनी चाहिए। और तब चारों भाई राजा को पारस देते हुए सारी कथा सुनाते हैं। राजा उनकी ईमानदारी से प्रसन्न होकर वह पारस उन्हें वापस सौंपते हुए कहता है जाओं इससे परोपकार के काम करना और तालाब बनाना।
उनके नाम से प्रसिद्ध देश के मध्य भाग में पाटन नामक क्षेत्र में चार बड़े तालाब बुढ़ानगर में बूढ़ा सागर,मझगवां में सरमन सागर,कुआंग्राम में कौंराई सागर तथा कुंडम नगर में कुंडम सागर आज भी चारों भाइयों, सरमन बुढ़ान,कौंराई और कुड़न की कथा को जीवित रखे हुए हैं। इन लोक कथाओं से ये बात तो तय है कि पहले पोखर समाज के थे जिस पर सबका अधिकार था। धीरे धीरे सरकारी हस्तक्षेप से इन पर से ग्रामीणों व स्थानीय लोगों का अधिकार खत्म होता गया। पोखरों की समृद्ध परम्परा के कारण मिथिला क्षेत्र (बिहार) में आज भी यह कहावत -पग पग पोखर माछ मखान, सरस बोल मुस्की मुख पान, प्रचलित है।
पोखर बिहार की संस्कृति का अहम अंग है इसलिए माछ, मखान (दोनों का संबंध जलाशयों से ही है) यहाँ की विशिष्ट पहचान है। पोखर से मछली, मखाना आदि जो कुछ उपलब्ध होता था, उसका उपभोग पूरा गाँव करता था। भारत में मखाना की खेती के लिए मिथिला सबसे आगे है। लेकिन प्रथम भूमि-सर्वेक्षण में गाँव के पोखर को गैरमजरूआ आम या गैरमजरूआ खास के रूप में दर्ज किए जाने के बाद पोखर ‘आम’ और ‘खास’ हो गये। और इसके बाद ग्रामीणों को परम्परागत तौर पर पोखर के उपयोग का जो अधिकार था, वह धीरे धीरे समाप्त हो गया। आम पोखरों की देख-रेख जमींदार लोग करने लगे तथा खास पोखरों की देख-रेख उसके बनवाने वाले मालिक ही किया करते थे।
इसके फलस्वरूप, गाँव का पोखर से जो अनुबंध था वह समाप्त हो गया। अब इनके रख-रखाब पोखर के महार की मरम्मत, पानी की साफ सफाई से किसी को कोई मतलब नहीं रहा। पहले इसकी जिम्मेदारी गाँव की होती थी। पोखरों से हर वर्ष मिट्टी निकालने की व्यवस्था को पर्व और त्योहार का नाम देकर उत्सव में बदल दिया जाता था। पोखरों में जमी मिटृटी को साद कहा जाता था। इसे निकालने के लिए हर क्षेत्र में मौसम के अनुसार समय निर्धारित था। लेकिन आज गाँवों के अधिकार क्षेत्र में न होने के कारण यह कार्य प्रशासन की जिम्मे आन पड़ा। इस कार्य में खर्च को देखते हुए प्रशासनिक अधिकारी इसकी साफ सफाई को आर्थिक बोझ मानते हैं। जबकि पहले ग्रामीण लोग इस कार्य को दैनिक कार्यों के रूप में देखते हुए स्वेच्छा से आगे आते थे। जिसमें गृहस्थ, कुम्हार और किसान की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी। किसान इस मिट्टी को ले जाकर अपने खेतों में डालकर उसकी उर्वरता को बढ़ाने में प्रयोग करते। बिहार में यह कार्य श्रमदान के रूप में किया जाता था जिसे उड़ाही कहा जाता है।
पहले समाज अपने गाँव के सभी पोखरों को अपना समझता था, उसके प्रति एक ममत्व की भावना रहती थी, उसके संरक्षण और देखभाल के लिए सभी एकजुटता के साथ काम करते थे। पोखर से जुड़ी उनकी धार्मिक आस्था और भावात्मक लगाव के प्रतीक विविध लोक पर्व और त्योहार पोखर की महत्ता के सूचक है। जैसे बिहार में जूड़शीतल नामक पर्व बैसाख (अप्रैल) माह में मनाया जाता है। इसदिन गाँव-गाँव में लोग कीचड़-कादो से खेलते हैं, पोखर के पास एकत्र होकर एक-दूसरे पर पानी, कीचड़ और कादो फेंकते हैं। इस बहाने पोखर का गाद हट जाता है तथा पोखर में भर गये घास, केचुली, सेवार इत्यादि साफ हो जाते हैं। ऐसे बहुत से लोक पर्वो और त्योहारों में छिपे वैज्ञानिक धारणाओं को समझने की जरूरत है।
जल स्त्रोतों की स्वच्छता और सरंक्षण से जुड़ा जूड़ शीतल का पर्व पोखरों और तालाबों के रखरखाव के सामूहिक सामंजस्य का उदाहरण है। हमारे समाज में जीवन से लेकर मृत्यु तक अनेक धार्मिक मान्यताओं के पीछे जल स्त्रोतों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने भाव दिखाई देता है। शिशु जन्म के अवसर पर कुआं पुजन हो या मृत्यु उपरांत श्राद्ध कर्म पोखरों के किनारे ही सम्पन्न किए जाते हैैं। पोखर के प्रति समाज की कृतज्ञता वाला सम्बन्ध अब खत्म हो रहा है। इनका उपयोग व्यवसायिक गतिविधियों के लिए अधिक होने लगा है। बिहार में मछली पालन और मखाना की मांग बजार में होने के कारण सरकार द्वारा सरकारी पोखरों को मछली और मखाना के लिए खास अवधि के लिए लीज पर दिया जाने लगा है। सरकार इससे होने वाली आमदनी के लोभ में ग्रामीणों की आवश्यकताओं की उपेक्षा करने लगी है। ग्रामीणों को अपने खेतों की सिंचाई के लिए पानी भी नहीं मिलता।
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स्थानीय लोगों से पोखर उपयोग के अधिकार छीन लिए जाने के बाद पोखरों के दूषित होनें लगे और बढ़ती आबादी और भू-माफियाओं द्वारा अधिग्रहण के कारण तालाब खत्म होने लगे है। व्यवसायिक लाभ कमाने वालों को इन पोखरो के रखरखाव से कोई मतलब नहीं उन्हें तो सिर्फ लाभ कमाने से मतलब है। घर -घर नल तो पहुंच गये लेकिन जल के प्राकृतिक स्रोत सूख रहें है। पानी की खपत बढ़ी लेकिन जल संग्रहण को लेकर कोई ठोस नीतियां नहीं बनीं । आज तक सरकारें जल संग्रहण को लेकर उदासीन है।
भारत में पोखर और तालाबों की समृद्ध परम्परा रही है किन्तु संरक्षण न मिलने के कारण आज अनेक राज्यों में जल संकट स्थिति पैदा हो गयी है। बढ़ते जल संकट को देखकर आवश्यकता है जल संरक्षण की अपनी पारम्परिक तकनीकों से प्रेरणा लेकर नए विकल्प खोजने की। जिसमें सरकारें स्थानीय लोगों के साथ मिलकर काम करें तथा सामूहिक प्रयास द्वारा जल संग्रहण की दिशा में काम करने वालों को सम्मानित करके बाकी लोगों को भी इस दिशा में कार्य करने के लिए प्रेरित करें।
संदर्भ : आज भी खरे हैं तालाब – अनुपम मिश्र – गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित