झारखंड

जिन मुद्दों ने इतिहास रचा

 

झारखण्ड विधानसभा चुनाव के नतीजे इस बार चौंकाने वाले आये हैं। झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व वाली इण्डिया गठबन्धन को इस बार राज्य की जनता ने 56 सीटें नवाजी हैं, जिनमें से 34 सीटें झामुमो की, 16 काँग्रेस की, 4 राजद की और 2 माले की शामिल हैं। पूरी एनडीए सिर्फ 24 के आँकड़े पर सिमट गयी, जिसमें से भाजपा को 21, आजसू, जदयू और लोजपा (रामविलास) को 1-1 सीटें मिली हैं। एक सीट नये नेता जयराम को मिली है, उन्होंने डुमरी से झामुमो की सिटिंग मन्त्री को लगभग 10 हजार वोटों से हरा दिया है।

इस तरह इस चुनाव में झामुमो, काँग्रेस व राजद अब तक के अपने सर्वश्रेष्ठ और भाजपा सहित आजसू अपने निम्नतम प्रदर्शन पर पहुँच गयी है। पूरे राज्य में भाजपा को 28 में से सिर्फ एक आदिवासी सीट- सरायकेला हासिल हुई, जहाँ से पूर्व मुख्यमन्त्री चंपाई सोरेन चुनाव जीतने में सफल हुए हैं। इसके इतर एससी और ओबीसी ने भी कमोबेश भाजपा के द्वारा उठाए गये मुद्दों को नकार दिया। परिणामस्वरूप भाजपा राज्य में चारों खाने चित्त हो गयी और पहली बार किसी सरकार की सत्ता में लगातार वापसी हुई है।

भाजपा की तरफ से हार का मुँह देखने वालों में ऐसे नाम शामिल हैं, जिनकी जीत पर किसी को कोई शक नहीं था। नेता प्रतिपक्ष और बाबूलाल के बाद मुख्यमन्त्री पद के दावेदार के तौर पर देखे जाने वाले अमर कुमार बाउरी अपनी सीट चन्दनक्यारी से न सिर्फ हारे, बल्कि तीसरे स्थान पर भी रहे। इसी तरह मधु कोड़ा की पत्नी अपनी ही सीट जगन्नाथपुर से चुनाव हार गयीं। भाजपा की सबसे मजबूत सीटों में से एक कांके, जहाँ से आज तक भाजपा कभी नहीं हारी थी, हार गयी। पोटका से पूर्व मुख्यमन्त्री और पूर्व केन्द्रीय मन्त्री अर्जुन मुण्डा की पत्नी मीरा मुण्डा तमाम प्रयासों के बावजूद हार गयीं। लोबिन हेम्ब्रम, जो हाल ही में झामुमो छोड़ भाजपा में गये थे, अपनी परम्परागत सीट बोरियो से चुनाव हार गये। ऐसी ही कई अन्य सीटें हैं, जहाँ चौंकाने वाले परिणाम आये हैं।

असल में विधानसभा का यह पूरा चुनाव शुरुआत से ही इण्डिया गठबन्धन की बढ़त की तरफ इशारा कर था, यह अलग बात है कि कई राजनीतिज्ञ, पत्रकार और विश्लेषक इसे पढ़ने में चूक गये। अभी जो परिणाम आये हैं, इसके रुझान 2024 के लोकसभा में ही देखने को मिले थे, जब भाजपा राज्य की पाँचों आदिवासी सीटें हार गयी थी। जबकि लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा ने आदिवासी नेता और राज्य के प्रथम मुख्यमन्त्री बाबूलाल मराण्डी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया और लगभग एकाधिकार दिया था कि वे जिस तरह चाहें, संगठन को चलाएँ।

लोकसभा चुनाव में हुई क्षति की भरपाई के लिए भाजपा ने बाबूलाल के हाथ से कमान लेकर शीर्ष नेताओं के हाथ में दे दिया। बाबूलाल प्रदेश अध्यक्ष बने रहे, लेकिन सारे निर्णय पार्टी के आलाकमान के द्वारा लिये जाने लगे। विधानसभा चुनाव के पहले असम के मुख्यमन्त्री हिमंता बिस्वा सरमा, केन्द्रीय मन्त्री शिवराज सिंह चौहान और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने झारखण्ड में लगभग दो महीनों तक कैंप किया और राज्य के आदिवासियों को अपने पाले में करने की कोशिश की।

लेकिन जिन मुद्दों का चुनाव उन्होंने किया, वे कारगर साबित नहीं हुए और न ही वे स्वयं उन मुद्दों को बहुत दूर तक और देर तक पकड़ कर रख सके। मसलन भाजपा ने सबसे जोर-शोर से बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा उठाया, जिसके तहत उन्होंने दावा किया कि झारखण्ड के सन्ताल परगना इलाके (जो बंगाल के साथ अपनी सीमारेखा साझा करते हैं और बांग्लादेश की सीमा के करीब हैं) में बांग्लादेश से आए मुस्लिम घुसपैठियों ने कब्जा कर लिया है और वे आदिवासी महिलाओं से शादी कर उनकी जमीन हड़प रहे हैं। इस मुद्दे से भाजपा के दो हित पूरे होते हुए दिख रहे थे, पहला कि वे आदिवासियों के साथ खड़े दिखे, और दूसरा इसमें मुस्लिम विरोध भी शामिल था, जिसका यथोचित इस्तेमाल किया जा सकता था। लेकिन कई रिपोर्ट में यह दावा झूठा निकला और केन्द्र की सरकार ने झारखण्ड उच्च न्यायालय में दायर एक हलफनामे में यह बात स्वीकार की कि सन्ताल परगना में आदिवासियों की कम होती आबादी का सम्बन्ध पलायन तथा अन्य कारणों से हैं। इस हलफनामे में घुसपैठ का जिक्र ही नहीं था।

इधर हेमंत सोरेन ने भाजपा की ही बिसात का उपयोग कर ‘मुख्यमन्त्री मइयाँ सम्मान योजना’ की शुरुआत की, जिसके तहत राज्य की 18 से 50 वर्ष की महिलाओं को प्रति माह 1 हजार रुपये की आर्थिक मदद की बात कही गयी। योजना शुरू होते ही महिलाओं के खाते में पैसे जाने शुरू हुए, जिसका सीधा असर राज्य की महिलाओं के बीच दिखना शुरू हो गया। आनन-फानन में भाजपा ने बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा छोड़ ‘गोगो-दीदी योजना’ की घोषणा की और कहा कि भाजपा 1 हजार के बजाय, 2100 रुपये राज्य की महिलाओं को देगी। लेकिन तब तक मइयाँ सम्मान योजना अपना काम कर चुकी थी। भाजपा की गोगो-दीदी योजना ने बीच रास्ते में ही दम तोड़ दिया।

जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आता गया, भाजपा ध्रुवीकरण के पुराने फॉर्मूले पर वापस लौट आयी और यूपी के मुख्यमन्त्री ने झारखण्ड की चुनावी सभाओं में नारा दिया ‘बटेंगे तो कटेंगे’। हालांकि कुछ सीटों पर यह नारा काम भी आया, हिन्दू वोट एकजुट हुए और झामुमो की मजबूत सीटों में से एक -गढ़वा सीट- भाजपा जीत पाने में कामयाब हुई। गढ़वा में कुछ दिनों पहले दंगे जैसी स्थिति भी बनी थी, जिसकी याद लोगों के जेहन में ताजा थी, और ‘बटेंगे तो कटेंगे’ के नारे ने आग में घी का काम किया। इसी तरह पलामू की कुछ सीटें निकाल पाने में भी भाजपा कामयाब हो गयी। लेकिन ध्रुवीकरण का यह प्रयास बाकी सीटों पर बेकार साबित हुआ। दरअसल झारखण्ड में कभी भी इस तरह का मुद्दा कारगर नहीं रहा है। भाजपा हर बार यह समझने में भूल करती है कि यहाँ मामला हिन्दू और मुस्लिम के अलावा आदिवासियों का है, जिन्हें तफरके की राजनीति समझ नहीं आती। यह उनके जीन में ही नहीं है। भाजपा के इसी नारे और मुद्दे को यहाँ के आदिवासी 2024 के लोकसभा चुनाव में भी नकार चुके हैं, जब प्रधानमन्त्री ने कहा था कि आपकी सम्पत्ति छीन कर काँग्रेस उन्हें बाँट देगी, जो ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं।

दूसरी तरफ, झामुमो ने जिस तरह के मुद्दे उठाये, उसका कोई काट भाजपा के पास नहीं था। सरना धर्म कोड, ओबीसी आरक्षण, 1932 के खतियान पर आधारित स्थानीय नीति, सीएनटी एक्ट, एसपीटी एक्ट, पेशा कानून आदि पर भाजपा के पास मौन के अलावा कोई विकल्प नहीं था। यानी पूरे चुनाव के मुद्दे झामुमो तय करती रही। झामुमो के सवालों का भाजपा के पास कोई वाजिब जवाब नहीं था। इसलिए भाजपा अपना चुनावी पैतरा बदलती रही।

झामुमो के सवालों के जवाब में भाजपा ने अपने सभी बड़े नेताओं को मैदान में उतारा। प्रधानमन्त्री की करीब एक दर्जन सभाएँ और रोड शो हुए, गृह मन्त्री अमित शाह ने भी लगभग इतनी ही संख्या में सभाओं को सम्बोधित किया, रक्षा मन्त्री राजनाथ सिंह से लेकर योगी तक सभी आये और सभी ने अपनी ओर से पूरी कोशिश की। इस बीच हल्के-फुल्के तरीकों से लव जिहाद, लैंड जिहाद और वोट जिहाद जैसे शब्द भी चर्चा में आये।

13 और 20 नवम्बर के बाद जब चुनाव आयोग ने आँकड़े जारी किये, तो यह बात सामने आयी कि मतदान में महिलाओं ने पुरुषों के मुकाबले बहुत अधिक हिस्सा लिया है। इसके अलावा ग्रामीण इलाकों में मतदान का प्रतिशत बढ़ा। इन कारकों की सभी विश्लेषकों ने अपने-अपने हिसाब से व्याख्या की और सरकार बनने, न बनने के कयास लगाये। लेकिन वे भीतर पल रहे ‘मइयाँ सम्मान योजना’ के प्रभाव को भाँप नहीं पाये। नतीजा जब परिणाम आया तो तमाम एग्जिट पोल धराशायी हो गये और आकलन बेबुनियाद साबित हुए।

इस पूरे चुनाव में हेमंत की जीत के पीछे का सबसे बड़ा फैक्टर राज्य की लगभग 50 लाख महिलाएँ रहीं, जिन्हें सीधे तौर पर खाते में चार महीनों तक 1 हजार रुपये मिलते रहे। चुनाव के दरम्यान भी ये पैसे उनके खाते में गये और वोट डालते हुए उनके जेहन में यह बात रही। रोजगार के मुद्दे पर असफल झामुमो सरकार से जो नाराजगी युवाओं की थी, वह महिला वोटरों के कारण ढँक गयी। विपक्ष यानी भाजपा ने भी रोजगार के मुद्दे को अछूत समझा और युवाओं की कोई भी समस्या इस चुनाव में मुद्दा बन ही नहीं पायी।

राज्य की महिलाओं के लिए लागू ‘मइयाँ सम्मान योजना’ के प्रभाव को वोट में तब्दील करने का सबसे बड़ा श्रेय जाता है नवोदित राजनीतिक चेहरे और मुख्यमन्त्री हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना मर्मू सोरेन को। 9 महीने पहले जब कल्पना ने राजनीति में प्रेवश किया था, तब उनके पति यानी हेमंत सोरेन जेल में थे। अपनी पहली ही पारी में उन्होंने न सिर्फ गांडेय उपचुनाव जीता, बल्कि लोकसभा चुनाव के दौरान राज्य में पूरे इण्डिया गठबन्धन की अगुआई करती रहीं। लोकसभा चुनाव में राज्य की 5 आदिवासी सीटों पर इण्डिया गठबन्धन की जीत का श्रेय भी कल्पना की मेहनत और सांगठनिक कौशल को ही जाता है। अपने दम पर उन्होंने राँची में इण्डिया गठबन्धन की उलगुलान-न्याय रैली का आयोजन किया था, जिसमें राहुल गांधी, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, सहित गठबन्धन के सभी बड़े नेता आये थे।

इस बार भी कल्पना सोरेन ने पूरे चुनाव के दौरान 100 से अधिक सभाएँ कीं, जो राजनीति में किसी महिला द्वारा की जाने वाली सबसे अधिक सभाएँ हैं। उन्होंने मंचों से ऐसे मुद्दे उठाये, जिनसे राज्य की महिलाएँ आसानी से जुड़ पायीं और आदिवासी तथा पिछड़ी जातियों के लोगों ने भी उनपर भरोसा जताया। कल्पना का आकर्षण ऐसा था कि उन्हें सुनने के लिए अप्रत्याशित भीड़ जुटने लगी। गोड्डा में प्रधानमन्त्री की रैली से ज्यादा भीड़ कल्पना सोरेन की सभा में देखने को मिली। स्थिति ऐसी भी आयी कि इण्डिया गठबन्धन के सभी नेता चाहते थे कि कल्पना उनके क्षेत्र में सभा करें। उन्होंने भी काँग्रेस, राजद और माले के प्रत्याशियों के लिए भी राज्य भर में घूम-घूम कर वोट माँगे और अपनी सीट पर भी अच्छे अन्तर से जीत पाने में कामयाब हुई।

दरअसल कल्पना सोरेन भाजपा की गलती से उपजी हुई वह नेता हैं, जो वर्तमान में भाजपा के लिए हेमंत से ज्यादा घातक साबित हो रही हैं। ईडी प्रकरण में हेमंत के जेल जाने से झामुमो को दो फायदे हुए। पहला – हेमंत सोरेन और परिपक्व हो गये, उन्हें आदिवासियों की सहानुभूति मिली, वे और बड़े नेता बनकर उभरे और दूसरा – कल्पना सोरेन जैसी नेता का उदय।

राज्य की जनता कल्पना को मुख्यमन्त्री के तौर पर देखना चाहती है। इसके पीछे केवल भावुकता ही नहीं है, आधार भी है। कल्पना सोरेन में राजनीतिक समझ बहुत अच्छी है, नेतृत्व का लोहा वह मनवा चुकी हैं। सरकार चलाने का अनुभव उनके पास नहीं है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि वे राज्य का नेतृत्व करने में सफल हो सकती हैं। हेमंत सोरेन की तरह उनपर कोई भी आरोप नहीं हैं, किसी तरह का विवाद उनके साथ जुड़ा नहीं है। नये चेहरे का आकर्षण है, जिसे लोग स्वीकार कर चुके हैं।

हालांकि पूरा चुनाव चूँकि हेमंत सोरेन के नाम पर लड़ा गया है, मुख्यमन्त्री तो हेमंत ही बनेंगे, लेकिन कल्पना को सरकार या संगठन में बड़ी जिम्मेवारी दी जाने की पूरी उम्मीद है। हेमंत सोरेन के पास दो महत्त्वपूर्ण पद हैं – मुख्यमन्त्री और पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष पद की जिम्मेवारी। मेरा आकलन है कि इसमें से कोई एक पद (सम्भवतः अध्यक्ष पद) कल्पना सोरेन को दिया जाएगा। साथ ही सरकार में भी उनकी कुछ न कुछ हिस्सेदारी हो सकती है।

बहरहाल, झारखण्ड चुनाव में हार के बाद भाजपा अपने पूरे सांगठनिक ढाँचे को बदलने वाली है। प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर बाबूलाल मराण्डी पूरी तरह असफल साबित हुए। पहले लोकसभा और अब विधानसभा में भाजपा अपने सबसे कमजोर स्थिति में आ गयी है। आदिवासियों के बीच जनाधार खत्म हो गया है और संगठन बिखर रहा है। जबकि इन्हीं दो उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बाबूलाल मराण्डी को भाजपा में वापस लाया गया था।

पूरी सम्भावना है कि प्रदेश अध्यक्ष, संगठन मन्त्री सहित अन्य सभी पदों पर नये लोगों को जगह मिलेगी और नये सिरे से भाजपा अपनी रणनीति पर काम करेगी। मेरा व्यक्तिगत आकलन है कि भाजपा अब आदिवासी राजनीति से किनारा कर लेगी और पूरा ध्यान ओबीसी तथा दलितों पर लगाएगी। सवर्ण जातियाँ वैसे भी भाजपा के साथ हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि भाजपा आदिवासियों पर बात नहीं करेगी और आदिवासी नेताओं को टिकट नहीं देगी, लेकिन उनकी नजर अब ओबीसी पर टिक सकता है। उन्हें ही केन्द्र में रखकर मुद्दे गढ़े जाएँगे।

दरअसल भाजपा ने कुछ चीजों को पढ़ने में चूक की। पहली- कोल्हान में सीटें पाने के लिए उन्होंने मुद्दों का सहारा लेने के बजाय आयातित नेताओं पर भरोसा किया। चंपाई सोरेन, गीता कोड़ा, सरयू राय, बाबूलाल सोरेन आदि के भरोसे उन्हें लगा कि कोल्हान में वह 6 सीटें पा लेगी। लेकिन यह आँकड़ा तीन पर ही अटक गया, जिसमें से एक जदयू के द्वारा हासिल हुआ। संथाल में भाजपा 4 से घटकर 1 पर आ गयी। पलामू और दक्षिणी छोटानागपुर में भाजपा ने अपनी पारम्परिक सीटें गँवायीं और पूरा कुनबा 24 पर सिमट गया।

लेकिन सवाल है कि मीडिया के आकलन और विश्लेषण में भाजपा आगे क्यों दिख रही थी? जवाब है भाजपा द्वारा मीडिया प्रबन्धन का प्रभाव। इस बार भाजपा ने किसी भी अन्य चुनाव से अधिक खर्च मीडिया पर किया। राज्य की कई खबरिया चैनलों, डिजिटल पोर्टल पर स्पॉन्सर्ड कंटेंट के माध्यम से उन्होंने पूरा नैरेटिव अपने पक्ष में रखा। इसके लिए भाजपा की अन्य प्रबन्धन ईकाइयाँ सक्रिय रहीं और खूब पैसे भी खर्च किये।

चुनाव खत्म होने के बाद 90 फीसदी चैनलों में एनडीए की सरकार बनती हुई दिखाई दी, तमाम सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म पर भी भाजपा की जीत के दावे किए जाने लगे। हालांकि कुछ पत्रकार और विश्लेषक शुरुआत से झामुमो की बढ़त की बात कर रहे थे, ‘इण्डिया’ की जीत की तरफ इशारा कर रहे थे, लेकिन 56 के आँकड़े का अनुमान किसी ने नहीं लगाया था। खुद झामुमो के लिए भी यह सुखद आश्चर्य था।

इस चुनाव ने तीन दशक से अधिक पुरानी पार्टी आजसू को लगभग खत्म होने की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया। 10 सीटों पर लड़ी आजसू बड़ी मुश्किल से (231 वोट के मार्जिन से) एक सीट जीती, जबकि उनके सुप्रीमो सुदेश महतो सिल्ली से खुद हार गये। इसके पीछे जयराम महतो का फैक्टर साफ दिखता है, क्योंकि दोनों दल कुर्मियों की राजनीति कर रहे हैं। दिलचस्प है कि जयराम इस बार विधानसभा के अन्दर होंगे लेकिन सुदेश बाहर।

हालांकि जितना बड़ा जनाधार हेमंत को मिला है, उतनी ही बड़ी चुनौती भी उनके सामने है। 10 लाख युवाओं को रोजगार, महिलाओं को प्रति माह 2500 रुपये सहित अन्य घोषणाओं को वे कैसे पूरा करते हैं, और अन्य सहयोगी दल इन सब में उन्हें कितना समर्थन देते हैं, यह देखने वाली बात होगी। लेकिन इतना तो जरूर है कि इस चुनाव ने झारखण्ड की राजनीति की दिशा बदल दी है। इसने कई पुराने चेहरों को अपने पटल से मिटा दिया है और नये चेहरों को जगह दी है। इस चुनाव को मील का पत्थर मान कर भविष्य की राजनीति का आकलन-विश्लेषण किया जाएगा

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विवेक आर्यन

लेखक पेशे से पत्रकार हैं और पत्रकारिता विभाग में अतिथि अध्यापक रहे हैं। वे वर्तमान में आदिवासी विषयों पर शोध और स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। सम्पर्क +919162455346, aryan.vivek97@gmail.com
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