भाषा

भाषाई प्रभुत्व का दैनिक जीवन

 

“… इस लेख में हम भाषा की “हाई पॉलिटिक्स” की जगह इसके “एवरीडे” जीवन पर चिन्तन करेंगे। सामाजिक विज्ञान में इन दिनों अनेक सामाजिक परिघटनाओं की “नीचे से” या रोजमर्रा के माध्यम से पड़ताल पर जोड़ दिया जा रहा है। ये धारा “शक्ति” की संकल्पना में आए उत्तरआधुनिक मोड़ (पोस्ट्माडर्न टर्न) से प्रेरित भी है।

स्वयंसिद्ध है कि भारत एक बहुभाषाई, बहुसंस्कृतिवादी देश है। इसलिए राष्ट्र की संकल्पना में भाषा के प्रश्न का महत्वपूर्ण स्थान है। इस प्रश्न से आजाद भारत के बाद राष्ट्रनिर्माताओं को जूझना भी पड़ा और आज भी वह प्रक्रिया चल रही है। जलवायु परिवर्तन, आर्टिफ़िशियल इन्टेलिजन्स, भूमंडलीकरण जैसे बड़े आस्तित्ववादी संकटों के सामने भले ही भाषा का प्रश्न कभी-कभी हाशिये पर जाता हुआ प्रतीत होता है, लेकिन फिर कभी-कभी ये स्वयं को मजबूती से प्रस्तुत भी करता है। उदाहरण के लिए, हाल के दिनों में कर्नाटक में हिन्दी भाषी लोगों पर लगातार हमले हुए हैं। एक कार्यक्रम के दौरान जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में भी शुद्ध उच्चारण को लेकर बहस छिड़ी जो आगे चलकर ऐलीटिज़म की बहस से जुड़ गई। इससे ये तो स्पष्ट होता है कि भाषा का प्रश्न और इसकी राजनीति राख के नीचे दबी चिंगारी की मानिंद है जो कभी भी ईंधन मिलने पर फिर से भड़क सकती है।

इस बहस के दो केन्द्रीय बिन्दु हैं। पहला, उत्तर और दक्षिण भारत के बीच अन्य भाषाओं पर हिन्दी के आरोपण को लेकर बहस। और दूसरा, अँग्रेजी का वर्चस्व। इस विषय पर बहुत लिख-पढ़ा जा चुका है और ‘सबलोग’ के इस अंक में भी सम्भवतः इसपर और लेख होंगे। इसलिए इस लेख में हम भाषा की “हाई पॉलिटिक्स” की जगह इसके “एवरिडे” जीवन पर चिन्तन करेंगे। सामाजिक विज्ञान में इन दिनों अनेक सामाजिक परिघटनाओं की “नीचे से” या रोजमर्रा के माध्यम से पड़ताल पर जोड़ दिया जा रहा है। ये धारा “शक्ति” की संकल्पना में आए उत्तरआधुनिक मोड़ (पोस्ट्माडर्न टर्न) से प्रेरित भी है।

“भाषा का जनतन्त्र” या “भाषा का स्वराज” मूल में स्वतन्त्रता का सवाल है। यहाँ मैं स्वतन्त्रता को उस अर्थ में देख रहा हूँ जिसकी व्याख्या अमर्त्य सेन करते हैं। स्वतन्त्रता एक तरह से क्षमता और सम्भावनाओं से जुड़ी है। आज अगर देश-दुनिया में अँग्रेजी का वर्चस्व है तो वह सिर्फ शक्ति से स्थापित नहीं हुआ है। इटालियन मार्क्सवादी चिन्तक ग्रामशी के शब्दों में यह वर्चस्व “हेजेमनी” पर आधारित है। इसकी जड़ें सम्भवतः ब्रिटिश काल के शुरुआती दिनों तक जाती हैं जब भारत अस्मिता के संकटों का जवाब ढूंढ रहा था।

उस समय जो दो मौलिक जवाब ढूँढे गए वो इस प्रकार हैं। पहला, भारत एक महान सभ्यता रही है और इसके पास अपनी संस्कृति में पर्याप्त संसाधन हैं जिसके माध्यम से इसका पुनर्निर्माण हो सकता है और यह किसी भी मामले में पश्चिम से पीछे नहीं है। दूसरा, भारत को अगर अंधेरे से बाहर निकलना है तो उसे आधुनिकता को स्वीकार करना होगा। “मैकाले मिनट्स” ने इसमे निर्णायक बढ़त हासिल की। अपनी किताब “ज्ञान की राजनीति” में प्रोफेसर मणीन्द्र नाथ ठाकुर बताते हैं कि आजादी की लड़ाई के दौरान अँग्रेजी या पश्चिम के दबाव को झेलने की लड़ाई फिर भी दिखती है, लेकिन उत्तर उपनिवेशवादी भारत में तो ऐसा लगता है कि समाज ने पूरी तरह अँग्रेजी की गुलामी स्वीकार कर ली है। इस लड़ाई में सिर्फ अँग्रेजी का वर्चस्व स्थापित नहीं हुआ और न ही बस हिन्दी का क्षरण हुआ। इससे सभी भारतीय भाषाओं का ह्रास हुआ। भाषा का ह्रास उसके साहित्य और उसमे उत्पादित ज्ञान के ह्रास से भी जुड़ा है। नतीजतन, इस प्रक्रिया का असर अन्य भाषाओं में ज्ञान उत्पादन करने वाले लोगों पर भी पड़ा होगा।

आज कसबाई बसाहटों में स्थित ‘पब्लिक स्कूल’ से लेकर विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों तक अँग्रेजी का दबदबा है। कुकुरमुत्ते की तरह कसबाई स्तर पर अँग्रेजी मीडियम के स्कूल खुल रहे हैं। ये और बात है कि वहाँ शिक्षक किस योग्यता के होते हैं, इसपर बहस करना बच्चों और उनके अभिभावकों के बस की बात नहीं। उनके लिए अपने बच्चों को अँग्रेजी मीडियम में पढ़ाना एक सामाजिक सम्मान का विषय बन जाता है। इसमें पड़ोस के स्तर तक सामाजिक दबाव काम करता है जो विधिक शक्ति का प्रयोग किए बगैर सामाजिक आचरण को अनुशासित करता है।

बहुत से बच्चे ऐसे मिलते हैं जिनको शरीर के अंगों, फलों, सब्जियों का नाम अँग्रेजी में पता होता है लेकिन हिन्दी या स्थानीय भाषा में नहीं। अक्सर बच्चे दादा-दादी की पुरानी कहानियाँ समझ नहीं पाते क्यूंकि उसमे ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है जो एक विशेष ऐतिहासिक-सांस्कृतिक संदर्भ से निकलते हैं। इसका असर ये होता है कि बच्चे इस “ओरल हिस्ट्री” की परिवार के स्तर पर होने वाले प्रयोग से ज्ञान अर्जन करने से वंचित होने लग जाते हैं। मेरे विचार से सूक्ष्म रूप से यही से बच्चों का सामाजिक इतिहास, संस्कृति और मानवीय संवेदना से अलगाव शुरू हो जाता है।

शिक्षा का अँग्रेजी में होना सबअलटर्न समुद्र में एक ऐलीट टापू बनाने का काम करता है। ये प्रक्रिया अँग्रेजी माध्यम के स्कूलों में हिन्दी या अन्य भाषा से होने वाले बर्ताव के साथ-साथ चलती है। छोटे-छोटे शहरों में ये प्रवृत्ति देखने को मिलती है कि अभिभावक बच्चों को अँग्रेजी में शिक्षा देकर उनको एक अलग ‘क्लास’ में सिचुएट करना चाहते हैं। लिहाजा, समाज के वंचित वर्ग से आने वाले लोगों से उनका सजह मानवीय संवाद नहीं हो पाता और न ही उनका भावसंसार कहीं भी ओवरलैप करता है। अभिभावक भी ये बताने में गर्व महसूस करते हैं कि हमारे बच्चे का पसंदीदा विषय साइंस और गणित है। भाषा और साहित्य को स्कूली शिक्षा के हाशिये पर रखा जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में भाषा को बस सम्प्रेषण के एक माध्यम तक सीमित करके देखा जाता है। इसके साहित्य, उसमे छिपे मूल्यों के बहस आदि को परदे के पीछे धकेल दिया जाया है। ये प्रक्रिय आदमी को ‘एकविमीय’ बनाती है।

भाषा की इस गैरबरबारी में सामाजिक श्रेणीकरण के सूत्र भी छिपे हैं। समाज के वो परिवार जो अनेक कारणों से अपने बच्चों को अँग्रेजी मीडियम स्कूल में नहीं भेज पाते, वो स्वयं भी इस बात को लेकर कुंठित दिखाई पड़ते हैं और उनकी कुंठा उनके बच्चों में संचारित होती है। वो अपना जीवन ही “बैकफुट” से शुरू करते हैं, एक पराजित मानसिकता के साथ। हिन्दी बोलने वाले राज्यों में अक्सर ऐसे बच्चे मैट्रिक के बाद अँग्रेजी के लिए संघर्ष करते दिखते हैं। लगभग हर प्रतियोगी परीक्षा में अँग्रेजी का एक पत्र तो होता ही है लेकिन उसको क्वालीफाई करना भी आसान नहीं होता। यहाँ अँग्रेजी मीडियम से पढे बच्चे एक बढ़त के साथ मैदान में आते हैं। धीरे-धीरे ये आंशिक बढ़त संरचना का हिस्सा बनकर संस्थागत होती चली जाती है।

यहाँ इस बात को स्पष्ट करना जरूरी है कि मेरा आशय यह नहीं है कि रोजमर्रा के जीवन में अँग्रेजी के अदृश्य दबाव को सिर्फ एक मानसिक दृष्टिकोण को बदलकर झेला जा सकता है। न ही ये कहने का प्रयास है कि अँग्रेजी का वर्चस्व सिर्फ एक ‘डिस्करसिव’ समस्या है। निश्चित रूप से अँग्रेजी का वर्चस्व एक स्थूल समस्या है। इसके भौतिक परिणाम हैं। ये राजनीतिक अर्थव्यवस्था से जुड़ा मामला है। लोकजीवन में ये बात अक्सर सुनने को मिलती है कि चीन कैसे अपनी भाषा की रक्षा कर पा रहा है, भारत चाहे तो वो भी कर सकता है। ऐसी राय रखने वाले शायद ये नहीं देख पाते कि ऐतिहासिक रूप से कोई भी समाज अपनी संस्कृति की रक्षा उसी हद तक कर पाता है जिस हद तक वो अपनी आर्थिक व्यवस्था को लेकर आज की वैश्विक अर्थव्यवस्था में आत्मनिर्भर है। चीन जिस गति से और जिस स्तर पर आर्थिक मामलों में दुनिया पर छाया है, उसके पास वो शक्ति है कि वो अपने शर्तों पर अन्य देशों से समझौता कर सकता है।

निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि आज जिस स्थिति में अँग्रेजी के साथ अन्य भाषाओं का सम्बन्ध है, वो गैरबराबरी का है। इस सम्बन्ध के निर्माण का अपना लम्बा इतिहास रहा है। इसके पीछे आर्थिक और सांस्कृतिक कारण रहे हैं। समय के साथ ये एक जीवनदृष्टि के रूप में आम सामाजिक जीवन का हिस्सा बन चुकी है। जरूरत है ऐसी परिस्थिति पैदा करने की जिसमें हिन्दी या अन्य गैर-अँग्रेजी भाषा में अध्ययन-अध्यापन घाटे का सौदा न रहे। इसके लिए जो संरचनात्मक स्थिति पैदा करनी है, उसके लिए राज्य की भूमिका अहम है। भाषाओं को बचाना बहुत जरूरी है क्यूंकि इससे हमारी अस्मिता, कुंठा, अर्थ के सवाल जुड़े हैं

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राहुल यादुका

लेखक आईआईटी बॉम्बे से सिविल इंजीनियरिंग में बीटेक, फिर दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में एमए और अंबेडकर यूनिवर्सिटी दिल्ली में कोशी बाढ़ नियंत्रण नीति पर पीएचडी थीसिस जमा कर चुके हैं। संपर्क +918826324382, rahulyaduka353@gmail.com
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