भाषा

भाषा का स्वराज: स्मृति से संस्कृति तक

 

माँ कभी दोपहर के भोजन के बाद फुर्सत पाती हैं तो अपने बचपन की कहानियाँ सुनाने लगती हैं। मैंने उन्हें सदा ही माँ की तरह देखा है। यह सोचना कि उन्होंने कभी मेरी तरह स्वच्छंदता और उद्दंडता के आधारों पर स्वप्न देखे होंगे, रूठ और ठुनक कर बातें मनवाई होंगी और अपनी खुद की एक माँ से उच्छृंखलता की होगी, कपोल कल्पित मालूम पड़ता है। मैनें हमेशा ही शब्दों के आधार पर मानसिक चित्र रेखांकित करने को अपना हुनर माना है। पर माँ की स्मृतियों के आधार पर उनके मायके का मानसिक भ्रमण कर पाना मेरे लिए माँ के बचपन की कल्पना करने जितना ही कठिन रहा है।

आम की जो खास किस्म नाना की सबसे बड़ी अमराई के अलावा पूरे इलाहाबाद में कहीं नहीं मिलती थी, उसका नाम मैंने किसी आम की पेटी के लेबल पर नहीं पढ़ा। खेतों से आलू खोद कर निकालने वाले वे जानवर जिन्हें भगाना माँ और उनकी बहनों के लिए खेल था, मुझे यूनेस्को की किसी वेबसाईट पर नहीं दिखते। बागों के उन पेड़ों के नाम, जिनकी छाँव में माँ के कुलदेवता बसते हैं, किसी शब्दकोष में नहीं मिलते।

मैं इन्हीं सवालों में उलझी रह जाती हूँ और माँ सदा एक ही वाक्य के साथ स्मृतियों का ये झंझावात उम्र के निर्वात में खींच लेती है- “जी अगराए जाता है, बहुत काम पड़ा है अभी।” माँ चाय की चुसकियाँ लेती रहती है और मैं उनकी आँखों में उनके हृदय के अगराने के मायने खोजती रहती हूँ।

ज्ञान, संस्कृति एवं सभ्यता: भाषा की चुनौतियाँ   

भारतीय ज्ञान परम्परा के अन्तर्गत श्रुति, स्मृति एवं अनुभव ज्ञान के आदान प्रदान के प्रमुख माध्यम माने गये हैं। आजन्म, अपने समकालीन परिवेश का ज्ञान मनुष्य को इन्हीं माध्यमों से प्रदान किया जाता है। यह प्रक्रिया समाजीकरण तथा व्यक्तित्व निर्माण का मूल आधार है। इस प्रक्रिया में समाजीकरण के विभिन्न कर्ताओं जैसे कि माता-पिता, विद्यालय, सहपाठियों तथा विविध संचार माध्यमों इत्यादि की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। वर्तमान परिवेश में ज्ञान के उत्पादन, प्रत्योत्पादन, प्रसार एवं भंडारण के अनेक संचार संसाधन उपलब्ध हैं। इसके बावजूद मौजूदा पीढ़ी की पर्यावरण के प्रति उदासीनता चिंताजनक है। उदाहरणस्वरूप, इंटरनेट प्रणाली की तकनीकी विशेषताओं का गूढ ज्ञान रखने वाली इस पीढ़ी के लिए बरगद और पीपल के वृक्षों में अन्तर कर पाना मुश्किल है।

यह मात्र ज्ञान की प्रासंगिकता या व्यावहारिकता का प्रश्न नहीं है। यह स्थानीय ज्ञान प्रणालियों के अस्तित्व तथा विस्तृत तौर पर सम्पूर्ण पर्यावरण तंत्रों के भविष्य का मुद्दा है। भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग भारतीय सभ्यता एवं ज्ञान परम्पराओं के ह्रास का आरोप पश्चिमी सभ्यता के वर्चस्व पर मढ़ने में अग्रसर रहा है। हालाँकि यह कुछ सीमा तक सत्य भी है, किन्तु इसे पूर्ण सत्य मान कर अपने उत्तरदायित्व का परित्याग कर देना निंदनीय है।

पश्चिमी ज्ञान प्रणालियों में इंद्रिय अनुभव आधारित शिक्षण पर ज़ोर डाला जा रहा है जिसके अन्तर्गत बच्चे स्पर्श, दृष्टि, स्वाद इत्यादि माध्यमों से सीखते हैं। हमारे यहाँ पारम्परिक रूप से घरों पर, विद्यालयों में इसी प्रकार शिक्षा प्रदान करना प्रचलित था। किन्तु इसकी जगह अब चिंतनहीन अध्ययन ने ले ली है। अन्य कई कारणों के अलावा, अँग्रेजी भाषा का वर्चस्व एवं महतीकरण ऐसे प्रचलन का प्रमुख कारण हैं।

जहाँ एक ओर समाज एवं बोलचाल का माध्यम अधिकांशतः व्यक्तियों की मातृभाषाएँ है तो वहीं शिक्षा एवं व्यवसाय के सार्वजनिक क्षेत्र में अँग्रेजी का वर्चस्व सर्वमान्य है। इस विभाजन के कारण ज्ञान के रैखिक एवं क्षैतिज प्रसार में विभक्तियाँ उभरी हैं।

रैखिक तौर पर, समाज के पर्यावरण एवं परिवेश से जुड़ा जो व्यावहारिक ज्ञान एक पीढ़ी द्वारा उसकी आगामी पीढ़ी को प्रदान किया जाता था, उसे अब व्यावसायिक शिक्षा के मापदंडों पर तौला जा रहा है। बगीचों में खेलते हुए जो बच्चे अपने घर के बड़े बूढ़ों से पेड़ों, पौधों और पशु-पक्षियों के नाम पूछते और सीखते थे, वह शिक्षण प्रक्रिया अब मात्र पुस्तकों और वीडियो तक सीमित हो गयी है। पुस्तकों का वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण परीक्षा की परिसीमा में ज्ञान एवं जिज्ञासा का दम घोंट देता है। अपने आसपास के पर्यावरण को संभावनाओं एवं कल्पनाओं के विस्तार के रूप में देखने की बजाय, बच्चे पूँजीवादी विधान के अनुसार उसे अंकों और व्यावसायिक अवसरों के पलड़े पर रखने लग जाते हैं। उस पलड़े के संसार में गुलाब की केवल एक किस्म है जिसका चित्र ‘रोज’ की परिभाषा के तौर पर छपा है। अपने नाम या पत्तियों की अनुपम नक्काशी के परे हर पेड़ ऑक्सिजन, लकड़ी आदि उपभोग की वस्तुओं का निष्क्रिय स्रोत मात्र है।

क्षैतिज तौर पर, अंग्रेज़ी वर्चस्व से ग्रसित समाज भेदभाव एवं असमानता पर आधारित विसंगतियों एवं पूर्वाग्रहों के संचरण की ओर अधिक प्रवृत्त हो गया है। सरल शब्दों में कहा जाए तो, न केवल ज्ञान, बल्कि संस्कृति, सभ्यता एवं परम्परा के कई अनमोल तत्त्व हैं जो भारतीय भाषाओं में होने के कारण विलुप्तप्राय होने का दंश झेल रहे हैं। लोक-साहित्य, स्थानीय औषधि एवं उपचार से सम्बन्धित ज्ञान परम्पराएँ, लोक-इतिहास, नीति, धर्म, कला इत्यादि पर आधारित ज्ञान एवं कार्यपद्धति प्रणालियाँ आदि ज्ञान की कितनी विस्तृत शाखाएँ हैं जो एक विशेष भाषाई वर्ग तक सीमित होकर रह गईं हैं। संचार माध्यमों के द्वारा इनके संरक्षण एवं प्रचार प्रसार के प्रयास कई क्षेत्रों में सफल रहे हैं। किन्तु, श्रुति, स्मृति एवं अनुभव के पारम्परिक माध्यमों से इनके आदान प्रदान का चलन खत्म होता जा रहा है। इस चलन के अभाव का परिणाम दो स्तरों पर होने वाला ध्रुवीकरण है।

एक स्तर पर अंग्रेज़ी वर्चस्व के समक्ष यह सभी परम्पराएँ हाशिए पर रह रहे विभिन्न वर्गों की प्रतीकात्मक निधि बन कर रह गईं हैं। इनमें स्त्रियाँ, वृद्ध, अल्पसंख्यक, आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग तथा आदिवासी इत्यादि शामिल हैं। बौद्धिक संपत्ति जैसे विशेष अधिकारों के नाम पर इनके पतन की प्रदर्शनी को उपभोक्तावादी अर्थव्यवस्था के मनोरंजन की भेंट चढ़ाना स्वीकार्य ही नहीं, तर्कसंगत भी है। दूसरी ओर, संभ्रांत बुद्धिजीवियों का एक वर्ग इस परिस्थिति का लाभ उठाकर इनकी विसंगतियों का दोहन करने में रत है। संसाधन, प्रतिनिधित्व एवं कानूनों के नाम पर भाषाई वर्गों को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा किया जा रहा है। जहाँ एक संयुक्त चुनौती की संभावना बहुत पीछे छूट चुकी है, वहीं एक दूसरे की पराजय को सीढ़ी मानकर आगे बढ़ने की मानसिकता नये प्रकार के पूर्वाग्रहों और असमानताओं को जन्म दे रही है।

भाषा का स्वराज: व्यक्तिगत एवं सामाजिक पहल

ऐसे दौर में भाषाई स्वराज की बात करना यदि आपके लिए मात्र अपनी भाषा बोलने या उसे राजभाषा का तमगा देने तक सीमित है, तो यह विचारों के संकुचन का परिचायक है। वैश्वीकरण पर आधारित सांस्कृतिक आदान प्रदान यथार्थ है तथा इसके प्रभावों से परे रहना सम्भव नहीं है। जिस तेज़ी से संस्कृतियाँ परस्पर संवाद कर परिवर्तित हो रहीं हैं, उतनी सख्ती से यदि उनके संरक्षण का प्रयास किया गया तो परिणाम मात्र पूर्वाग्रह एवं संदेह तथा बदतर हालातों में, हिंसा होंगे। कानूनी रक्षा तन्त्र से भी अधिक अपेक्षाएँ रखना मात्र आपसी संघर्ष की आग में घी डालने का काम करेगा।

चंद एक प्रबुद्धजनों की गोष्ठियों में भाषा के संरक्षण की न योजना बनाई जा सकती है, न इस हेतु उद्यम किया जा सकता है। जब तक आगामी पीढ़ी के लिए मातृभाषा अतीत की स्मृति मात्र बनी रहेगी तथा जब तक भाषा का मुद्दा केवल संविधान में प्रदत्त एक पद का मुद्दा बन कर रहेगा, भाषा के स्वराज की संकल्पना कल्पना मात्र तक सीमित रहेगी।

स्वराज का आधार स्वयं का उद्यम एवं समझ है। भाषा के स्वराज की पहल का प्रथम पड़ाव यह अनुभूति है कि यह एक साझा संघर्ष है जिसमें परस्पर सहयोग एवं संयुक्त प्रयास के द्वारा ही सफलता पाई जा सकती है। न केवल सामूहिक स्तर पर, अपितु पारिवारिक एवं व्यक्तिगत स्तर पर भी हमें इस सहयोग का प्रदर्शन करना होगा। भेदभाव पूर्ण विसंगतियों एवं कुत्सित पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर हमें परस्पर निर्भरता के महत्त्व को स्वीकार करना होगा।

यह समझना आवश्यक है कि भाषा एक पृथक संसाधन नहीं है अपितु सभ्यता, संस्कृति, समाज एवं पर्यावरण के पारिस्थितिकी तन्त्र की संलग्नक है। किसी भी भाषा का पतन इस तन्त्र की अन्तर्निर्भरता के ह्रास का कारण बनेगा। यह अन्तर्निर्भरता हमारे अस्तित्व का आधार है। भाषा का स्वराज मात्र अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता नहीं है। यह अपनी साझा स्मृति एवं संस्कृति पर हमारे अधिकार की पुष्टि करने का आह्वान है। यह सभ्यता की प्राकृतिक चेतना के पुनरुत्थान का प्रयास है जो निश्चय ही समाज के अन्तिम व्यक्ति तक के लिए सुगम है।

निजी तौर पर, यह एक आशा है कि एक दिन, अपनी माँ की आँखों में अंकित पत्तों की एक नक्काशी मात्र से मैं उस पेड़ को खोज लूँगी जिसकी छाँव में देवता बसते हैं। और एक घनी अमराई की खुशबू से छाँट कर माँ को वो आम खिलाऊँगी जो नाना की अमराई के परे पूरे इलाहाबाद में कहीं नहीं मिलते थे

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शाम्भवी तिवारी

लेखिका राजनैतिक अध्ययन केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं। सम्पर्क +918700613403, tiwarishambhavi61@gmail.com
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