हाँ और ना के बीच

जिन्दगी का आस्वाद अपने प्याले से

 

जब सोनिया ने हमारी मित्र-मंडली को ज्वाइन किया, हम मंडी हाउस के एक चबूतरे पर छोटे-छोटे गिलासों से बिना छलकाए चाय पीने की कोशिश करते हुए गुजरात की क्षमा बिंदु के ‘स्व-विवाह’ पर अपनी-अपनी राय झोंक रहे थे। हाय-हैलो के बाद अधबीच छूटे मुद्दे पर बात आगे बढ़ी। सोनिया के माथे की सलवटों से जाहिर था कि वह इस बारे में कुछ नहीं जानती। वह ध्यान से इंदु को सुनती रही जो एक दुत्कार-भाव के साथ कह रही थी – “’पब्लिसिटी स्टंट है यह! या बिना किसी दायित्व के मार्केट और ग्लैमर की चकाचौंध में डूबी युवा पीढ़ी की सनक। छड्डो यार इस बेमतलब की बात को।“ यह सुनकर इतनी देर से शांत बनी मैं और चुप न रह सकी- “’पब्लिसिटी स्टंट’ शब्द स्त्रियों के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल होने लगा है इन दिनों। यह शब्द किसी भी स्त्री के लिए प्रयोग होने पर मन अडोल सा हो जाता है। कितनी ही मर्मांतक घटनाएँ मन में कौंध जाती हैं।

प्रसिद्धि के शिखर पर आसीन किसी शख्स पर बलात्कार जैसे जघन्य जुर्म का आरोप हो तो भी कितनी आसानी से न्याय से मुँह फेर कर मामले को लड़की के ’पब्लिसिटी स्टंट’ के खाते में डाल दिया जाता है। परमुखापेक्षी हिन्दी समाज से यह उम्मीद करना तो फ़िज़ूल ही है कि वह स्थापित ‘देवमूर्तियों’ के बारे में कुछ प्रतिकूल सुन-समझ सकेगा। लेकिन हम एतराज़ और इल्जाम के बाजारू शब्दों के ढेलों से इसकी सम्भावना ही कुचल देते हैं। अन्यथा कम से कम न्यूनतम संवेदना के साथ मासूम बच्ची की ओर से सोचकर देखने, पीड़ित स्त्री के मनोविज्ञान में झाँकने की ईमानदार कोशिश की जा सकती। स्त्री यथास्थिति से उलट कुछ भी करे, उसे ’पब्लिसिटी स्टंट’ कह दिया जाता है। शादियों में आडम्बरपूर्ण अनुष्ठान और दिखावे सबके लिए गलत हैं।

यह समाज के सामूहिक चेतन का दोष है और इसमें सुधार की बातें काफी समय से की जा रही है। ‘गुनाहों के देवता’ समेत हिन्दी की तमाम रचनाएँ इन सुधारों को अपरिहार्य बताती हैं और इस बात पर अचरज और अफसोस जताती हैं कि विवाह समारोह दूल्हे-दुल्हन से भी महत्वपूर्ण हो जाता है। जो समय और संसाधनों की इस फिजूलखर्ची को गलत समझते हैं, वे भी किसी कमजोर यानी समाज के अनुमोदन से वंचित शख्स की नब्ज दबाकर अपना दायित्व पूरा मान लेते हैं। रंजना, तुम्हारी असहमति यह है कि इतना महँगा लहँगा पहन कर, इतना खर्चा कर आत्मप्रेम का ढिंढोरा पीटकर अपने साथ रहना शुरू करने में क्या तुक है है। क्या तुम बताओगी कि तुम्हारी शादी में कितना खर्च हुआ था?“

“मेरी ही क्यों, यहाँ मौजूद सबकी शादियों में घर वालों ने अपनी सीमा से अधिक खर्च किया था। अपुन तो उनमें से हैं कि साफ बोलो और सुखी रहो। साफ–सच्ची बात यह है कि वर पक्ष ने हमारी हैसियत का और खर्चों के बजट का अनुमान लगाकर, उस आधार पर ही हमें चुना। पुरुष किसी अन्य स्त्री के साथ प्रेम में बंधा हो तो भी अपनी सामाजिक हैसियत के अनुरूप पत्नी पाने की लालसा में अपनी कीमत आँकता है। प्रेमिका का पलड़ा हल्का हुआ तो सही वजन की ओर मुड़ जाता है। मगर जिसे दूल्हाविहीन शादी करनी हो, उसे किसके दवाब में यह सब करना था? अब भी उसे क्या जरूरत पड़ेगी खुश दिखने की कोशिशों के अनवरत सिलसिले के रूप में वस्त्र-परिधान, साज-सज्जा, प्रसाधन में खुद को उलझाए रखने की?” रंजना ने यह जवाब दिया तो उसकी फेसबुक पोस्ट को याद करते हुए मैंने सवाल दागा, “ठीक, शादी के दिन को छोड़ें। मगर हर सालगिरह पर जो इतनी तड़क-भड़क और शान-शौकत वाली फोटो डालती हो और शादी की पच्चीसवीं सालगिरह पर भव्य समारोह की योजनाएं बनाती रहती हो, उसे क्या कहा जाए?”

बीच में ही सोनिया बोल उठी, “रंजना क्या कह रही थी तुम? दूल्हा-विहीन शादी?” “उसे वर नहीं चाहिए था मगर शादी के उत्सव की लालसा थी। अनुष्ठान का शौक पूरा करना था।” मधु ने कहा तो सोनिया को गुजरात की क्षमा बिंदु द्वारा शादी के सारे अनुष्ठान कर खुद से शादी करने के प्रसंग की जानकरी हुई। बीच-बीच में सब अपनी सूचनाएं जोड़ते जाते। कोई बताता उसने दर्पण में अपनी छवि को चूमा। खुद ही दूल्हा बनी, खुद ही दुल्हन। अपने नाम का सिंदूर भी डाला। किसी ने जोड़ा कि पंडित उसकी शादी घड़े, पेड़ … निर्जीव चीजों से करवाने के लिए तैयार था मगर ‘आत्म-विवाह’ सुनकर वह बिदक गया। फिर भी क्षमा ने पूरे विधि-विधान से फेरे लिए, कसमें लीं। हनीमून के लिए एक सुंदर जगह गई। एक सेलीब्रिटी की तरह मीडिया को दूर रखा। समाज और नेताओं का विरोध तो स्वाभाविक ही था। उनका कहना था कि वह हमारी संस्कृति को दूषित कर रही है। यह परम्पराओं का उपहास है, विवाह संस्था का उल्लंघन है।

…सब अपने-अपने अनुभव जोड़ ही रहे थे कि बीच में ही सोनिया की तल्ख आवाज फूट पड़ी – “यही, यही है सबके लिए समस्यात्मक पहलू कि इससे संस्कृति, यथास्थिति में छेद हो रहा है। अविवाहित स्त्रियों को परंपरा कायम रखने में जोतने की सबकी मंशा को उसने बेअसर जो कर दिया। कोई स्त्री अपनी रचनात्मकता, आजादी को जीने या किसी भी वजह से विवाह के पचड़े में न पड़ना चुने तो वह सबको ऐसी कोरी स्लेट नजर आती है, जिस पर कुछ भी लिखा जा सके। सब अपनी-अपनी जरूरत के छोटे बड़े अनगिनत काम उसे सौंपते रहते हैं, वह भी अपनी सुविधानुसार। सुबह, शाम दोपहर, रात, देर रात। उनका कोई समय उनका नहीं समझा जाता। रिश्तेदार और परिजन तो उसके हर पल पर अपना हक समझते हैं, इस हद तक कि उसे यह सोचने का अवकाश भी नहीं मिल पाता कि इससे बहुत कम ऊर्जा में तो विवाह ही निभ जाता। दुनिया गृहस्थ-जनों के एकांत में सेंध लगाने से कुछ परहेज़ करती है, लेकिन एकाकी स्त्री के जीवन में निजी पल समाज के वर्तमान ढाँचे में असंभव से जान पड़ते हैं।

अविवाहित स्त्री की सारी ऊर्जा परंपरा को पुष्ट करने, पुरुष सदस्यों के विकास में जबरन लगाई जाती है। कुछ कसर रह जाए तो वह शैक्षणिक संस्थाओं का सामंती ढाँचा पूरा कर देता है। अकादमिक वृत्त में स्त्री की प्रतिभा और रचनात्मकता वरिष्ठों और पुरुष समकक्षों को चमकाने के लिए इस्तेमाल कर ली जाती है। किसी पुरुष संबंधी के बिना उसे सीखने-सिखाने के स्पेस भी नहीं मिलते। ऐसे में अगर स्वस्थ प्रतियोगी परीक्षा न हो तो अव्वल तो नौकरी उसे मिलेगी नहीं, मिलेगी तो अतिरिक्त जिम्मेदारियों से लाद दी जायेगी। उसके बोझ तले उसके लिए सृजन का सुख तो दूर, स्वास्थ्य का ध्यान रखना तक दुष्कर हो जाता है। हमारे समाज में स्त्री का स्व-मूल्य तो नगण्य ही होता है। उसका सामाजिक पद रिश्तों से संदर्भित होता है। अन्यों से सम्मान, गरिमा और देख-रेख न मिलना स्त्री का अपना चुनाव था तो इसे लेकर कोई शिकायत नहीं। मगर उसे अपने जीने के मायने खुद अपने भीतर खोजने पाने के लिए तो अकेला रहने दिया जाना चाहिए। उसके ‘स्व’ का थोड़ा सा हिस्सा तो उसके लिए रहने दें।”

आमतौर पर मितभाषी सोनिया का यह रूप देखकर हम सब भौंचक्के थे और कुछ शर्मिंदा भी। मधु ने कहा “हाँ यार, यह कुसूर तो हमारा भी है। रात के दो बजे भी जरूरत पड़ी तो तुझे फोन कर लिया। घर में कुछ खटपट हुई तो बैग उठाकर तेरे घर पहुँच गए। कभी तुम्हारा रूटीन नहीं पूछा।” सोनिया ने रुँआसे स्वर में कहा – “यार तुम पुरानी दोस्त हो, फिर भी मैं तुम्हें और अपनों को यह एहसास नहीं करवा पाई कि इस तरह जीने के लिए घर-बाहर एक बड़ी कीमत चुकानी होती है। हर संभावना खुली थी, लेकिन उसे नकारने के फैसला लिया तो इसके पीछे कुछ तो सोच रही होगी। किसी ने इतना तक न सोचा कि हम इसकी सारी ऊर्जा लगा भी कहाँ रहे, उसी जीवन-पद्धति की बाधा दूर करने में, जिसकी सुविधाओं को इसने अपने लिए नकारा है। मगर लेखन में ‘निजता’ और ‘आजादी’ की बड़ी बड़ी बातें करने वाली लेखिकाएँ भी किसी भी समय घंटी घनघना देती हैं।

“सोचती हूँ कि काश मेरे दिमाग में क्षमा बिंदु की तरह अपने आप से शादी करने की सार्वजनिक घोषणा करने का विचार आया होता तो जिन्दगी जाया होने से शायद बच जाती।” उसने फिर दोहराया कि “ किसी ने नहीं सोचा या पूछा कि मैं क्या चाहती हूँ। वे यह कैसे समझ सकते कि अपने समय को सार्थक उपक्रमों में बदलने के अपने मूल्य-बोध को मौका देना चाहती हूँ।” रंजना बोली “हमारी शादी में तो सोनिया, तू भव्य आयोजनों के खिलाफ होने के कारण नहीं आई। अपने से शादी कैसे करती?” सोनिया ने जवाब दिया कि “सादगी मेरा जीवन मूल्य है तो दूल्हा कोई पुरुष होता या मैं खुद–शादी सादगी से ही होती। मगर समाज को संदेश जाता कि मैंने अपने साथ जीना चुना है। अपने समय की मिट्टी से, अपने स्वप्नों से कुछ सार्थक रचने का।

मेरी जिन्दगी कोरा कागज़ नहीं जिस पर कोई भी अपनी कहानी लिखकर चलता बने, ऐसी कहानी जिसमें एक शब्द भी मेरा न हो। जिस समाज में ‘मैं जिंदा हूँ’ कहने के लिए मरना तक पड़ जाता है, उस समाज में “मैं हूँ और अपने लिए, अपने मुताबिक जीने के लिए भी” कहने के लिए सामाजिक अनुष्ठान करने में क्या हर्ज है? वह भी एक स्त्री के लिए, जिसे घर-बाहर का सारा प्रशिक्षण दूसरों के लिए खुद को खपाने का मिलता है। स्त्री शादीशुदा न हो तो पुरुषों को उपलब्ध लगती है और स्त्रियों को खतरा। क्षमा बिंदु ने सबको यथोचित संदेश अपने निराले अंदाज में दे दिए। अगर उसका मकसद बाहरी चमक-दमक से प्रभावित हो भी तो भी मेरी शुभेच्छा है कि उसे अपना भरपूर साथ मिले। स्त्री के उस निजी ‘समय-सरोवर’ में रचनाओं और सोच के सबसे सुन्दर पुष्प जो खिला करते हैं।

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रश्मि रावत

लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में अध्यापन और प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में नियमित लेखन करती हैं। सम्पर्क- +918383029438, rasatsaagar@gmail.com
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