श्रीलंका और चीन का दाव
किसी भी सत्ता की सफलता या असफलता को जाँचने के दो प्रमुख पैमाने होते हैं, आंतरिक दशा और विदेशों से सम्बन्ध। आंतरिक दशा सभी को पता है। विदेशों से सम्बन्धों की पड़ताल यहाँ हम करेंगे।
आदर्श विदेश नीति वह होती है जो सरकारों के बदलने पर आमतौर पर बदलती नहीं क्योंकि सरकारें अल्पकालिक होती हैं पर समझौते दीर्घकालिक होते हैं। वर्तमान में हमारे देश के सत्ता सूत्र जिन हाथों में हैं वे दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के राष्ट्रपति चुनाव में जाकर सभा में कह देते हैं, अब की बार फलाने की सरकार। यह न केवल उस देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप था बल्कि हमारे देश के सर्वोच्च राजनीतिक पद की गरिमा को गिराने वाला भी था।
चीन की हमारी सीमा में घुसपैठ के अनेक प्रमाण होते हुए भी हमारे देश के सत्ता प्रमुख मात्र आंतरिक राजनीति में बचाव की खातिर कह देते हैं कि न कोई आया है न घुसा है। ऐसा करके हमने चीन को भारतीय सीमा में घुसपैठ नहीं किया है का प्रमाणपत्र अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर दे दिया। हालिया उदाहरण हमारे देश के प्रमुख की ब्रुनेई यात्रा का है जहाँ उनके भव्य स्वागत के नगाड़े पीटे गये। ब्रुनेई आबादी में हमारे देश के कई जिलों से भी छोटा है और वह भारत को बड़ी मात्रा में निर्यात करता है। इसलिए जिस स्वागत के नगाड़े पीटे गये वह किसी बड़े ग्राहक के दुकान में आने पर होने वाले स्वागत जैसा था।
भारत-श्रीलंका सम्बन्धों पर बात करने से पहले हमारी वर्तमान विदेश नीति का उल्लेख आवश्यक था ताकि वर्तमान में हमारे श्रीलंका से सम्बन्धों को ठीक से समझा जा सके। समुद्री सीमा साझा करने वाले भारत और श्रीलंका के बीच व्यापारिक, सांस्कृतिक और सामाजिक सम्बन्धों का लम्बा इतिहास रहा है। कभी भारत से मात्र 32 किमी दूर यह द्वीप भारत का ही हिस्सा हुआ करता था। 250 ईस्वी पूर्व सम्राट अशोक ने यहाँ बौद्ध धर्म की नींव रखी। वहाँ के मूल निवासी सिंहलियों और दक्षिण भारत से गये तमिल हिन्दुओं के बीच सौहार्द रहा और कभी कोई अलगाववादी संघर्ष नहीं था। इस झगड़े की बुनियाद भी फूट डालो राज करो की नीति के तहत अंग्रेजों ने ही रखी।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 4 फरवरी, 1948 को श्रीलंका को आजाद करते हुए सत्ता सिंहलियों के हाथ सौंपकर चले गये। वहीं से शुरु हुआ तमिल हिन्दुओं का स्वायत्तता के लिए संघर्ष और सन् 1976 में अलग तमिल राज्य के लिए संघर्ष वेल्लुपिलई प्रभाकरन के नेतृत्व में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम यानी लिट्टे की स्थापना हुई। श्रीलंकाई सरकार से लिट्टे का संघर्ष शीघ्र ही खूनी संघर्ष में बदल गया। लिट्टे ने निर्दोष सिंहलियों और श्रीलंका के बड़े नेताओं की हत्या की।
श्रीलंकाई सेना ने भी जवाबी कार्रवाई की जिसमें लिट्टे के आतंकवादियों के अलावा निर्दोष तमिल लोग भी मारे गये। दुनिया के कई देशों जिसमें भारत भी था की नज़र इस पूरे घटनाक्रम पर थी। तमिल चूंकि मूलत: भारतवंशी थे इसलिए भारत में तमिलनाडु सरकार ने भी तत्कालीन राजीव सरकार पर हस्तक्षेप के लिए दबाव बनाया। राजीव सरकार ने प्रारम्भ में हवाई मार्ग से भोजन, दवाइयों आदि की मदद भेजवायी। अन्त में जाफना के उग्रवादी समूहों के सफाए के लिए इण्डियन पीस कीपिंग फोर्स नाम से सीधे सैनिक हस्तक्षेप किया। इसमें पाँच सौ से अधिक हमारी फौज के जवान भी शहीद हुए।
श्रीलंकाई सरकार ने इसे आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप बताते हुए उक्त सैनिक कार्रवाई का तीव्र विरोध किया जो स्वाभाविक ही था। इंदिराजी के जमाने में जब तेज खालिस्तानी अलगाववादी आंदोलन चल रहा था उस समय यदि शांति स्थापित करने के नाम पर पाकिस्तान सैनिक हस्तक्षेप करता तो हमारी प्रतिक्रिया क्या श्रीलंका जैसी न होती। इस दृष्टि से देखें तो भारत सरकार की यह गम्भीर राजनयिक भूल थी। परिणामस्वरूप न सिर्फ हमारे श्रीलंका से सम्बन्ध खराब हुए बल्कि हम भी लिट्टे के शत्रु बन गये। इस कदम का सर्वाधिक दुखद परिणाम था भारत के युवा और ऊर्जावान प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी की लिट्टे के आतंकवादियों द्वारा हत्या।
भारत और श्रीलंका दोनों ही दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के अलावा दक्षिण एशियाई सहकारी पर्यावरण कार्यक्रम, दक्षिण एशियाई आर्थिक संघ और “बिमस्टेक” के सदस्य हैं जिनकी सांस्कृतिक और वाणिज्यिक सम्बन्धों को मजबूत करने में भूमिका होती है। पर्यटन विकास के लिए भी दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय समझौता है। श्रीलंका के लिए भारत सबसे बड़ा आयातक देश है।
लेकिन एक बहुत बड़ी सच्चाई यह भी है हमारे सबसे करीबी यह देश व्यापार के मामले में चीन की गिरफ्त में जा चुका है। चीन ने इसे कर्ज से लाद दिया है। चीन के अलावा श्रीलंका की तत्कालीन गोटाबाया राजपक्षे सरकार ने देश पर अनुत्पादक सरकारी खर्चों के चलते कई देशों और अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं के कर्ज का बोझ भी लाद दिया है। गोटाबाया राजपक्षे के कार्यकाल में ही श्रीलंका सरकार ने चीन की सरकारी तेल कंपनी सिनोपेक को दक्षिणी बंदरगाह हंबनटोटा, जो सामरिक रूप से भी महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील है, में 4.5 बिलियन डॉलर की रिफायनरी बनाने के प्रस्ताव को मंजूरी दी। इसी क्षेत्र में चीन एक रडार बेस भी बना रहा है जहाँ से वह भारत की सैन्य गतिविधियों पर नज़र रख सकेगा। यह सारा घटनाक्रम राजनयिक और सामरिक दोनों दृष्टि से भारत सरकार के लिए चिंता का विषय होना चाहिए।
बेतहाशा कर्जों के अलावा गोटाबाया राजपक्षे सरकार ने एक तानाशाही फरमान जारी कर श्रीलंका में रासायनिक खाद के प्रयोग पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाकर केवल जैविक खाद के प्रयोग को अनुमति दी। परिणामस्वरूप श्रीलंका में खाद्यान्न, फलों, सब्जियों का उत्पादन बहुत घट गया। जिसके फलस्वरूप उनके भावों में अनाप-शनाप वृद्धि हो गयी। कर्ज के कारण कच्चे तेल का आयात रुक जाने से ईंधन के भाव भी आसमान छूने लगे। जनता में हाहाकार मच गया। जनता, सरकार के विरोध में सड़कों पर उतर आई। राष्ट्रपति के इस्तीफे की माँग करते हुए राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के निवास को जनता ने घेर लिया। राष्ट्रपति ने इस्तीफा देने से इंकार कर दिया। परन्तु बाद में स्थिति को बहुत अधिक बिगड़ती देख राष्ट्रपति देश छोड़कर सिंगापुर भाग गये और वहाँ से ईमेल से इस्तीफा भेज दिया। फिलहाल रानिल विक्रमसिंघे अस्थाई प्रधानमन्त्री हैं। इसी साल नवंबर में स्थायी सरकार के लिए चुनाव होना है।
श्रीलंका आकार में कितना भी छोटा क्यों न हो, हिन्द महासागर और बंगाल की खाड़ी में विशिष्ट सामरिक स्थिति के कारण महत्त्वपूर्ण पड़ोसी देश है। 2021 के बाद वहाँ के हालात एक दिन में तो नहीं बदल गये। जब वहाँ हालात बदल रहे थे तब समय रहते हमारी सरकार को क्या सूचनाएँ नहीं मिलीं? यदि हाँ, तो यह हमारी इंटेलिजेंस सर्विस के नाकारापन का सबूत है। यदि इंटेलिजेंस सर्विस से सूचना मिलने के बावजूद सरकार ने एहतियाती कदम नहीं उठाये, जो साफतौर पर नज़र आ रहा है, तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है। केंद्र की वर्तमान मोदी सरकार की राजनय (डिप्लोमैसी) की छोड़िए राजनीति की समझ भी सरकारें गिराने तक ही सीमित है। इस सरकार का कोई भी फैसला उठाकर देख लीजिए, नोटबन्दी, जीएसटी, सीएए,एनआरसी, लॉकडाउन हो अग्निपथ स्कीम, इस सरकार की जनविरोधी राजनीतिक समझ के जीते जागते प्रमाण हैं। इनकी राजनीति का एक ही अर्थ है, येन-केन प्रकारेण कुर्सी हथियाना और उस पर बने रहना।
2014 के बाद से देश अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी इस मूर्खता की कीमत चुका रहा है। हाल में एक और पड़ोसी बांग्लादेश की पूर्व प्रमुख भागकर भारत में शरण लिए हुए है। इस वजह से वहाँ की वर्तमान सरकार भारत के प्रति नाराजगी जाहिर कर चुकी है। चीन, पाकिस्तान, भूटान, नेपाल, म्यांमार, बांग्लादेश, श्रीलंका सात में से एक भी पड़ोसी देश से सम्बन्ध ऐसे नहीं हैं जिन्हें सामान्य या संतोषजनक कहा जा सके। पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका हर ओर से चीन हमें बेदखल करने में लगा हुआ है। लद्दाख में तीन हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा जमाने के अलावा हमारे अपने अरुणाचल पर भी दावा ठोक रहा है। इस पर चिंता और कार्रवाई के बजाए, मोदीजी पचास साल पुराने कच्चाथिवु द्वीप समझौते को लेकर लोकसभा चुनाव में, संसद में कांग्रेस पर हमला कर रहे हैं।
मोदी सरकार यानी प्रकारांतर से मोदीजी को श्रीलंका से सम्बन्धों की चिंता नहीं है। चिंता है तो अडानी को श्रीलंका में विंड एनर्जी और बांग्लादेश में थर्मल पावर प्रोजेक्ट दिलवाने की जिसमें पर्यावरण प्रदूषण झेलेगा झारखण्ड और मुनाफा जाएगा अडानी की जेब में।
श्रीलंका की वर्तमान आर्थिक स्थित और वहाँ के राजनीतिक घटनाक्रम को देखते हुए श्रीलंका से पूर्ववत सम्बन्ध फिलहाल तो दूर की कौड़ी लगता है।