पर्यावरण

विलुप्त होती गौरैया

विश्व गौरैया दिवस (20 मार्च)

गौरैया भारत में पाया जाने वाला एक सामान्य पक्षी है, यह एक छोटी चिड़िया है। यह हल्की भूरे रंग या सफेद रंग में होती है। इसके शरीर पर छोटे-छोटे पंख और पीली चोंच व पैरों का रंग पीला होता है। नर गोरैया का पहचान उसके गले के पास काले धब्बे से होता है। 14 से 16 से.मी. लम्बी यह चिड़िया मनुष्य के बनाए हुए घरों के आसपास रहना पसन्द करती है। यह लगभग हर तरह की जलवायु पसन्द करती है पर पहाड़ी स्थानों में यह कम दिखाई देती है। शहरों, कस्बों गाँवों और खेतों के आसपास यह बहुतायत से पाई जाती है। नर गौरैया के सिर का ऊपरी भाग, नीचे का भाग और गालों पर पर भूरे रंग का होता है। गला चोंच और आँखों पर काला रंग होता है और पैर भूरे होते है। मादा के सिर और गले पर भूरा रंग नहीं होता है। नर गौरैया को चिड़ा और मादा चिड़ी या चिड़िया भी कहते हैं। लेकिन इसे शहरी क्षेत्रों में विलुप्त होने के कगार पर पहुँचा दिया गया है। विश्व भर में गौरैया की 26 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें से 5 भारत में देखने को मिलती हैं। नेचर फॉरेवर सोसायटी के अध्यक्ष मोहम्मद दिलावर के विशेष प्रयासों से पहली बार वर्ष 2010 में विश्व गौरैया दिवस मनाया गया था। महाराष्ट्र के नासिक जिले के मोहम्मद दिलावर वर्ष 2008 से गौरैया के संरक्षण को लेकर काम कर रहे हैं। पिछले कुछ सालों में शहरों में गौरैया की कम होती संख्या पर चिन्ता प्रकट की जा रही है।

पर्यावरण संतुलन में गौरैया महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। गौरैया अपने बच्चों को अल्फ़ा और कैटवॉर्म नामक कीड़े खिलाती है। ये कीड़े फसलों के लिए बेहद खतरनाक होते हैं। वे फसलों की पत्तियों को मारकर नष्ट कर देते हैं। इसके अलावा, ये मानसून के मौसम में दिखाई देने वाले कीड़े भी खाती है। रॉयल सोसाइटी फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड्स के एक हालिया सर्वेक्षण के अनुसार, पिछले 40 वर्षों में अन्य पक्षियों की संख्या में वृद्धि हुई है, लेकिन भारत में  इसकी संख्या में 60% की कमी आई है। दुनिया भर में गौरैया की 26 प्रजातियां हैं, जबकि उनमें से 5 भारत में पाई जाती हैं।

वर्ष 2015 की पक्षी जनगणना के अनुसार, लखनऊ में केवल 5692 और पंजाब के कुछ क्षेत्रों में लगभग 775 गौरैया थीं. वर्ष 2017 में, तिरुवनंतपुरम में केवल 29 गौरैया की पहचान की गई थी। रॉयल सोसाइटी ऑफ लंदन की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, मनुष्यों और गौरैया के बीच 11,000 साल पुराना सम्बन्ध है। अध्ययन में कहा गया है कि तीन अलग-अलग प्रजातियों – कुत्तों, घरेलू गौरैया और मनुष्यों में कृषि के माध्यम से समान अनुकूलन शुरू हुआ था।

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भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि आंध्र प्रदेश में इसकी संख्या में 80% की कमी आई है। केरल, गुजरात और राजस्थान जैसे राज्यों में 20% तक की गिरावट देखी गई है। द नेचर फॉर सोसाइटी ऑफ इंडियन एनवायरनमेंट के संयोजक मोहम्मद दिलावर ने गौरेया की जनसंख्या में तेजी से गिरावट को देखते हुए यह पहल शुरू की थी। पहला विश्व गौरैया दिवस दुनिया के विभिन्न हिस्सों में 2010 में मनाया गया था। तब से इस पक्षी के बारे में जागरूकता बढ़ाने और इसके संरक्षण के लिए प्रत्येक वर्ष 20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस मनाया जाता है। आधुनिक स्थापत्य की बहुमंजिली इमारतों में गौरैया को रहने के लिए पुराने घरों की तरह जगह नहीं मिल पाती। माल और सुपरमार्केट संस्कृति के प्रभाव के कारण कस्बों और शहरों में पुरानी पंसारी की दूकानें घट रही हैं। इससे गौरेया को दाना नहीं मिल पाता है। इसके अतिरिक्त मोबाइल टावरों से निकलने वाली तंरगों को भी गौरैयों के लिए हानिकारक माना जा रहा है। ये तंरगें चिड़ियों की दिशा खोजने वाली प्रणाली को प्रभावित कर रही हैं और इनके प्रजनन पर भी विपरीत असर पड़ रहा है। जिसके परिणाम स्वरूप यह तेजी से विलुप्त हो रही है। गौरैया को घास के बीज काफी पसन्द होते हैं जो शहर की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में आसानी से मिल जाते हैं।

गौरैया के संरक्षण के बारे में लखनऊ जू के पशुचिकित्सक और पर्यावरण विज्ञानी बताते हैं, “जब तक लोग इसके संरक्षण के लिए जागरूक नहीं होंगे तब तक इनका संरक्षण नहीं किया जा सकता। गौरैया ज्यादातर छोटे-छोटे झाड़ीनुमा पेड़ों में रहती है लेकिन अब वो बचे ही नहीं है। अगर आपके घर में कनेर, शहतूत जैसे झाड़ीनुमा पेड़ है तो उन्हें न काटे और गर्मियों में पानी को रखें।” यह ज्यादा तापमान सहन नहीं कर सकती। प्रदूषण और विकिरण से शहरों का तापमान बढ़ रहा है। खाना और घोंसले की तलाश में यह शहर से दूर निकल जाती हैं और अपना नया आशियाना तलाश लेती हैं। घट रही गौरैया की संख्या को अगर गंभीरता से नहीं लिया गया तो वह दिन दूर नहीं, जब गौरैया हमेशा के लिए दूर चली जाएगी।

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शैलेन्द्र चौहान

लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं। सम्पर्क +917838897877, shailendrachauhan@hotmail.com
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