साउथ एशियन थुक्कम फजीहत!
(भाग एक)
यह लेख हमारे कुछ अजीबोग़रीब आदतों और हरकतों के बारे में है। इसमें थोड़े तर्क-वितर्क, थोड़ा हास्य-विनोद, और थोड़ा सा समाजशात्रीय दृष्टिकोण पिरोकर हमारी एक विशेष आदत पर विमर्श की कोशिश की गयी है। एक बड़े हीं मानवीय और सामाजिक लगने वाली- थूकने की आदत- पर एक विशेष ध्यान दिया गया है। साल 2020 में विश्वव्यापी महामारी के प्रताप से सार्वजनिक स्थानों पर थूकने पर कानूनी प्रतिबन्ध लगाया गया। क्या महज क़ायदे-क़ानून हमें थूकने से रोक सकते हैं? जैसे सर्वव्यापी-साश्वत ईश्वर की शक्ति को नकारना असंभव है, और डॉन को पकड़ना मुश्किल हीं नहीं नामुमकिन है, ठीक वैसे हीं थूक को रोकने की कोशिश करना है।
धरती के जिस हिस्से में मनुष्य है वहां थूक है। क्या फर्स्ट वर्ल्ड और क्या थर्ड वर्ल्ड, थूकने वाले हर जगह विराजमान हैं। अब देखिये ना, 19वीं सदी तक सम्पूर्ण यूरोप में थूकने की आदत और परम्परा ज़बरदस्त थी। कोई प्रश्न भी नहीं था थूकने के ख़िलाफ़। वह तो 1940 में फैले टीबी की बिमारी की वजह से पहली बार थूकने के विरुद्ध औपचारिक निर्देश आने लगे। खांटी अंग्रेज़ों की धरती यूनाइटेड किंगडम में भी थूकने वालों को रोकने के लिए क़ानून बनाने की बात होती रही है। 1990 तक थूकने वाले पर 5 पाउंड का जुर्माना लगाया जाता था। फिर भी थुक्कम फजीहत होता रहा। अंग्रेजी पुलिस को एक विशेष प्रकार का हुड भी पहनाया जाने लगा जो उन्हें पब्लिक के थूक से बचा सके। यहां तक कि 2013 में लंदन के एनफील्ड कॉउन्सिल ने थूकने वालों के खिलाफ एक उपनियम भी बनाया। और तो और फुटबॉल मैच में लगभग हर एक देश के खिलाड़ी थूकते पाए गए हैं। एक दूसरे पर थूक कर खिलाडी लोग प्रतिरोध व्यक्त करते हैं। फीफा (फेडरेशन इंटरनेशनेल डी फुटबॉल एसोसिएशन) यानि फुटबॉल का अंतरराष्ट्रीय महासंघ, ने इसी साल एक कठोर नियम बनाया है थूकने वाले खिलाड़ियों के खिलाफ। ज़ाहिर है इस साल थूकने के विरुद्ध बनने वाले नियम-क़ानून कोविड महामारी की रौशनी में हैं।
अक्सर उम्मीद की जाती है कि क़ायदे-क़ानून लोगों को रोकेंगे। लेकिन भला थूकना किसी ने कभी छोड़ा? ठीक वैसे हीं जैसे खुले में, किसी दीवार या पेड़ के पीछे, दोनों टांगों को फैला कर मूतने का चरम सुख स्वच्छ भारत की उद्घोषणा के बाद भी लिया हीं जाता रहा है। किसी स्वच्छ भारत अभियान नामक सरकारी योजना या आजकल ये अधकचरे राजनेता या नीति उपदेशक के प्रवचनों ने भला कभी मानवीय स्वभाव में परिवर्तन किया है? भला किसी मंत्री-संतरी के ज़ोर ज़बरदस्ती से, या किसी प्रधानमंत्री के प्रति अगाध भक्ति से, कोई अपने सुखदायक करतूतें क्यों छोड़े? बहरहाल इन्हीं इंसानी फितरतों को देखते हुए जब हम महामारी और लॉक डाउन का ख्याल करते हैं तो कुछ गतिविधियों पर रोक-टोक ग्रेटर कॉमन गुड, यानि सबके लिए भला मालूम होता है। और ऐसे में थूक उतना हीं भयानक लगने लगा जितना कोरोना वायरस! थूकना हीं नहीं, इसके साथ अनेक अन्य हरकतें भी हैं जो हमारे पड़ताल का केंद्र होना चाहिए। लेकिन सुविधा के लिए इस लेख में हम थूकने पर विशेष ध्यान देंगे।
जैसे विश्व के अन्य हिस्सों में थूकना एक सहज-सामाजिक-सांस्कृतिक आदत रही है वैसे हीं यह साउथ एशिया में भी है। जैसे गोरी चमड़ी वाले थूकते हैं लगभग वैसे हीं भूरे-काले-पीली चमड़ी वाले भी। चाहे अंग्रेज़ी, फ्रेंच, स्पेनिश आदि बोलते हुए थूकें या फ़िर जापानी, मलय, या चीनी, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, मगही, या फिर मलयाली, तमिल, तेलगु आदि। थूक तो जाति, धर्म, देश, भाषा, आदि सबसे बहुत ऊपर है। थूक सबसे आज़ाद है। हाँ, थूकने वाले कभीकभार दोषी बन जाते हैं। महामारी के समय में इतिहास इसे किसी रंग रूप में ढाल कर इसे दोषी बना सकता है। लेकिन सामाजिक परिदृश्य में तो थूकने वाले उतने हीं सहज हैं जितने जीने-मरने, प्यार-नफरत, आदि करने वाले।
आदतों का समाजीकरण
अब थूकना, मूतना, हगना, छींकना सब एकदम व्यक्तिगत क्रिया-कलाप ठहरा। इनसे भला किसी को क्या तकलीफ़ हो सकती है? और इनमें कोई समस्या हो तब तो डकार मारना, पादना, या खाते हुए आवाज़ निकालना, आदि सब भी एक झटके में समस्याओं की सूचि में शामिल हो जायेंगे। यह सब तो मूलभूत व्यवहार हैं। इनपर कैसा विमर्श हो सकता है? इन्हें तो बस आप रहने दें। यानि जो जैसे थूकता है, थूके; हगता है, हगे; मूतता है तो मूते; छींकता है तो छींके; डकार मरता है तो मारे और पादता है तो पादे! ऐसी गतिविधियां मूलभूत हैं और इन पर छींटाकशी नहीं की जा सकती। ज़्यादा चिल्ल पों होने पर आपको संवैधानिक प्रावधान भी याद दिलाये जा सकते हैं। थोड़ा खींचतान करके यह भी कह दिया जायेगा कि आप मानवाधिकार के हनन के समर्थक हैं।
संभवतः यही सब सोच कर हमने आदतों के अनुसार हीं अपने सामाजिक- सांस्कृतिक व्यवहार बना डाले। स्वास्थ्य और स्वच्छता के बारे में विद्यालयों में थोड़ा बहुत पढ़ा-सुना। लेकिन फिर भूल गए। वैसे हीं जैसे यह भूल गए कि कोई मोहन दास करमचंद गाँधी थे। और उन्हीं गाँधी जी ने अपने सपने के स्वराज में, यानि आज़ाद भारत में स्वच्छता को भी उतना हीं महत्व दिया था जितना अन्य नैतिक मूल्यों को। बल्कि अपने आश्रम में गाँधी जी अन्य आश्रमवासियों के साथ इन विचारों को जीते थे। कुछ मीनमेख करने वाले आलोचक गाँधी जी के साफ़-सफाई सम्बंधित दृढ़ निश्चय से परेशान भी होते थे। उन्हें गाँधी पर पश्चिम और ईसाई प्रभाव जैसा लगता। लेकिन गाँधी तो साफ़-सफाई को साधारण मानवीय गुण मानकर उनको जीने में विश्वास करते थे। ठीक वैसे हीं जैसे सहजता से आँख मूँद कर प्रार्थना में बैठा जा सकता है, साफ़-सुथरा भी रहा जा सकता है।
लेकिन गाँधी को तो हमने कबका पीछे छोड़ दिया। छोटे-बड़े इम्तिहानों में लेख लिखने भर जितना याद रखना था; उतना हीं रखा। इसीलिए तो राजकुमार हिरानी नामक सिनेमा कर्मी को बम्बईया बदमाश मुन्ना भाई के गांधीगिरी के मार्फ़त हमें महात्मा गाँधी की याद दिलाने की ज़रूरत पड़ी थी। सूचना के तौर पर थोड़े बहुत याद हों, एक भावना के रूप में निश्चय हीं गाँधी भूले जा चुके हैं। और कुछ इस कदर कि आज एक हीं तरह के लोग दो अलग उत्सव मनाते देखे जा सकते हैं- गाँधी जयंती और गोडसे जयंती! तभी तो बड़े सहूलियत से चरखे के पीछे बैठे गाँधी जी की मूरत हंट चुकी है। जो भी कद्दावर नेता हो वह गाँधी जी की जगह बैठ जाए। तो जब ये हालत है तो गाँधी जी के साफ़-सफाई वाले विचार और व्यवहार की याद किसे हो। हमने देखा हीं था कि स्वच्छ भारत अभियान के पोस्टरों पर एक जोड़ी चश्मे के रूप में गाँधी जी होते थे- बस और क्या!
साफ़-सफाई-स्वास्थ्य आदि की चिंता हमने सरकारी तंत्र के हवाले छोड़ दिया। जैसे सरकारी विभाग कुछ ख़ास अवसरों पर ब्लीचिंग पाउडर का छिड़काव करते हैं वैसे हीं हम थोड़ा बहुत साफ़-सफाई कर लेते हैं। दीपावली के अवसर पर जैसे हिन्दू धर्मावलम्बी घर-परिवार में होता है। अगर ठीकठाक पढ़-लिख गए हों तो आप थोड़ी और जद्दोजहद और कर लेते हैं। जैसे किचेन में डस्टबिन अलग करके प्लास्टिक को बाकी कचरे से अलग करके फिर कूड़ा एकत्र करने वाले को देते हैं। नगरों-महानगरों में यह भी देखा गया है कि लोगबाग पॉलिथीन बैग में घर का कचरा भर कर लाते हैं और सड़क पर या किसी पार्क के कोने में फेंक कर चले जाते हैं। फिर पोखर-तालाब के किनारे अगर कूड़े-कचरे का लाजवाब कर देने वाला ढेर मिल जाए तो आश्चर्य क्यों होगा!
बहरहाल हम गाँवों को देख रहे हों या नगर-महानगर को एक बात तो तय है। हमारी कभी-कभार होने वाली साफ़ सफाई की हरकतों से हमारी मूलभूत आदतों पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ता। हगना-मूतना, थूकना-पादना, छींकना-डकारना सब चलता हीं रहता है। ये सब भला क्या हीं छूटे। लोगबाग थोड़े सावधान हो जायेंगे। अपने नेचुरल कॉल को जवाब देने से पहले दाएं-बाएं देख लेंगे। लेकिन जिन आदतों का घनघोर समाजीकरण हो गया हो उन्हें क्या हीं छोड़ेंगे। और कैसे छूटे? हमने अपने विद्यालय के दिनों से हीं यही सब होते देखा है।
1980 के दशक में हमारे सरकारी विद्यालयों के मास्टर साहब लोग बड़े अनोखे होते थे। विद्यार्थियों को उदारता पूर्वक शारीरिक दंड देने के लिए आम तौर पर जाने हीं जाते थे। लेकिन उनके पान खाने, पीक थूकने, और ऐसे अनेक अद्भुत आदतों ने उन्हें अच्छा ख़ासा नमूना बना दिया था। अनेक तो ऐसे लाजवाब थे कि ठीक क्लास में आने से पहले हथेली पर रख कर तम्बाकू और चूना मलते। पूरे अस्सी चुटकी और नब्बे ताल के बाद खैनी को निचले होंठ में दबाते। फिर कक्षा में आ कर सीधा ब्लैकबोर्ड पर खल्ली से लिखना शुरू कर देते। अव्वल तो कोई कुछ पूछता नहीं। अगर कोई पूछता तो मास्टर जी या तो टार जाते या फिर खिड़की के पास जाकर एक तेज़ धार वाला पीक फेंकते। फिर घूम कर कोई छोटा सा जवाब ऐसे देते कि प्रश्न पूछने वाला दोबारा कुछ कहने की हिम्मत नहीं करता। मुद्दा मास्टरजी का स्वभाव नहीं है। थूक फेंकना, और सारे मामले की थुक्कम फजीहत कर देना, मुद्दा है। ऐसे बहुतेरे थूक-फेक्का मास्टर जी से हम सबों का स्कूली दिनों में ज़रूर सामना हो चुका है।
लेकिन सवाल सिर्फ मास्टर जी का नहीं। थूक फेंकने की कला में मनुष्यों के अन्य समुदायों का भी दखल है। कोई नौकर अगर मालिक को परोसे जाने वाले शरबत में छुपा कर थू-थू कर दे तो क्या कर लेंगे आप? महिलाओं में जब गाली गलौज के साथ ताबड़तोड़ लड़ाई होती है तो वो थूकबाज़ी करती हीं हैं। और पुरुषों की लड़ाई में दुश्मन को थूक फ़ेंक कर चटाने की परम्परा तो ना जाने कब से चली आ रही है! भाई भाई भी आपस में लड़ते हैं तो यही कह कर विदा लेते हैं- तुम्हारे घर पर थूक फेंकने भी नहीं आऊंगा! कितनी बार ऐसा सुना गया है कि हिन्दुओं ने मुसलामानों पर थूका, या फिर मुसलामानों ने हिन्दुओं पर। फिर जब लॉक डाउन के दौरान कुछ मुसलामानों ने स्वास्थ्यकर्मियों पर थूका तो बात बड़ी आसानी से समझी जा सकती है। थूकना एक सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवहार है। इसका प्रयोग मनुष्य अनेक उद्देश्य से भी करते हैं, और वैसे भी चलते चलते मन हुआ तो थूक दिया।
चाहे किसी भी सरकारी दफ़्तर में जाएँ, दो चार बड़े बाबू टाइप चरित्र मिल जायेंगे जिनको किसी ना किसी वजह से बारम्बार थूक फेंकने की आदत होती हीं है। और बड़ा बाबू हीं क्यों कितने तो हाकिम-हुकूम भी पान-बीड़ी-गुटका दबा के पीक मारते रहते हैं। किसी भी सचिवालय में, ब्लॉक डिवीज़न कार्यालय में, ग्रामीण या शहरी बैंक में, रेलवे के दफ्तर में आपको कोई दिवार, कोई कोना सबूत के तौर पर थूक रंजित दिखाई देगा। फिर क्या दिक्कत है अगर रेलगाड़ी की खिड़की पर बैठा एक प्रवासी मज़दूर अपने शहर से महानगर आते हुए थूकता-खंखारता आता है। सड़कों पर कितने हीं लोग थूक फेंक कर लगभग पीक का पोखर बना देते हैं। उनमें भारतीय सभ्यता की नंगी तस्वीरें दिखाई पड़ सकती हैं। और भारतीय हीं क्यों, आप पाकिस्तान जाएँ, बांग्लादेश जाएँ, नेपाल जाएँ, और तो और आप भूटान चले जाएँ जहाँ सरकारी दस्तावेज में सारे भूटानी खुश घोषित किये जा चुके हैं। समस्त साउथ एशिया आपको थूक के सागरों में डूबा मिलेगा। अजी आप थार के मरुभूमि में भी थूक के धब्बे पाएंगे।
अपने चच्चा-ताऊ, बाबा-मामा, जीजा-ससुर सबको यही सब करते देखा है। पूरे रिश्ते-नाते के जाल में थूक की अनोखी प्रेम धारा बहती है। तो थूकने को सामान्य व्यवहार मान लिए जाने में क्या समस्या है। हाँ, कोई सोच भी नहीं सकता कि इंसानों का एक साधारण सा व्यवहार पूरे इंसानियत की थुक्कम फजीहत कर देता है। इसके सामने नियम-क़ानून तेल लेने चले जाते हैं।
क़ायदे कानून की ऐसी की तैसी
कितने हीं लोगों को यही लगता है कि क़ायदा-क़ानून सबकुछ ठीक कर सकता है। लोग-बाग डर जायेंगे, और सुधर जाएंगे! भला ऐसा भी होता है? डर कर कभी कोई सुधरता है? तब तो जेल काट चुके लोग कभी दोहरा-तिहरा कर अपराध नहीं करते। या एक बार बेटिकट यात्रा करता युवक टी। टी। द्वारा धरे जाने के बाद हमेशा टिकट लेकर यात्रा करता। या चेतावनी के बाद कोई बच्चा कभी ग़लती हीं नहीं करता। तब तो बस एक पुलिसिया सिंघम हरेक इलाक़े में होता और सब ठीक हो जाता। अपराध का दर सालों साल बढ़ता नहीं, और न्यायालयों में इतनी संख्या में मुकदमे विचाराधीन नहीं पड़े होते। जिन व्यवहारों को सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यता मिल गयी हो वो भला पुलिसिये पकड़ में कैसे आएंगे। न्याय-अन्याय का क्या सवाल उठेगा? भला थूक कर भी कभी कोई अन्याय करता है! ये तो हमारे मनुष्य होने का एक सहज, सामाजिक, सांस्कृतिक लक्षण है। इसे तो सामाजिक न्याय के नाम पर होने वाली राजनीति में भी कोई मुद्दा नहीं माना गया। अगर ऐसा होता तो बिहार के भूतपूर्व मुख्यमंत्री बेचारे लालू यादव जहाँ तहाँ थूकते हुए फोटो-वीडियो आदि में नहीं देखे जाते। बल्कि हुआ ये कि थूकने की आदत को और प्रजातान्त्रिक होने का अवसर मिला। ऊपरी जाति के लोग हीं क्यों थूकें, निचली जाति के लोगों को भी सामान अवसर मिले। ब्राह्मण हीं क्यों थूके, सब थूकेंगे। और खूब थूकेंगे ताकि सदियों से थूकने से वंचित रहने का बदला भी लिया जा सके।
हाँ इसमें यदि जेंडर प्रश्न लेकर आएं तो मामला मुश्किल हो जाएगा। महिलायें वैसे ना थूकें जैसे पुरुष थूकते हैं। जितना पुरुष थूकते हैं उतना ना थूकें औरतें। अव्वल तो ये कि वो थूकती हुयी ना देखी जाएँ। अगर थूकना हीं है तो भारत की बेटियां छुपा कर थूकें। आख़िर क्या गुज़रेगी पुरुष कवियों पर, कैसे करेंगे वो नारी-सौंदर्य का वर्णन? तो कवियों और नारी सौंदर्य प्रेमियों का भ्रम बना रहे। इसीलिए समानता के अधिकार के बावजूद महिलाएं थूकने की गोपनीयता बनाये रखें। वो ब्याहता हिन्दू या मुसलमान हों तो काम आसान हो जायेगा। घूँघट की आड़ में थूकें, बुर्के के अंदर से थूकें, और जब भी अपना मुँह बाहर दिखाएं तो ऐसे लगे कि वो कभी थूकती हीं नहीं। युवतियां घर से निकलने से पहले थूक लें, या फिर गली में थूकने से पहले नज़र दौड़ा कर देख लें कि कोई उन्हें थूकते हुए देख तो नहीं रहा। बहरहाल थूकने की आज़ादी को लिंग के आधार पर एक सांस्कृतिक मान्यता प्राप्त असमानता है। तो क़ानूनन महिला-पुरुष में समानता, अवसरों की बराबरी, और यहां तक कि राजनैतिक जीवन में भी महिलाओं का विशेष स्थान हो सकता है। लेकिन खबरदार जो थूकने के मामले में उन्हें पुरुष के बराबर किया! भला किसी नारीवादी संगठन, या महिलाओं की हिमायत करने वाले लोगों ने थूकने की एक सामान आज़ादी की मांग की है? नहीं ना। किसी भी राजनैतिक दल ने अपने मेनिफेस्टो में तो नहीं कहा कि सरकार बनाते हीं वो महिलाओं के लिए थूकने की आज़ादी की घोषणा करेंगे!
बहरहाल क़ायदे क़ानून आज़ाद मनुष्यों के थूकने और समाज-सभ्यता की थुक्कम फजीहत करने से रोकने में साश्वत नाकाम हीं रहेंगे। अब देखिये, बेचारे अंग्रेज़ों ने भी स्वास्थ्य और स्वच्छता की व्यवस्था के लिए एक क़ानून बनाया था। चाहे अंग्रेज़ अपने आप में कितने हीं असभ्य थे, उन्होंने ठान रखा था कि वो असभ्य उपनिवेशों को सभ्य बना कर छोड़ेंगे। उन्होंने एपिडेमिक डिजीज एक्ट- 1897 जैसा पुख्ता क़ानून बनाया। 1896-1897 में औपनिवेशिक भारत के कुछ हिस्सों में बूबोनिक प्लेग फ़ैल रहा था। महाराष्ट्र-गुजरात जैसे इलाकों में प्लेग के रोकथाम की नाकाम कोशिशें हो रही थीं, लेकिन अंग्रेजी सरकार को लगा कि प्लेग के प्रसार को रोकने के लिए और सशक्त क़ानून की ज़रूरत थी। इसीलिए एपिडेमिक डिजीज एक्ट के ज़रिये सरकारी तंत्र को अत्यधिक बलवान किया गया ताकि किसी भी तरह के धर-पकड़ और दंड-भेद का प्रयोग हो सके। अब चूँकि प्लेग के प्रसार में चूहों का भारी योगदान माना गया था इसीलिए चूहों के संख्या और पोषण, उनके गमन-आवागमन पर रोकथाम का बंदोबस्त हुआ। स्वास्थ्य सुविधायें उपलब्ध कराना और प्लेग के कारण होने वाले जान-माल की क्षति को कम करना तो प्रत्यक्ष उद्देश्य था हीं। लेकिन इस क़ानून के तहत शासन-प्रशासन को और भी बहुत कुछ करने की छूट थी। किसी को भी सरकारी काम में बाधा डालने या अवमानना करने के लिए दबोचा जा सकता था। सामान्य तौर पर जनसाधारण से यह उम्मीद की जाती थी कि वो महामारी के रोकथाम के लिए सरकारी प्रयास में सहयोग करें। अगर लाइम और ब्लीचिंग पाउडर का छिड़काव किया जा रहा है तो लोगबाग थूकना-हगना-मूतना आदि ना करें।
एक सामाजिक स्थिति बने जिसमें थूकने की प्रवृति पर स्वतः रोकथाम हो। लेकिन क्या ऐसा हुआ? अगर ब्यूबोनिक प्लेग के डर से या इस अंग्रेज़ों के ज़माने के सख़्त क़ानून के बनने से लोगों ने थूकने की परम्परा पर अंकुश लगाया होता तो आने वाली पीढ़ियां भी थूकने के मामले में सजग रहतीं। लेकिन जो पीढ़ियां आयीं वो तो थूकती हुयी पायी गयीं। यानी प्लेग और क़ानून के बावजूद थूकने पर कोई कोमा, सेमी-कोमा नहीं लगा। पूर्ण विराम तो उतना हीं बड़ा सपना है जितना बड़ा गाँधी जी का हिन्द स्वराज। क्योंकि भारत अंग्रेज़ों से तो आज़ाद हो गया लेकिन स्वराज नहीं बन पाया जिसमे साफ़-सफाई, खुदी की बुलंदी, मनुजता और ईश्वर की बंदगी, सब स्वैच्छिक और स्वतः स्फूर्त हो।
एक सदी से ज़्यादा गुज़र गया। भारत एक बार फिर लौटा उसी एपिडेमिक डिजीज एक्ट-1897 की तरफ़। इस बार कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए। अप्रैल के महीने में 2020 के लॉक डाउन के दौरान भारत सरकार ने अंग्रेज़ों के बनाये क़ानून में संशोधन के लिए एक अध्यादेश जारी किया। उद्देश्य था कि उस पुराने कानून को और सशक्त किया जाए ताकि स्वास्थ्यकर्मियों के साथ दुर्व्यवहार या असहयोग करने वाले को दंडित किया जा सके। 50 हज़ार रूपये से दो लाख तक के ज़ुर्माने और पांच साल के जेल की सज़ा का प्रावधान है इस क़ानून के तहत। राज्यों की सरकारों को भी और अधिकार दिए गए ताकि वो भी थूकने वालों पर अंकुश लगा सकें। उस संशोधित अंग्रेज़ी कानून के अलावे गृह मंत्रालय ने एक और सरकारी फरमान ज़ारी किया। आपदा प्रबंधन एक्ट के तहत थूकने को ग़ैर-कानूनी घोषित किया। इसके तहत राज्यों को उचित कार्यवाही करने का निर्देश भी दिया गया। सार्वजनिक स्थानों पर थूकने वालों पर अलग अलग राज्यों ने ज़ुर्माना लगाया गया। महाराष्ट्र में हज़ार रूपये तो दिल्ली में पांच सौ तय हुआ। बाद में जब दिल्ली में कोविड पॉजिटिव के केस बढ़ने लगे तो ज़ुर्माना राशि बढ़ाकर दो हज़ार रूपये किया गया। और यह भी प्रावधान किया गया कि ज़रूरत पड़े तो एक साल के लिए जेल की सजा भी दी जाए। इसी कानूनी प्रावधान से जोड़कर अनेक राज्यों में पान-गुटखा आदि उत्पादों के बिक्री पर रोक लगाया गया। प्रायः यही माना जाता रहा है कि सब थूकने वाले इन तम्बाकू युक्त उत्पादों का सेवन करते हैं। एक कॉमन सेंस जैसा बन गया है- जो तम्बाकू खायेगा वही थूकेगा!
अब ये भी कोई बात हुई! समस्या का ऐसा सुन्दर सरलीकरण! माने कुछ भी! बहरहाल, इस लेख के अगले और आख़िरी भाग में हम पान-बीड़ी-गुटखा से संबंधित थुक्कम फजीहत की पड़ताल करेंगे। क़िस्सा बड़ा विनोदपूर्ण और तथ्यात्मक है, इसीलिए अगले अंक में विस्तार से।
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