
भारत छोड़ो इंडिया लाओ – वेद प्रकाश भारद्वाज
- वेद प्रकाश भारद्वाज
वह चूँकि अमरीकी है और अंग्रेजी में है तो ज़ाहिर है कि उस पर शक नहीं किया जा सकता। दो सौ साल की विदेशी गुलामी और 70 साल की स्वदेशी गुलामी का इतना असर तो होना ही है। गोरे प्रभुओं की हर अदा पर हम दिलो-जान से फ़िदा रहने की परम्परा के वाहक हैं। यही कारण है कि जब टाइम्स पत्रिका ने प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी को विघटनकारी कहा तो सबने उसे सच स्वीकार कर लिया अब अमरीकी पत्रिका है, झूठ थोड़े ही बोलेगी। ईमानदारी का ठेका कलयुग में तो उन्हीं के पास है। भारतीय मीडिया और बुद्धिजीवियों ने उस ख़बर को तत्काल लपक लिया और अपनी-अपनी दुकान सजा कर बैठ गए। यह फ्रंट पेज की न्यूज़ थी, ब्रेकिंग न्यूज़ थी। गार्ज़ीयन से भी मदद मिली। कई दिन तक लोग ख़ुश रहे। पर भला विदेशियों को हमारी ख़ुशी कब बर्दाश्त हुई है। इसीलिए अब टाइम्स पत्रिका ने मोदी को देश को जोड़ने वाला घोषित कर दिया है। यह जानकर लोगों को बड़ी मायूसी हुई। अखबारों ने भी अनमने ढंग से अंदर के पन्नों पर ख़बर छाप दी। गोरे प्रभुओं का चमत्कार फीका पड़ गया।
टाइम्स हो या गार्ज़ीयन या कोई और विदेशी अख़बार या पत्रिका उनके अपने व्यावसायिक हित होते हैं और राष्ट्रीय भी। अमरीकी, ब्रिटिश आदि मीडिया अपने देश से बाहर के बारे में जो कुछ लिखते हैं तब उसके पीछे उनके व्यावसायिक व राष्ट्रीय हित होते हैं। चुनाव से पहले मोदी को विघटनकारी और चुनाव में उनके जीतते ही उन्हें देश जोड़ने वाला बताना सिर्फ भारत में अमरीकी हितों की रक्षा के लिए है। इसके पीछे न तो किसी तरह की यथार्थ दृष्टि है और न ही विचारधारा। भारत एक बड़ा बाज़ार है जिसमें अमरीकी दुकानदारी को बचाने के लिए वहाँ का मीडिया कुछ भी लिख सकता है। चुनाव से पहले मोदी सत्ता से जाते दिख रहे थे इसलिए विघटनकारी थे पर जीतते ही देश को जोड़ने वाले हो गए। विडम्बना यह है कि भारतीय मीडिया में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो विदेशी मीडिया को परम् सत्य मानते हैं और बहुत से बुद्धिजीवी भी।
ऊपर से मीडिया अंग्रेजी का, वह तो हमेशा वन्दनीय होता है। अपने देश मे भी आज तक अंग्रेजी मीडिया को जितना महत्व मिलता है उतना हिन्दी को नहीं। 30 मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाया गया पर जिस उदण्ड मार्तण्ड अख़बार के प्रकाशन दिवस पर यह मनाया जाता है वह उस समय पाठकों के समर्थन के अभाव में दो साल भी नहीं निकल पाया था। आज भी हिन्दी मीडिया और हिन्दी भाषी लोगों की यही स्थिति है। वह भी तब जब हिन्दी के अख़बार सबसे ज्यादा हैं, हिन्दी टीवी चैनल अधिक हैं। हिन्दूस्तानी लोग हिन्दी फिल्में देखते हैं, हिन्दी गाने सुनते हैं, हिन्दी धारावाहिक देखते हैं पर जीते अंग्रेजी में हैं। राजकपूर ने कहा था ‘फिर भी दिल है हिन्दूस्तानी’ पर आज का बहुसंख्यक भारतीय अपने आचरण से सिद्ध करता है कि ‘फिर भी दिल है इंग्लिशतानी’।
इसी इंग्लिशतानी मानसिकता ने अंग्रेजी माध्यम के शिक्षा संस्थानों को जन्म दिया जहाँ से हर साल लाखों-करोड़ों बच्चे ‘आधा तीतर आधा बटेर’ बन कर निकलते हैं। अंग्रेजी उन्हें ठीक से आती नहीं और हिन्दी कभी सीखी नहीं। ऐसे में तो यही लगता है कि भारत और हिन्दूस्तान जैसे शब्दों को मिटा दिया जाए ताकि हमारा देश केवल इंडिया बन जाए। जब इंडिया होगा तो अमेरिका और ब्रिटेन के अधिक निकट हो जाएगा। विश्व का हिस्सा बनने का इससे सरल उपाय नहीं मिलेगा। तब न भारत माता बोलने का झगड़ा रहेगा और न ही वन्देमातरम का विवाद।
मेरा मानना है कि जो बुद्धिजीवी अब तक मोदी हटाओ देश बचाओ के अभियान में विरोधी दलों के हाथ मजबूत करने की कोशिश करते रहे उन्हें एक बार भारत हटाओ, इंडिया लाओ के बारे में सोचना चाहिए था। यदि इस दिशा में प्रयास किया जाता तो उन्हें अधिक सफलता मिलती। वैसे कांग्रेस चाहे तो इस दिशा में सोच सकती है। बस एक ही दिक्कत है कि उसके पुरखे अंग्रेजों को देश से निकालते पाए गए थे। पर उन्होंने भी कभी अंग्रेजियत को हटाने का प्रयास नहीं किया। बापू ने भारत छोड़ो आन्दोलन किया था, अब पोताजी चाहें तो फिर इस आन्दोलन को शुरू कर सकते हैं। अंतर यह होगा कि इस बार भारत को इंडिया छोड़ने के लिए कहा जाएगा। हो सकता है इससे कांग्रेस को अगले चुनाव में फिर खोया शासन मिल जाए और उन लाखों-करोड़ों इंडियन्स को अपना मुल्क, जो अभी तक नहीं मिला है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं|
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