आचार्य घसीटाराम श्रेष्ठ का बौद्धिक कुचक्र
(हिजाब विवाद विशेष)
प्रायोजित ‘हिजाब विवाद’ पर कर्नाटक हाईकोर्ट ने निर्णय सुनाते हुए स्कूल यूनिफॉर्म को उचित ठहराया और हिजाब पर प्रतिबन्ध के निर्णय को चुनौती देने वाली याचिकाएँ पूरी तरह खारिज कर दीं। न्यायालय ने यह भी माना कि हिजाब ‘इस्लामिक परंपरा’ का हिस्सा नहीं है। अतः अंततः धार्मिक स्वतन्त्रता का मुद्दा भी खारिज हो ही गया। लोग भूल जाते हैं कि यदि मनोवांछित की चाह है और उन्हें पूरा करने की राह है भी, तो बदलते समय के साथ आह भी है और वाह वाह भी! न्यायालय के निर्णय से मनोवांछित की चाह करने वालों की अब ‘आह’ निकल रही है और राष्ट्र-समर्पित लोगों की ओर से न्यायालय की ‘वाह वाह’ हो रही है। कुछ लोग न्यायालय के निर्णय की सराहना करते हुए इसे भारत में ‘समान व्यवस्था’ (एक-सी) की ओर बढ़ते कदम बता रहे हैं। क्यों न हो समान व्यवस्था, आखिरकार सबका डीएनए एक जो है!
ज्ञातव्य है कि जब कर्नाटकी हिजाब का मामला मीडिया नामक चिड़िया के हाथों लग गया, तो उसने ‘आँगन का पंछी’ बन कर यहाँ-वहाँ हर साँझ-सुबह फुदकते हुए हमेशा की भाँति ढीठ होकर हर घर-आँगन में चहचहाने (ताल ठोक कर विमर्श करना) और तिनकों की तरह नैरेटिव बिखेरना-पसारना आरम्भ कर दिया। फिर क्या था, देखते-न-देखते हिजाब ‘भारतीय राष्ट्रीय समस्या’ बन गयी। अब ‘इतने सदियों से दबे-कुचले अल्पसंख्यक समुदाय’ का इस प्रकार दमन करना अनुचित तो था ही, शोभा भी नहीं देता है परन्तु, हिजाब पर प्रतिबन्ध लगा कर यह अशोभनीय कृत्य किया गया। ‘हम क्या माँगे? आज़ादी!’ नारे में सदियों से दबे-कुचले समुदाय की (के हित में) उफान मारती विद्रोही भावनाओं की कद्र कोई तो करेगा ही, नहीं? तो मीडिया नामक चिड़िया ने किया, और बखूबी किया। परिणामतः कुछ बुद्धिवादी (चिंतक?) हमेशा की भाँति दबे-कुचले समुदाय के हितचिंतक (सेक्यूलर) बन कर अवतरित हुए और सिखों (कृपाण व पग) के साथ तुलना करते हुए हिजाब का कुछ इस प्रकार समर्थन किया कि वह ‘धार्मिक स्वतन्त्रता’ का मुद्दा बन गया। अब भाई! अल्पसंख्यकों को प्रदत्त विशेष स्वतन्त्रता (सौ तन्त्र) का इस इस प्रकार डंके की चोट पर हनन करना बाबासाहब का भी अपमान है। आप जानते हैं कि बुद्धिवादियों की सर्वग्रासी दृष्टि अति-तार्किक होती है। तो, अनेक तर्क-वितर्क और यथावश्यकता कुतर्क हुए। कुलमिलाकर, हिजाब मामले को भटकाने का अथक प्रयास किया गया परन्तु, सारा तिकड़म निष्फल हो गया। न्यायालय ने अकल्पनीय तथा अनपेक्षित निर्णय दे दिया। दबे-कुचले समुदाय के प्रति विशेष हमदर्दी रखने वाले भारतीय न्यायालयों से ऐसा मनहूस निर्णय निश्चय ही अकल्पनीय तथा अनपेक्षित था। अतः सभी अचम्भित हो गये कि आखिरकार ऊँट इस करवट बैठ कैसे गया?
न्यायालय का अकल्पनीय निर्णय आते ही जिन श्रेष्ठ आचार्यों (प्रोफेसर) का संपूर्ण जीवन प्रपंच में गुजरा, वे सोशल मीडिया पर सरपंच बन कर पूरी ताकत (और झल्लाहट में) के साथ सरपंची करने में जुट गये। कुछ आचार्य श्रेष्ठों ने पहले तो ‘अल्लाहू अकबर’ का नारा लगाने वाली और इस पूरे हिजाब प्रकरण की ‘पोस्टर गर्ल’ बनी मुस्कान के साथ खड़े रहने के लिए सबसे अपील की। फिर, बुद्धि का बैल दौड़ा कर आनन-फानन में उसकी आवाज़ को लोकतन्त्र के लिए आवश्यक एवं महत्वपूर्ण भी बताया। वे चाहते-कहते रहे हैं कि मज़बूत विपक्ष होना चाहिए। जब देख रहे हैं कि विपक्ष ज़ार-ज़ार और तार-तार होकर बिखर चुका है, वे मुस्कान में अपनी चाहत की राहत खोजने में जुटे हुए हैं।
आचार्य घसीटाराम श्रेष्ठ न्यायालय के निर्णय से चकित और चोटिल होकर एकालाप करने लग गये कि सभी बच्चों के लिए एक-से स्कूल होने चाहिए और उन एक-से स्कूलों में पढ़ने की एक-सी व्यवस्था होनी चाहिए। सबके लिए एक-सी ही शिक्षा-व्यवस्था होनी चाहिए। ऐसा कहते हुए वे ‘आज़ादी के इतने सालों बाद भी’ तकिया कलाम जोड़ना भूल गये (?)।
फिर, अपनी निर्णयात्मक आलोचना में ‘अमीर-ग़रीब’ का मसला भी जोड़ दिया कि अमीर-ग़रीब के लिए अलग-अलग स्कूल क्यों हैं? भावावेश में बहता-सा कथन करते हुए ‘साहब-चपरासी’ की तुलना भी कर डाली। फिर, बड़ी चतुराई से ‘द्रोणाचार्य-एकलव्य’ को भी लगे हाथ इस मामले में घसीट लिया।
आचार्य घसीटाराम श्रेष्ठ के मंतव्य से छन कर जो निकल रहा है, उस पर ध्यान देने की नितांत आवश्यकता है। प्रथमदृष्टया, उनमें न्यायालय के निर्णय से उपजी-पसरी घनघोर बौखलाहट है। इस पूरी ‘बौद्धिक खुजलाहट’ में यह अस्पष्ट रह जाता है कि उस लड़की का ‘अल्लाहू अकबर’ लोकतन्त्र को किस प्रकार मज़बूत बनाता है?
स्मरणीय है कि उनकी बौद्धिक खुजलाहट वाली आलोचना पर एक (बे) सुधी टिप्पणीकार जय श्रीराम कहने वालों को ‘गुंडा तत्व’ और ‘भाड़े के टट्टू’ कहते हैं। अर्थात् उनकी आलोचना-दृष्टि पर सर्वसामान्य दृष्टि से तथा व्यावहारिक होकर देखा-सोचा जाए तो ज्ञात होता है कि जय श्रीराम से ‘लोकतन्त्र खतरे में’ आ जाता है। यह मुझ जैसा मूढ़ तथा मतिमंद समझ रहा है, तो क्या भारतीय सुहृद जनता जनार्दन नहीं समझ रही होगी?
आचार्य घसीटाराम श्रेष्ठ एक टिप्पणीकार को बौखलाहट में लिखते हैं कि जय श्रीराम और भगवा अंगवस्त्रधारियों के कारण स्त्री का अभय होकर घूमना-फिरना बाधित हो रहा है। अतः उस पोस्टर गर्ल की आवाज़ (अल्लाहू अकबर) लोकतन्त्र के लिए ‘ऊर्जा प्रदायिनी शक्ति’ है।
ध्यान दें कि उस पूरे वातावरण में किसी भी स्त्री (?) के साथ छेड़खानी की कोई घटना नहीं हुई है। यदि होती, तो घटनाओं (दुर्घटना?) के लिए भूखे पत्रकारों की भीड़ उस घटनास्थल पर उमड़ पड़ती और टूट पड़ती सब पर, या जो मिले उसी पर कि यार! एक मनोवांछित बाइट दे दो। न दो मनोवांछित, तो कुछ भी बोल दो। बाकी, हम अपनी तीव्र वक्र और कुचक्र-बुद्धि से निरर्थक में अर्थ खोज लेंगे। इसीलिए तो मीडिया संस्थान बने हैं। यही तो हम सीखते-सिखाते हैं। न हो कुछ भी, तो भी उनकी लपलपाती जीभ से भला कौन बच पाता है?
अस्तु, इस समालोचना के पाठक को जानना-समझना होगा कि यह ‘गुंडा तत्व’ और ‘भाड़े के टट्टुओं’ का हिन्दू संस्कार ही है कि ऐसा कोई मामला नहीं हुआ। वहीं, यह भी सोचना-समझना चाहिए कि क्या होता, यदि भगवा अंगवस्त्रधारी युवाओं की जगह छोटे भाई का पजामा और बड़े भाई का कुर्ता पहने तथा बढ़ी हुई दाढ़ी और मुंडवायी हुई मूँछों वाले युवक होते? और, कोई हिन्दू युवती जोश-उत्साह में या तैश अथवा क्रोध में ‘जय श्रीराम’ बोलने का दुस्साहस करती? दृश्य परिवर्तन के साथ ही बहुत कुछ बदल जाता है परन्तु, आचार्य घसीटाराम श्रेष्ठ को यह बात समझ नहीं ही आती। वे अपने कल्पना लोक में विचरण करते हुए संभवतः जन्नत और 72 हूरों का स्वप्नलोक रच रहे होते हैं। उनका यह स्वप्नलोक कब टूटेगा, कहना कठिन है।
अपनी बौद्धिक खुजलाहट में आचार्य कुल श्रेष्ठ अमीर-गरीब का विभेद लाकर वर्ग संघर्ष, साहब-अफसर का मामला घसीट कर अफसरशाही (नौकरशाही) और द्रोणाचार्य-एकलव्य का उदाहरण प्रस्तुत कर जातिवादी शोषण-दमन के सिद्धांत का पुनःप्रतिपादन (पिष्टपेषण?) करते हैं। अर्थात् एक साधारण-सी सोशल मीडिया पर लिखी तल्ख आलोचना में आचार्य घसीटाराम श्रेष्ठ कितना कुछ और इतना कुछ समेटने-घसीटने का प्रयास करते हैं। बहुतेरे उनकी ऐसी (?) बहुआयामी तथा मारक पोस्ट पर ठेंगा दबा कर उनका उत्साहवर्धन ही नहीं करते, अपितु समर्थन में अनाप-शनाप लिख जाते हैं। क्या करें? उनके मन-मस्तिष्क को आचार्य श्रेष्ठ के घनघोर चिंतन-सृजन ने धर-दबोच (कैद या वश में कर) रखा है। यह सच है कि बौद्धिक-वैचारिक ग़ुलामी में एक विचित्र प्रकार का आनंद होता है। एक ही हुँआ-हुँआ की प्रतिध्वनियाँ दसों दिशाओं से तथा सर्वलोक में एकसाथ गूँजने लगती हैं। स्वतन्त्रता के पश्चात् इतने वर्षों में आचार्य श्रेष्ठों की तपस्याओं ने शिक्षा व्यवस्था में यही इको-सिस्टम (एक-सा) विकसित किया है। हुआ तो क्या हुआ? हुँआ-हुँआ! भरपूर सुखोपभोग करते हैं, फिर भी बेचैनी और बौखलाहट में कहते हैं – सबकुछ एक-सा क्यों नहीं है?
आचार्य घसीटाराम श्रेष्ठ भूल जाते हैं कि जिनकी वक़ालत वे कर रहे/ करते हैं, वे अपने लिए एक अलग क़िस्म की शिक्षा-व्यवस्था चाहते हैं। वे एक अलग ही दुनिया रचते हैं और उसी में जीते-विचरण करते हैं। उनकी दुनिया में देश (राष्ट्र) नहीं होता है। होता है, तो सिर्फ मज़हब और मज़हबीयत!
उत्तर प्रदेश में योगी बाबा का बुलडोजर इसीलिए चला/ चलता है ताकि एक व्यवस्था (लोकोपकारी) की शक्लो-सूरत बन सके। उधर, असम में हिमंता बिस्वा सरमा मदरसे बंद कर एक-सी शिक्षा व्यवस्था (आधुनिक तथा सर्वोपकारी) बनाने हेतु अथक प्रयास कर रहे हैं। अल्पसंख्यकों के हमदर्द प्रधानसेवक भटके हुए युवाओं के एक हाथ में कम्प्यूटर और दूसरे हाथ में कुरान एकसाथ, साथ-साथ देने-रखने की बात कर सुधारवादी दृष्टि प्रस्तुत करते हैं। राष्ट्रोद्धारक कहते हैं कि यह सबकुछ एक-सी व्यवस्था की ओर बढ़ने की पहली सीढ़ी है। सही मायने में प्रगतिशीलता का सच्चा पैमाना मोदी-योगी-बिस्वा सरमा प्रस्तुत कर रहे हैं। माना कि दुर्भाग्य है कि श्रेष्ठातिश्रेष्ठों को यह सबकुछ बेस्वाद और बेसुरा लगता है। वास्तविकता यह है कि ये सब अपनी-अपनी व्यवस्था बनाये-बचाये रखने के लिए अतिआतुर हैं। आचार्य घसीटाराम श्रेष्ठ एक-सी व्यवस्था का मिथ समय-समय पर रच कर तथा प्रस्तुत कर आधुनिक बुद्धिवादी (प्रगतिशील?) होने का दम्भ रचते हैं परन्तु संयोग से उनकी बौद्धिक खुजलाहट के चाल-चकत्ते दीख ही जाते हैं।
संबंधित मामले पर बातचीत के दौरान सुना कि आचार्य घसीटाराम ऊँची माने बड़ी (श्रेष्ठ) जात के हैं और ऊँची जात के विद्यार्थियों के साथ अत्यंत सहृदय हैं। विद्यार्थियों की जात देख कर ही अंक देते हैं। वंचितों को ‘एक-सी व्यवस्था’ का मिथ सुना कर तथा बहला-फुसलाकर अपनी नायाब बोतल में उतार लेते हैं और तोता बना देते हैं। तब उस वैचारिक कैद से आज़ाद होना/ कराना बेशकीमती सपना हो जाता है। कक्षा में ‘माल’ का अर्थ बताते हुए उनकी नज़रें कुलांचे भरते हुए (सायास-अनायास) छात्राओं की ओर मुड़ जाती हैं। अपने चेम्बर में छात्राओं के सिर पर हाथ फेरते हुए अतिसहज होकर मधुर मुस्कान के साथ कहते हैं, ‘तुम्हें मुझसे डर तो नहीं लगता? डरने की क्या बात है?’ इस प्रकार वे स्त्री को ‘अभय दान’ देते हैं। मुस्कान जैसी छात्राएँ आचार्य श्रेष्ठ के अभयदान से अचूक अस्त्र बन कर उभरती हैं और चल जाती हैं लक्षित लक्ष्य पर, यथावश्यकता! अभयदान से बच कर निकलने वाली छात्राएँ कहती हैं, आचार्य श्रेष्ठ के आशीष और अभयदान का तौर-तरीक़ा उन्हीं की तरह निराला है।
कुलमिलाकर, ‘चयनात्मक नैरेटिव’ घिसते-घसीटते ऐसे श्रेष्ठ आचार्यों की उम्र गुज़र जाती है। ऐसे घसीटाराम हमारी दुनिया में ‘आचार्य श्रेष्ठ’ कहलाते हैं। विश्वविद्यालय प्रांगण में आचार्य श्रेष्ठों में श्रेष्ठ की ‘मनोहर कहानियों’ का चिट्ठा (कच्चा) लिखने बैठ जाएँ, तो समय ही फुर्र हो जाए। अतः अन्य सत्कार्य हेतु समय बचाने की दृष्टि से ‘कही अनकही’ की श्रृंखला में इस यथा-अर्थपूर्ण कड़ी को विराम देना ही श्रेयस्कर प्रतीत हो रहा है। पाठकों को उबाने वाला न लगे, इसलिए कल्पना का सहारा नहीं ही लिया गया है। कल्पना में अब आनंद कहाँ? आनंद तो यथासंभव यथार्थ में ही है। एक अहिन्दी भाषी तिस पर असाहित्यिक की क़लम से निकले इन शब्दों का क्या है? वही – “हमें पूछत कौन!”
अस्वीकरण : इस पोस्ट में उल्लिखित आचार्य श्रेष्ठ काल्पनिक नहीं हैं। यदि किसी श्रेष्ठातिश्रेष्ठ पर अंशतः अथवा पूर्णतः (अक्षरशः) तर्क-वितर्क लागू हो जाएँ, तो केवल संयोग ही समझें। आशा है, ‘अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के पहरेदार’ आचार्य श्रेष्ठ इस अभिव्यक्ति को भी सहजता और सहृदयता से ही ग्रहण करेंगे। आलोचना में समालोचना की दरकार हरसंभव सीमा तक होनी ही चाहिए। ‘सबकुछ एक-सा हो’ की चाह करने वाले आचार्य श्रेष्ठ को है, तो निश्चय ही मुझ जैसे अकिंचन को भी होनी ही चाहिए। यद्यपि श्रेष्ठतम बौद्धिक खुजलाहट पर किया गया तर्क-वितर्क कुतर्क लगने लगे अथवा कुछ भी (अंशतः भी) बुरा लगे, तो बोलिए – बुरा न मानो होली है! जोगीरा सा रा रा रा!