शेख हसीना का राजनीतिक उतार चढ़ाव
पाँच अगस्त 2024 के दिन बांग्लादेश के उथल-पुथल से भरे इतिहास में एक और घटना जुड़ गयी। असंतुष्ट और उग्र प्रदर्शनकारी प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजिद को पद से हटाने की माँग करते हुए प्रधानमंत्री आवास की ओर बढ़ रहे थे। देश की सेना के प्रधान जेनरल वाकर उज जमा, जो हसीना के दूर के रिश्तेदार भी थे, और जिन्हें हसीना ने ही सैन्य प्रधान बनाया था, ने उग्र भीड़ पर बल प्रयोग से इंकार कर दिया और प्रधानमंत्री को सलाह दी कि वे अपने पद से इस्तीफा देकर तुरंत देश छोड़ दें, अन्यथा उग्र भीड़ का सामना करने को तैयार हो जाएँ। स्थिति स्पष्ट थी। शेख हसीना ने भारत में दिल्ली के पास स्थित हिन्डन वायुसेना स्टेशन में शरण ली।
शेख हसीना देश की राजनीति में अस्सी के दशक से सक्रिय हुईं। 1996 में वे देश की प्रधानमंत्री बनी। अपने इस कार्यकाल में उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था पर ध्यान दिया जिसकी वजह से देश का आर्थिक विकास हुआ और गरीबी घटी। मगर उन्हें अपने इस दौर में राजनीतिक उथल पुथल का भी सामना करना पड़ा।
2001 में हुए आम चुनाव में उनकी राजनीतिक प्रतिद्वंदी और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की नेता बेग़म खालिदा ज़िया को जीत हासिल हुई और वे देश की प्रधानमंत्री बनीं। शेख हसीना ने नेता प्रतिपक्ष की भूमिका निभायी।
2006 में जब ख़ालिदा का कार्यकाल पूरा हुआ तो अगले दो वर्षों के दौरान देश में अंतरिम सरकार का शासन था जो सेना के समर्थन या यूं कहें कि उसकी मर्जी के अनुसार देश चला रही थी। सेना समर्थित अंतरिम सरकार शेख हसीना को पसंद नहीं करती थी। परिणामतः उन्हें घूसखोरी, जबरन वसूली और हत्या के आरोप झेलने पड़े और गिरफ्तारी और हिरासत का भी सामना करना पड़ा, मगर जन समर्थन उनके साथ था और 2008 के चुनावों में उनकी पार्टी, अवामी लीग, अपने सहयोगी दलों के साथ दो तिहाई से भी अधिक बहुमत से विजयी हुई। आगे के आम चुनावों में भी उन्हें और उनके सहयोगी दलों को भारी विजय मिलती रही और 2014, 2018 और 2024 के चुनाव परिणाम भी उनकी झोली में ही आकर गिरे। 2024 में उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में पाँचवीं बार शपथ ली।
शेख हसीना के कार्यकाल की प्रमुख विशेषता थी देश के आर्थिक विकास और आधारभूत ढांचों के निर्माण पर पूरा जोर। उनके कार्यकाल के दौरान देश में नए राजमार्गों, रेलवे लाइनों और बंदरगाहों का तो निर्माण हुआ ही, दूर दराज के गाँवों में भी बिजली पहुंचाई गयी। वस्त्र उद्योग ने उल्लेखनीय प्रगति की और इसके निर्यात ने लगातार नई ऊंचाइयों को छुआ तथा अपने प्रतिद्वंदियों को पीछे छोड़ दिया। 2023 में बांग्लादेश प्रतिव्यक्ति आय के मामले में भारत से आगे निकल गया।
आर्थिक विकास के कारण आई संपन्नता ने शेख हसीना की सरकार को लोक कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने का भी अवसर दिया। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में काफी अच्छा काम हुआ। विशेष रूप से लड़कियों की शिक्षा पर अत्यधिक ध्यान दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि विभिन्न रोज़गारों में महिलाओं की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। 2020 में बांग्लादेश का मानव विकास सूचकांक (जो किसी देश में स्वास्थ्य, शिक्षा और रहन सहन के स्तर की माप करता है) भारत से ऊपर चला गया। शिशु मृत्यु दर में भी प्रशंसनीय गिरावट आयी। यह दर 1973 में 151.4 हुआ करती थी (यानि इस वर्ष प्रति हज़ार जन्मे बच्चों में से 151.4 बच्चों की मौत शैशवावस्था में ही हो जाती थी। वह 2022 में घटकर 24.1 पर आ गयी। इस मामले में भी भारत बांग्लादेश से पीछे रहा।
देश में ग़रीबी घटाने के लिए भी सरकार ने सराहनीय काम किया। 2006 में देश के 41.5 प्रतिशत लोग गरीब थे। 2022 में उनका प्रतिशत घटकर 18.7 पर आ गया था। समाज के उपेक्षित तबकों को सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने की दिशा में भी शेख हसीना की सरकार ने अच्छा काम किया जिसका लाभ परित्यक्त महिलाओं, विधवाओं, वृद्धों, दिव्यांगों, इतर लिंग के लोगों तथा समाज के हाशिए पर स्थित अन्य नागरिकों को मिला।
सन 2021 में संधारणीय विकास लक्ष्यों (सस्टेनेबल डेवेलपमेंट गोल्स या एस.डी.जी.) की प्राप्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रायोजित एक संस्था द्वारा शेख हसीना को ‘एस.डी.जी. प्रोग्रेस अवार्ड’ से सम्मानित किया गया।
इसे विडम्बना ही कहनी पड़ेगी कि जिस शेख हसीना ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत बहुदलीय लोकतन्त्र के झंडाबरदार के रूप में की थी और सैनिक तानाशाही के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की थी उन्हें पिछले कई वर्षों से उनके राजनीतिक विरोधी एक दमनकारी तानाशाह की संज्ञा देते रहे हैं। उनके आलोचकों का आरोप है कि उनके शासनकाल के दौरान जो आर्थिक प्रगति हुई उसकी कीमत देश ने लोकतन्त्र के पराभव और मानवाधिकारों के हनन के रूप में चुकाई। उनके कई विरोधी तो यह भी कह जाते हैं कि देश की आर्थिक प्रगति का सर्वाधिक लाभ उन्हें मिला जो शेख हसीना के करीबी थे।
उन पर पिछले कई वर्षों से अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों, आलोचकों और आलोचना करने वाले मीडिया कर्मियों और संगठनों के विरुद्ध निर्ममता से पेश आने के आरोप लगते रहे हैं। मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि अनेक पत्रकारों को गिरफ्तारियाँ झेलनी पड़ी, उन्हें निगरानी में रखा गया और अन्य अनेक तरीकों से परेशान किया गया। मीडिया के प्रति उनके द्वारा अपनाई गयी तथाकथित कठोरता के कारण आलोचकों के अनुसार देश में प्रेस स्वतन्त्रता का गला घोंट दिया गया।
कतिपय मानवाधिकार संगठनों का आकलन है कि उनके संज्ञान में विरोधियों के अपहरण के कम से कम छः सौ ऐसे मामले आए जिनमें अपहृतों का बाद में कोई पता ठिकाना नहीं मिला। 2001 में सत्ता में आने के बाद शेख हसीना के शासनकाल में सैकड़ों विरोधियों का कथित रूप से कानून को दरकिनार करते हुए बिल्कुल ही सफाया कर दिया गया।
अपने कुछ प्रतिद्वंदियों को परेशान करने के लिए उन्होंने कथित रूप से कानून और अदालतों का भी सहारा लिया। इसके एक प्रमुख उदाहरण देश के मौजूदा कार्यकारी प्रधानमंत्री और नोबेल शांति पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री मुहम्मद यूनुस हैं। उनपर सौ से अधिक आरोप लगाए गए और इस साल के प्रारंभ में उन्हें कैद में भी रखा गया था। यूनुस के समर्थकों का कहना है कि सारे आरोप राजनीति और वैमनस्य से प्रेरित थे।
यदि हम शेख हसीना पर लगाए गए आरोपों को उनके खुद के दृष्टिकोण और परिस्थितियों को ध्यान में रख कर समझने का प्रयत्न करें तो पाएँगे कि देश की राजनीतिक संस्कृति में सच्चे और स्वस्थ लोकतांत्रिक मूल्यों का शुरू से ही अभाव रहा है। वहाँ अपने राजनीतिक विरोधियों के विरुद्ध बिना किसी नैतिक हिचक के हर प्रकार के हथकंडे अपनाए जाते रहे हैं। 15 अगस्त 1975 के दिन शेख हसीना के पिता बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान, जिन्हें बांग्लादेश का संस्थापक माना जाता है के उपर सैन्य अधिकारियों की एक टुकड़ी ने घर में घुसकर हमला किया जिसमें शेख मुजीब के अलावा परिवार के मौजूद सदस्य और कर्मी भी मार डाले गए। स्वयं शेख हसीना की हत्या के कुल मिलाकर उन्नीस बार प्रयास किए गए। 2004 में हुए एक ग्रिनेड हमले में उनकी जान तो बच गयी लेकिन अब उनके सुनने की शक्ति पर प्रतिकूल असर पड़ा। जब वे सत्ता से बाहर थीं तो उन्हें भी कई प्रकार से प्रताड़ित किया गया था और राजनीति से प्रेरित मुकदमे का आरोपी बनाया गया था। सत्ता में आने के बाद शायद शेख हसीना ने महसूस किया हो कि यदि सत्ता में टिके रहना है और देश तथा आम लोगों के लिए कुछ करना है तो उन्हें भी हर उचित-अनुचित तरीके का प्रयोग करना ही पड़ेगा।
इस साल के प्रारंभ में हुए आमचुनावों के बाद जब वे लगातार चौथी बार और कुल मिलाकर पाँचवीं बार सत्तासीन हुई तो विपक्षी दलों ने उन पर चुनावों में व्यापक गड़बड़ी का आरोप लगाया। कोरोना के प्रतिकूल प्रभावों के कारण अर्थव्यवस्था की गाड़ी भी लड़खड़ा गयी थी और पूरे तौर पर पटरी पर नहीं आ पाई थी। देश में मुद्रास्फीति की दर 10 प्रतिशत के आस पास पहुंची हुई थी और विदेशी मुद्रा भंडार की गिरावट चिन्ताजनक स्तर तक पहुंची हुई थी। ऐसे में विद्यार्थियों ने बांग्लादेश के स्वतन्त्रता सेनानियों की संततियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण के विरुद्ध आंदोलन छेड़ दिया। शेख हसीना के राजनीतिक विपक्षियों ने इसे एक अवसर के रूप में देखा और इसमें कूद पड़े। फिर आरक्षण हटाने की मांग पीछे रह गयी और आंदोलन का एक मात्र उद्देश्य शेख हसीना को सत्ताच्युत करना हो गया।
फिलहाल शेख हसीना भारत में ही हैं और अमरीका तथा पश्चिमी जगत ने उन्हें शरण देने से इंकार कर दिया है। यहाँ एक सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या शेख हसीना बांग्लादेश लौट सकती हैं? उनके पुत्र साजिब अहमद वाजिद ने पहले तो इस संभावना से इंकार किया था मगर बाद में उन्होंने अपने पूर्व के बयान का खंडन करते हुए शेख हसीना की बांग्लादेश वापसी की उम्मीद भी जताई। शेख हसीना के लिए इस बारे में फैसला ले पाना बहुत आसान नहीं होगा। अगर वे वापस लौटती हैं तो उनके साथ कुछ भी अकथनीय घट सकता है और अगर नहीं लौटती हैं तो नेतृत्व के अभाव में उनकी अपनी पार्टी अवामी लीग, जिसे आज भी संभवतः तीस से चालीस प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन प्राप्त है, छिन्न भिन्न हो जा सकती है। भारत के लिए भी बांग्लादेश की मौजूदा स्थिति चुनौतीपूर्ण है। शेख हसीना के साथ भारत के संबंध अत्यंत मधुर रहे हैं और उन्होंने भारत विरोधी ताकतों पर बांग्लादेश की धरती का इस्तेमाल करने से काफी रोक लगा रखी थी। वे धर्म निरपेक्ष थीं और उनके सत्ता से जाने के बाद हिन्दुओं और अन्य अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित किया जाने लगा है। ऐसे में भारत को अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों के साथ साथ और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा पर भी ध्यान देना होगा। कुल मिला कर आने वाले दिन भारतीय विदेश नीति और कूटनीति के लिए परीक्षा की घड़ी होने वाले हैं।