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सबरीमला में धर्म का मर्म

 

  • ईश्वर सिंह दोस्त

 

सबरीमला का मामला अब बेहद दिलचस्प हो गया है। इस मंदिर का संचालन करने वाला त्रावणकोर देवास्वोम बोर्ड 6 फरवरी 19 को अपने पुराने रुख से पूरी तरह पलट गया। बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि वह मंदिर में सभी आयु वर्ग की महिलाओं के प्रवेश की इजाजत का समर्थन करता है। क्या यह महिलाओं की 620 किलोमीटर लंबी और करीब चालीस से पचास लाख महिलाओं की भागीदारी वाली इंसानी दीवार की जीत है? या फिर यह आखिरकार देवोस्वम बोर्ड की आँखें खुलना और उसका धर्म के द्वार तक पहुंचना है। धर्म का एक व्यापक अर्थ सम्यक नीति के अनुसार आचरण है। महाभारत काल से ही यह रीत चली आ रही है कि धर्म का संकुचित रूप अकसर धर्म के व्यापक रूप से टकराता है। इसीलिए धर्म क्षेत्र में अनुष्ठान व अध्यात्म के बीच रस्साकशी चलती रहती है।

हालांकि यह निश्चित है कि देवोस्वोम बोर्ड को धर्म के अर्थ का कोई साक्षात्कार हुआ भी है तो यह अनायास नहीं बल्कि जनवरी में इंसानी दीवार के रूप में प्रकट वामा शक्ति के बाद ही हुआ है।क्या देवोस्वोम बोर्ड यू-टर्न लेकर सचमुच धर्म के पक्ष में आ गया है या फिर वह जन दबाव के सामने सिर्फ एक कदम पीछे हुआ है? जिद्दी पुरुषों के साथ मंदिर के द्वार पर खड़े देवोस्वोम बोर्ड का धर्म के द्वार तक पहुंचना महत्त्वपूर्ण तो है। मगर सबरीमला में महिलाओं की धार्मिक आकांक्षाओं की राह में अब भी बहुत से रोड़े हैं। कुछ रोड़े व्यक्तियों व दलों के रूप में साफ तौर पर दिखाई देते हैं, मगर सामंती और पुरूषवादीसोच से बनी सामाजिक संरचनाओं और दिमागी रूढियों के अवरोध दिखते नहीं। वे परंपरा और धर्म के नाम पर राजनीतिक रूप से फैलाई गई सांस्कृतिक धुंध में छिप जाते हैं।

वामा संग वाम

इस मामले में कौन कहाँ खड़ा है? वामपंथ सबरीमला मंदिर में प्रवेश के पुरुषों के अधिकार को कोई नुकसान पहुंचाए बगैर इस बात की लड़ाई के साथ है कि महिलाओं को भी यह अधिकार वापस मिलना चाहिए। दक्षिणपंथ इस मंदिर से महिलाओं के बहिष्करण का हिमायती है। वाम ने वामा का साथ चुना है। वामा का अर्थ महिला या दुर्गा होता है।

वाम मोर्चे की अगुवाई में केरल की तमाम प्रगतिशील ताकतें सबरीमला की प्राचीन परंपरा को बहाल करने के पक्ष में है। वहीं भाजपा की अगुवाई में दक्षिणपंथ केरल हाईकोर्ट के 5 अप्रैल, 1991 के फैसले के बाद दस से पचास साल की महिलाओं के प्रवेश पर लगी कानूनी रोक को बरकरार रखने के पक्ष में है।यह फैसला इंटरनेट में मौजूद है। इसमें हाई कोर्ट ने कहा था- “हम पहले प्रतिवादी त्रावनकोरदेवोस्वोम बोर्ड को निर्देश देते हैं कि वह दस से ज्याद व पचास से कम उम्र की महिलाओं को सबरीमला के पवित्र पर्वत में तीर्थ यात्रा के सिलसिले में आने और साल के किसी भी कालखंड में सबरीमला मंदिर में पूजा करने की इजाजत न दे। हम तीसरे प्रतिवादी, केरल सरकार को निर्देशित करते हैं कि वह देवोस्वोम बोर्ड को जारी हमारे निर्देशों को लागू करने व उनका पालन करने के लिए पुलिस समेत सभी जरूरी सहायता मुहैया करे।”

सुप्रीम कोर्ट के फैसले को इस तरह पेश किया गया जैसे कि वह किसी हजारों साल पुरानी परंपरा में हस्तक्षेप कर रहा हो, जबकि वह दरअसल केरल हाई कोर्ट के 1991 के फैसले को पलट रहा था। साठ के दशक से मंदिर में रजस्वला महिलाओं के प्रवेश पर अनौपचारिक प्रतिबंध लगता गया था और बाद में हाईकोर्ट से औपचारिक पाबंदी की मांग की गई थी। इसके पहले युवा महिलाएं अपने बच्चों का अन्नप्राशन कार्यक्रम करने मंदिर के भीतर जाती थी। उन्नीसवीं सदी के पहले मंदिर में किसी भी तरह का प्रतिबंध नहीं था, क्योंकि गहरे जंगल में स्थित यह मंदिर आगम परंपरा के पुजारियों के अधीन नहीं था। यहां आदिवासी व वंचित जातियों के लोग ज्यादा जाते थे। आज तक यहां हिंदुओंसे इतर धर्म के लोग भी जा सकते हैं। उन्नीसवीं सदी में केरल में धर्म सुधार व समाज सुधार की जो रस्साकशी हुई, उसके बाद सवर्ण जातियों का अधिपत्य इस मंदिर में स्थापित हुआ, जिसके साथ ही महिलाओं पर पाबंदी का बात उठने लगी। अयप्पा के नैष्ठिक ब्रह्मचारी होने का तर्क दिया जाने लगा। यह तर्क विवेक पर प्रहार से पहले सबरीमला की परंपराओं का नकार और धर्म के मर्म पर प्रहार है। यह मिथकीयकहानी की अधार्मिक समझ से पैदा होता है। यह देवता को इंसानी मोहमाया के पायदान पर खड़ा कर देना है। क्या यही तर्क बजरंग मंदिरों में दोहराया जाएगा?

समाज सुधार फिर कार्यसूची में

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद केरल के समाज में जो आलोड़न हुआ, उसका एक बड़ा हासिल यह है कि इसने केरल में महिला आंदोलन, समाज सुधार आंदोलन, जातिविरोधी आंदोलन, सामाजिक, राजनीतिक अधिकारों के आंदोलन और वाम आंदोलन को एक साथ खड़ा कर दिया है। आजादी के पहले केरल के वाम ने समाज सुधार आंदोलनों में अहम भूमिका निभाई थी और उसे सामंतवाद विरोधी संघर्ष से जोड़ा था। वाम इतिहासकार केएनपणिक्कर के मुताबिक विचारों के क्षेत्र में आमूल तबदीली वालीधारा बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में नरम और यहां तक कि मूक भी हो गई। हालांकि इसी दौरान केरल शास्त्र साहित्य परिषद और भारत ज्ञान विज्ञान समिति जैसी संस्थाओं ने साक्षरता आंदोलन, अंधविश्वास विरोधी आंदोलन और वैज्ञानिक चेतना के दूसरे अभियान सफलतापूर्वक चलाए, मगर धर्म व समाज के भीतर के सुधार आंदोलन पीछे हो गए। मंदिर प्रवेश जैसे मुद्दे बौद्धिक रूप से प्रखर नारीवादियों को व कई आधुनिक वामपंथियों को आकर्षित नहीं करते थे। इसका असर यह भी हुआ कि प्रबोधन की विरासत के बावजूद केरल में पितृसत्ता की संरचनाएं मजबूत रहीं।

सबरीमला के बाद इन आंदोलनों में एक-दूसरे के साथ खुल कर खड़े रहने की हिचक खत्म हो गई है। मुख्यमंत्री पिनराई विजयन बताते हैं कि केरल के पुनर्जागरण की विरासत को बचाने के लिए बुलाई गई एक बैठक में दलित व पिछड़े जाति के संगठनों ने महिला दीवार बनाने का प्रस्ताव रखा था, जिसे सभी ने तुरंत मान लिया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ जिस तरह अगड़ी जाति का एक संगठन नायर सर्विस सोसाइटी खुल कर आया और उसने नायर महिलाओं के प्रदर्शन करवाए, उससे एसएनडीपी जैसे पौने दो सौ से ज्यादा संगठन वाम मोर्चे के इर्द-गिर्द जमा होने लगे। इसने मंदिरों में दलित व पिछड़ी जातियों के प्रवेश के संघर्षों के इतिहास की स्मृतियों को जीवित कर दिया।

क्या यह विधि की विडंबना है कि आज केरल में वामपंथ धर्म के पक्ष में है और दक्षिणपंथ अधर्म के!कांग्रेस ने केरल में इस मसले पर आरएसएस का नेतृत्व स्वीकार कर लिया है।जहां देवोस्वम बोर्ड ने आखिरकार महिलाओं के धार्मिक अधिकार के पक्ष में यू-टर्न लिया, वहीं भाजपा ने इसके विरूद्ध यू-टर्न लिया।

भैयाजी जोशी

2016 में आरएसएस के भैयाजीजोशी ने केरल में प्रगतिशील छवि बनाने के चक्कर में महिलाओं को सबरीमला मंदिर में प्रवेश दिए जाने की पुरजोर वकालत की थी। मगर जब शहरों में प्रभावी नायर सर्विस सोसाइटी ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का विरोध करना शुरू किया तो भाजपा को चुनावी मौका नजर आने लगा।

समाज के दक्षिणपंथियों एक हो!

अब इस मसले पर हिंदू व मुसलिम दक्षिणपंथ एक जगह आकर खड़ा है। केरल में ईसाई व मुसलिम धर्म के रूढ़िवादी तबके ने सबरीमला के मसले में दक्षिणपंथ का समर्थन किया। शायद उन्हें डर था कि धर्म व समाज सुधार का यह कारवाँ उनके द्वार न पहुंच जाए। मुसलिम दक्षिणपंथ तीन तलाक के मामले में कोर्ट या विधायिका के हस्तक्षेप को धर्म में राज्य का हस्तक्षेप बताकर नकारता है। यही बात हिंदू दक्षिणपंथ सबरीमला के मुद्दे पर कर रहा है। साम्य इतना गहरा है कि दोनों तरफ के बयानों में लोगों व मुद्दों को बदल दें तो वे एक-दूसरे के बयान बन जाएंगे। यह साम्य थोड़ा आगे भी जाता है।यह है उदारवाद को धर्म के क्षेत्र से दूर रखने का। उदारवाद यानी भारतीय संविधान की प्रस्तावना, जिसमें समता व न्याय के अधिकार की बात की गई है। मजेदार बात यह है कि अपनी बात को मजबूत बनाने के लिए धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को देने वाले संविधान के ही एक अनुच्छेद की दुहाई दी जाती है।

क्या किसी धार्मिक समुदाय को यह अधिकार नहीं होना चाहिए कि वह अपने पूजास्थल को अपने नियमों के मुताबिक चलाए? संविधान की उदारवादीसोच कहती है कि धर्म के हर मामले में राज्य को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। मगर धर्म व्याख्याओं, टीकाओं, भाष्यों व विवादों से स्वतंत्र नहीं है। धर्म शब्द व संस्था के बहुलार्थ हैं। इसमें अध्यात्म की समतावादी पुकार से लेकर अनुष्ठानों के शक्ति-संबंध तक आते हैं। कई बारधर्म जीवन पद्धति के रूप में अपने ही कुछ धर्मावलंबियों के दमन व प्रभुत्व पर आधारित हो सकता है, जैसे कि छुआछूत, जाति दमन, पितृसत्ता से वैधता प्राप्त हिंसा व दमन। यहां संविधान का दायित्व है कि वह इन धर्मावलंबियों को धर्म के नाम पर पुख्ता हुए सामाजिक शक्ति संबंधों के चंगुल से निकालते हुए धर्म के भीतर के दूसरे स्वरों को सुने और न्याय का मौका दे।

लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं।

 

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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