ग्रामीण महिलाओं की पहुँच से दूर है स्वास्थ्य व्यवस्था
भारत क्षेत्रफ़ल के नजरिये से दुनिया का सातवां सबसे बड़ा देश है। उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिम के कोने कोने तक यहाँ गाँव बसे हैं। इसीलिए कहा जाता है कि “भारत की आत्मा गाँव में बसती है।” अब जहाँ देश की आत्मा बसती है, तब तो और ज़रुरी हो जाता है कि हम वहाँ की मौजूदा ज़रूरत अर्थात स्वास्थ्य व्यवस्था सिस्टम को टटोलें और देखे कि ज़मीनी हकीकत क्या है? विशेषकर ग्रामीण महिलाओं की उस सिस्टम तक पहुँच कितनी आसान है? हम महिलाओं की बात विशेष रूप से इसलिए कर रहे हैं क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में देश की इस आधी आबादी के लिए अब भी बहुत सी सुविधाओं तक आसानी से पहुँच नहीं है।
इंटरनेट के इस आधुनिक दौर में जहाँ शहर की आधी आबादी के लिए मोबाइल ऎप के ज़रिए डाक्टर और दवाएं घर घर तक पहुँच संभव है उसी दौर में गाँव की आधी से ज्यादा आबादी मेडिकल स्टोर के नीले,पीले और हरे पत्ते वाली गोलियों पर निर्भर है। उनकी जिन्दगी झोला छाप डॉक्टरों के नुस्खों पर निर्भर करती है। ऐसी स्थिति में सवाल यह उठता है कि जब महामारी ने बड़े बड़े विकसित देशों की स्वास्थ्य व्यवस्था को हिला कर रख दिया है तो पहले से ही कमज़ोर हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था में क्या बदलाव आये हैं? दूसरा बुनयादी सवाल यह है कि एक तरफ़ देश के सभी बड़े जिला अस्पतालों को कोविड अस्पतालों में बदला जा रहा है, तो वहाँ बाकी आपातकालीन बिमारियों के लिए क्या व्यवस्था है और इसके बारे में लोग क्या सोचते है?
इन्हीं सवालों का जवाब ढूंढने के लिए हम उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिला स्थित रामपुर बबुआन गाँव पहुंचे और वहाँ के लोगों से की। इसी क्रम में वहाँ की स्थानीय निवासी लालती देवी से बात की, 34 साल की लालती देवी पढी लिखी गृहणी हैं। उन्होने हमें बताया कि- “छोटी मोटी बीमारियों के लिए कोई किसी डॉक्टर के पास नहीं जाता है। एक तो इतनी गरीबी है कि दो वक्त के खाने का जुगाड़ भी मुश्किल से हो पाता है। उसपर डॉक्टर को देने के लिए ही पैसा कहाँ से कोई लायेगा?” हमने उनसे जानना चाहा कि आपके जिले के प्राथमिक स्वास्थ केंद्र पर भी मुफ़्त व्यवस्था है, उसके बारे में आप क्या सोचती है? इस पर लालती देवी कहती हैं कि- “मैं अकेली औरत हूं, पति शहर में काम करते हैं और वहीं रहते हैं, तो बच्चो की ज़िम्मेदारी मेरे ही ऊपर है। हमारे क्षेत्र में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ब्लॉक में बना है, जो यहाँ से कम से कम 8-10 किमी दूर है। मैं या मेरे जैसा कोई भी, वहाँ बात बात पर नही जा सकता है। इसके अतिरिक्त वहाँ जाने का साधन तक नही है। ऐसे में जब भी मेरे घर में कोई बीमार होता है हम मेडिकल स्टोर से दवा लाकर खा लेते हैं और वैसे भी अब के समय में तो लोग वैसे ही जिला अस्पताल जाने से डरते हैं कि कहीं करोना जाँच हो गयी और कुछ निकल आया तो एक और आफ़त है।
गाँव वालों के बीच एक भ्रांति कोरोना के टीका को लेकर भी है। इस भ्रांति की वजह से वह स्वास्थ्य केंद्र जाने से डरने लगे हैं। उन्हें इस बात का भय है कि यदि कोई जाये तो उसको पकड़ के करोना का टीका ही लगा देंगे” महामारी के समय के अपने अनुभव साझा करते हुए लालती देवी बताती हैं कि- “पिछले साल मुझे महिलाओं से सम्बन्धित कुछ समस्या हो गयी थी। पति मेरे बाहर थे मैं किससे कहती? बाकी किसी को ऐसी निजी समस्या के बारे में कहना मुझे अच्छा नहीं लगा, ऊपर से करोना का डर और अस्पताल दूर होने के चक्कर में मैंने अपने पति के आने का इंतज़ार करना ही उचित सही समझा। हालाँकि मेरी बिमारी ठीक हुई, लेकिन इंतज़ार के चक्कर में मेरा इंफ़ेक्शन बढ गया था।”
हमने लालती की सारी बातों के निचोड़ में इतना ज़रुर समझ लिया कि अस्पतालों का गाँवो से दूर होना उन परिवारो की महिलाओं के लिए ज़रुर एक बड़ी चुनौती है जिसमें सिर्फ़ महिलाएं घर को संभाल रही है। प्रशासन को सोचना होगा कि ऐसी परिस्थिति क्यों हो रही है जबकि इस साल बजट में वित्त मन्त्री द्वारा स्वास्थ्य के क्षेत्र में आत्मनिर्भर भारत योजना के तहत बताया गया कि 64,185 करोड़ रुपये सरकार खर्च करेगी। इसके साथ साथ 35000 करोड़ अलग से कोविड महामारी के लिए निकाले गये हैं, जिसे प्राइमरी,सैकेंडरी और टर्सियरी हेल्थ केयर पर खर्च करने का प्लान है। कुल मिलाकर पिछले साल के मुकाबले इस साल के राष्ट्रीय बजट में 137 फ़ीसदी की बढोत्तरी की गयी जिसमें बताया गया था कई हैल्थ सेंटर भी खोले जायेंगे। ऐसी स्थिति में लालती के सवाल हमारे सामने आकर खड़े हो जाते हैं?
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दूसरी तरफ़ संदीप भी इसी गाँव के निवासी हैं। हाल ही में इनकी मामी का बच्चेदानी का ऑपरेशन हुआ है। हमने उनसे जानना चाहा कि जब महामारी अपने चरम पर थी, तो उन्होने कैसे इस बिमारी का सामना किया? इस पर संदीप कहते है कि- “मैं तो चाहता था कि अपनी मामी को जिला अस्पताल में दिखाऊ, लेकिन अस्पताल की भागदौड़ मेरे बस की नही थी। ऊपर से करोना के चलते वहाँ ठीक से लोग देखते नहीं। जब तक जान पहचान न हो कोइ सुनवाइ नही होती। ऐसे हालात बहुत पहले से हैं, लेकिन अब जब से करोना आया है, एक अलग ही छूत की बिमारी हो गयी है। सरकारी अस्पताल में कोई डॉक्टर जाँच कर ले तो समझ लो आपकी बड़ी किस्मत है।”
संदीप ने हमें बताया कि शुरुआत में उनकी मामी से उनकी सरकारी और निजी अस्पताल को लेकर थोड़ी चर्चा हुई थी, फिर अन्त में उन्होने यही निर्णय किया कि चाहे जितना पैसा लग जाये ईलाज तो प्राइवेट में ही करवायेंगे। संदीप की मामी प्रभा देवी उम्र 47 जिनका अभी अभी ऑपरेशन हुआ है कहती है- “हमने पहले ही तय कर लिया था कि चाहे कर्ज़ा ले या खेत बेचें लेकिन इलाज प्राइवेट से ही करवायेंगे क्योकि जीवन के साथ हम दांव नही खेल सकते!” जिला अस्पताल के बारे में ही बात करते हुए संदीप बताते है कि- हमारे पड़ोस के गाँव की लड़की को हाल ही में देर रात अचानक पेट दर्द की शिकायत थी फिर उसे जिला अस्पताल ले गये और वो लड़की खत्म हो गयी। लोगों को लगता है कि यदि उसे निजी अस्पताल में दिखाते तो शायद उसकी जान बच जाती।
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महामारी के दौर में लोगों के अंदर स्वास्थ व्यवस्था को लेकर बड़ी शंका की स्थिति है। इसीलिए भी लोग अस्पताल जाने से बच रहे हैं। इन सभी लोगों की बात से हम इतना अंदाज़ा ज़रुर लगा सकते हैं कि अभी भी ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं के क्षेत्र में बहुत काम करने की आवश्यकता है। विशेषकर महिला स्वास्थ्य के स्तर पर इसे और भी उन्नत बनाने की ज़रूरत है। इसके लिए प्रशासन को एक विशेष कार्य योजना क्रियान्वित करने की ज़रुरत है, जिसमें न सिर्फ़ दवा और डाक्टर उनकी पहुँच में हो बल्कि उनका भरोसा भी निजी की अपेक्षा सरकारी स्वास्थ्य सेवा पर बढ़े, ताकि गरीब ग्रामीण महिलाएं अपने जीवन को सुरक्षित बना सके। (यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवॉर्ड 2020 के अन्तर्गत लिखा गया है)