मुद्दास्त्रीकाल

महिलापूजक देश में

 

सम्प्रति सोशल मीडिया पर दो तरह के लोग सक्रिय हैं। एक वे जो लिखते हैं और दूसरे जो बकते हैं। लिखने वाले लोग अच्छा भी लिखते हैं और बुरा भी। लेकिन बकने वाले लोग बस बकते हैं। और जो वे बकते हैं वे अपने से असहमत लोगों से बहुत मधुरता से संवाद करते हैं। ऐसी मधुरता कि आप सुन्न हो जाएँ। यहाँ सबसे ज्यादा स्थान माँ और बहन को दिया जाता है। अब कोई कहे कि जिस देश में महिलाओं को संसद में सिर्फ 30 फीसदी आरक्षण दिलाने के लिए तीन दशक से लड़ाई चल रही हो, जो आज तक इस मुद्दे पर सहमति हासिल न कर पाने के कारण नाकाम रही हो, वहाँ क्या यह आश्चर्य नहीं है कि ये बकने वाले माँ और बहनों को इतना स्थान दे रहे हैं। हाँ उन्हें देवत्व अवश्य प्रदान किया जाता है।

तो क्या महिलाएँ इस बात को लेकर खुश हैं? नहीं, शर्मशार हैं। उन्हें यह स्थान कतई नहीं चाहिए। इधर दो तीन वर्षों से यह प्रवृत्ति उफान पर है। विगत में इन महिलाओं के लिए पहली बार एक आधिकारिक आवाज उठी थी जिसे उसी वक्त आधिकारिक तौर पर दबा दिया गया। तत्समय केंद्रीय मन्त्री मेनका गांधी ने इन बकने वालों पर, जिन्हें सोशल मीडिया ट्रॉल्स कहते हैं पर नियंत्रण की जरूरत की बात कही थी लेकिन एक अन्य और ज्यादा ताकतवर केंद्रीय मन्त्री अरुण जेटली ने कहा था कि सहन करना सीखो। भावनाओं और आस्था का मामला है!

ये बकने वाले भी काफी लोकतांत्रिक और समदर्शी हैं। ये गाली बकते वक्त नहीं देखते कि सामने पुरुष है या महिला, वृद्ध है या बालक। अब पुरुष तो अक्सर पलट कर गाली दे देते हैं लेकिन महिलाएँ सिर्फ खून का घूंट पीकर रह जाती हैं। क्योंकि माँ-बहन का जिक्र आएगा तो उन पर खुद पर ही बुरी बीतेगी। और ऐसा सबसे ज्यादा महिला पत्रकारों के साथ होता है क्योंकि वे ही सार्वजनिक तौर पर जनता के सामने आती हैं।

किसी समाज में प्रचलित गालियाँ ये बताती हैं कि सबसे बुरा अपमान कैसे हो सकता है। सामाजिक व्यवहार की सीमा क्या है। इनमें छुपी हुई लैंगिक हिंसा यह दिखाती है कि कैसे हम किसी को नीचा दिखा सकते हैं। स्त्री-शरीर ही इन गालियों का केंद्र होता है। इसी कारण युद्ध या सांप्रदायिक दंगों में सबसे पहले महिलाओं को निशाना बनाया जाता है। भारतीय समाज में प्रचलित अधिकतर गालियाँ स्त्री के यौन-अंगों से सम्बन्धित हैं। समाज जब आदिम समय में जी रहा था उस समय ऐसी अपशब्दों की भाषा नहीं होती थी क्योंकि वहाँ स्त्री को बराबर मान दिया जाता था।

जैसे-जैसे समाज ने निजी सम्पत्ति का विकास किया महिलाएँ घर में बन्द होती गयी। पुरुष वर्चस्व हावी होता गया। स्त्री, पुरुष के अधीन बना दी गयी। घर में बन्द स्त्री के साथ परिवार की इज्ज़त को जोड़ दिया गया। आदिम समाज में स्त्री को न केवल शारीरिक सम्बन्धों की आज़ादी थी वरन वह अपने सभी कार्यों में आत्मनिर्भर थी। अब सभ्यता ने उसे परिवार पर निर्भर रहना सिखाया। स्त्री एक ही दिन में गुलाम बन गयी हो ऐसा भी नहीं था। यह कई हजार वर्ष चलने वाला सिलसिला था। अब स्त्री, परिवार की मान मर्यादा की रक्षिता मानी गयी।

इसलिए जब भी किसी समुदाय को अपने अधीन करना होता तो वह वीर पुरुष उसकी स्त्रियों को उठा लेता, बलात्कृत करता, बंदी बनाता उसे हीन भावना का शिकार बनाकर उस स्त्री के किसी और के साथ शारीरिक सम्बन्ध हैं, अतः उसका परिवार सम्मान का अधिकारी नहीं रहा इस बात को सगर्व कहा जाता। जो समुदाय या परिवार जन (पुरुष) कुछ कमजोर होते थे वे यह सब कह कर ही अपना काम चला लेते थे मैं कि तेरी माँ या बहन के साथ सम्बन्ध बना लूंगा इत्यादि बातें। यह मानसिकता न केवल विकसित होती गयी वरन रूढ़ हो गयी। अब इन गालियों को जरा देखिए – ‘चूतिया…’ एक आम गाली जो स्त्री की योनि से ही जुड़ी है। इसका आजकल बहुत प्रयोग होता है।

योनि के नाम पर बनी यह गाली व्यक्ति के मूर्ख होने का संकेत देती है। और यह बनी है स्त्री के उस अंग से जो पुरुष से उसे भिन्न करता है। यानि स्त्री मूर्ख होती हैं। इस बात को यह शब्द हमें बताता है। पूरे स्त्री समाज पर प्रहार करता यह शब्द कितना पितृसत्तात्मक है यह कोई सोचता भी नहीं। एक ऐसी ही गाली है ‘बहनचो……’ है। यह भी अजीब बात है कि हमारे समाज में खाप पंचायतें हैं, अनेक सांस्कृतिक सेनाएँ हैं जो बात-बात पर धर्म संस्कृति का हवाला देती हैं। ये स्त्री को पार्क में किसी के साथ यदि यह देख लें तो डंडा लेकर पीटने लगते हैं। यही लोग जो स्त्री को देवी मानकर उसके पूजने की बात करते हैं मादर.. और बहनचो.. कहने में शर्म महसूस नहीं करते। यही लोग सोशल मीडिया की ट्रोल सेना में सक्रिय हैं।

दुखद पहलू यह यह कि उन्हें राजनीतिक संरक्षण भी प्राप्त है। यह बेहद शर्मनाक है। पर किसी को शर्म कहाँ? इन लोगों को यदि आप टोक दें तो उनका अहम जाग जाता है। उल्टा आपको ये ही गालियाँ सुना देंगे। तर्क करेंगे कि यह हमारे समाज की भाषा है ऐसा ही बोलते हैं हम। यह सही है कि आप ऐसा ही बोलते हैं पर आप सभ्य नहीं हैं यह भी हम अच्छे से जानते हैं, लाख संस्कारों चोला ओढ़ लीजिए। आपने कभी गौर किया है कि हमारे किसी भी प्राचीन ग्रंथ और महाकाव्यों में गाली का एक शब्द भी मौजूद है, नहीं है।

महाभारत में इतनी मारकाट और रक्तपात है पर कोई किसी को गाली नहीं देता। यहाँ तक कि ग्रीक गंथ्रों, जैसे होमर के महाकाव्य ‘इलियड और ओडिसी’ में भी गाली नहीं मिलती। बिहारी, कालिदास जैसे महान कवि, नायिका के अंग-अंग का मादक वर्णन तो करते हैं पर किसी गाली का कोई सन्दर्भ नहीं देते। कुछ अपशब्द जरूर हैं। ध्यान दीजिये कि अपशब्द पुल्लिंग है जबकि गाली स्त्रीलिंग शब्द है। यहाँ तक कि प्राचीन भारतीय-संहिता मनुस्मृति जो शरीर के अंग-विशेषों का नाम लेकर अपराधों की सजा मुकर्रर करती है वह भी किसी गाली का नाम नहीं लेती।

भारतीय साहित्य में अगर बुरी गाली/अपशब्द मिलते हैं तो वह पिछड़ी जातियों और औरतों को लेकर ही मिलते हैं। यह दिलचस्प है कि अलग-अलग संस्कृतियों में बुरी गालियों का मापदंड अलग-अलग है। किन्हीं समाजों में सगे-सम्बंधियों के साथ यौन-संपर्क जोड़ने को सबसे बुरी गाली (माँ, बहन से जुड़ी गालियाँ) माना जाता है। तो किन्हीं समाजों में शरीर के खास अंगों/उत्पादों से तुलना (अंगविशेष या मल आदि के नाम पर दी जाने वाली गालियाँ) को बहुत बुरा माना जाता है। कुछ समाजों में जानवरों या कीड़े-मकोड़ों से तुलना सबसे बुरी मानी जाती है। कुछ समाजों में नस्ल और जाति से जुड़ी गालियाँ सुनने वाले के शरीर में आग लगा देती है। हाँ, लिंग से जुड़ी गालियाँ अमूमन हर जगह पाई जाती हैं।

गालियों का भी लिंग होता है। मसलन पुर्तगाली और स्पैनिश की गालियाँ हैं- ‘वाका’ और ‘ज़ोर्रा’। जिसका मतलब लोमड़ी और गाय होता है। जब किसी महिला को ये गालियाँ दी जाती हैं तो इसका मतलब ‘ख़राब चरित्र की महिला’ होता है। पर जब यही गालियाँ पुरुषों को दी जाती है तो इसका अर्थ ‘चालाक’ और ‘ताकतवर सांड’ हो जाता है। यह लिंग विभाजन ज्यादातर हर भाषा-संस्कृति में है। अब हम मानते हैं कि विदेशी तो होते ही अनैतिक हैं! पर हमारी यह महान संस्कृति महिलाओं की कितनी पूजक और रक्षक है? उन्हें घर में बन्द किया जाता है।

प्रेम करने की छूट तो क्या खापें मृत्यु देती है और सांस्कृतिक सेनाएँ तथा रोमियो स्क्वाड डंडे। यहाँ तो मीरा को भक्ति का भी अधिकार नहीं दिया गया। इसी महान संस्कृति में महिलाओं को ज़िंदा जलाया जाता रहा है। लड़की है यह जानते ही मार दिया जाता था। आज भी भ्रुण हत्याएँ होती हैं, दहेज हत्याएँ भी। आश्चर्य कि यह महान सभ्यता और संस्कृति महिलाओं के शोषण पर टिकी हुई है। मुँह से औरतों के लिए अपशब्द निकालने वाले लोग कतई शर्म महसूस नहीं करते। क्या यही लोग महान संस्कृति के वाहक हैं?

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शैलेन्द्र चौहान

लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं। सम्पर्क +917838897877, shailendrachauhan@hotmail.com
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