आवरण कथासामयिक

बेहतर भविष्य में प्रवेश का रास्ता – धर्म पंचायत

 

  संगीतकार टी एम कृष्णा ने एक गौरतलब सवाल उठाया है कि “हमारे स्कूलों, घरों या सांस्कृतिक संस्थाओं में अब ‘सर्वधर्म प्रार्थनाएं’ क्यों नहीं होतीं। तो हम अचानक एक दिन अपने नागरिकों से यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वे सभी धर्मों का बराबर सम्मान करेंगे?” धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ाने के लिये टी एम कृष्णा का स्कूलों में सर्व धर्म प्रार्थनाएं करने का सुझाव व्यावहारिक लगता है। ऐसे तरीके पहले भी अनेक दफा आजमाये जा चुके हैं। पर अधिक चिंता की बात यह है कि हमने भारतीय समाज में सांस्कृतिक और धार्मिक बराबरी, सहनशीलता और भाईचारे को बढ़ाने के लिये ऐसे किसी तरह के सजग प्रयास करने अब छोड़ दिये हैं। हालांकि 19वीं शती के आधुनिक नवजागरण की सांस्कृतिक विरासत इस सन्दर्भ में हमारे लिये उपयोगी हो सकती है, पर वक्त के साथ उसने अब अपनी जमीन काफी हद तक खो दी है। तब भारत की सोच में एक सकारात्मक तब्दीली दिखाई देनी आरम्भ हो गयी थी। धर्म का साम्प्रदायिक रूप पीछे छूट रहा था और उसे मानवीय संस्कृति के रूप में देखा जाना आरम्भ हो गया था। इसके पीछे हमारा शिक्षित मध्य वर्ग था, जो धीरे धीरे वैज्ञानिक चेतना से युक्त हो रहा था।

इस बात को जमीनी रूप दिया था, ब्रह्मो सभा (राममोहन राय 1828), भारतवर्षीय ब्रह्मो समाज ( केशवचंद्र सेन 1866), आदि ब्रह्मो समाज (देवेंद्रनाथ टैगोर), तत्वबोधिनी सभा (1839), धर्म सभा (राधा कान्त देव),  प्रार्थना सभा (आत्माराम पांडुरंग, भंडारकर और रानाडे 1876) और सत्यशोधक समाज (ज्योतिबा फुले 1873) जैसी संस्थाओं ने। और इस सोच की परिणति हुई थी, महात्मा गांधी की ‘सर्व धर्म प्रार्थना’ सभाओं के रूप में। परन्तु आजादी मिलने के बाद से वह सिलसिला रुक गया। उसकी जगह आ गया संविधान, जो धर्म निरपेक्ष होने की बात करता है। परन्तु वह बात हमारी व्यापक जनचेतना का हिस्सा होने के बजाय, एक राजनीतिक ‘डिस्कोर्स’ में बदल जाती है। धर्म, अपनी साम्प्रदायिक जमीन के साथ अलग खड़े रह जाते हैं। धीरे धीरे धर्म निरपेक्षता को एक विदेशी आयात बता कर गैर जरूरी बनाया जाने लगता है। राजनीति का वोट की राजनीति वाला जो रूप नुमाया होता है, वह धीरे धीरे देश को  हिन्दू , मुस्लिम और सिख राजनीति के साम्प्रदायिक  उभार की ओर ले जाता है।

धर्म राजनीति लोकतन्त्र राष्ट्र

     ऐसे में इस बात पर पुनर्विचार करना जरूरी लगता है कि क्या भारत में सर्व धर्म समभाव की कोई सांस्कृतिक परम्परा है या नहीं है? धर्म निरपेक्षता की धारणा विदेशी लग सकती है, पर उसकी आड़ में सर्व धर्म समन्वय की बात को खारिज कर देना भी अनुचित लगता है। यहाँ, इस संदर्भ में आदि शंकराचार्य की ‘पंचायतन पूजा पद्धति’ की ओर फिर से देखने का प्रस्ताव आपके सामने रखना चाहता हूँ। इस पद्धति की बात करने वाले लोग अब बहुत नहीं रह गये हैं। पर अगर आप पूरे भारत में नौवीं शती के बाद वाले मन्दिरों के निर्माण की ओर ध्यान से देखेंगे, तो इस बात को समझना कठिन नहीं होगा कि वहाँ इस पंचायतन सोच की कितनी बड़ी भूमिका रही है। ये मन्दिर भारत में प्रचलित तत्कालीन धर्मों के अनेक रूपों के समन्वय के उदाहरण हैं। खास तौर पर शैव, वैष्णव और शाक्त धर्मों को एक साथ एक ही पूजा स्थल में अगल बगल बिठा देने का महत्वपूर्ण कार्य इन मन्दिरों के द्वारा कर दिखाया गया।

शैवों और वैष्णवों के बीच कभी कभार जो एक दूसरे को जान से मार देने की हद तक चली गयी दुश्मनी का इतिहास है, वह इस पंचायतन पद्धति के लोकप्रिय होने के बाद बहुत कम ही सिर उठाता है। यहाँ यह बात विचारणीय है कि आखिर क्यों, इसी सर्व धर्म समन्वय वाली सोच के तहत, बाद में अकबर ‘दीने इलाही’ के ‘सुलह कुल’ वाले रूप को भारत की बुनियादी सोच का हिस्सा बनाना चाहता है, पर कामयाब नहीं होता? और यह बात भी उतनी ही विचारणीय है कि जब गांधी की प्रार्थना सभाओं में, हिन्दू मुस्लिम को एक ही जगह बराबर ला कर बिठा देने वाले ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ की बात सामने आती है, तो उस पर सर्वाधिक ऐतराज नाथू राम गोडसे जैसे कट्टर हिन्दू को होता है। वह गांधी की हत्या करके, उसके इस सर्व धर्म समन्वय की भी हत्या करने की कोशिश करता है।

     भारतीय समाज अपने मन से एक उदार, मानवीय और सहनशील समाज है। परन्तु हम कुदरती तौर पर जो हैं, वह हमारा अचेतन व्यक्तित्व है। हमने अपनी इस सांस्कृतिक चेतना को सजग तौर पर जीने लायक नहीं बनाया। आदि शंकराचार्य के द्वारा स्थापित ज्योतिर्लिंग से एक शुरुआत होती है और फिर भारत में ऐसे मन्दिर बनने लगते हैं, जहां कम-अज-कम पाँच देवी देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित होने लगती हैं। यह भारत में व्यावहारिक हो सका पहला और एकमात्र ऐसा प्रयोग है, जिसने भारत के सहिष्णु अन्तर्व्यक्तित्व को सांस्कृतिक जमीन प्रदान करने की सजग कोशिश की। उसके व्यापक परिणाम भी निकले। पर अकबर और गांधी अपनी समन्वयी सोच को, शंकराचार्य की तरह न तो कोई गहरी दार्शनिक सैद्धांतिकी दे सके और न ही वह बात व्यापक रूप में मान्य सांस्कृतिक धार्मिक संस्थाओं के निर्माण तक पहुँच सकी।

     हम अपने मानवीय और समन्वयी स्वरूप को भूलते जा रहे हैं। इससे एक समस्या पैदा होती है। उदार मना होने के कारण हम साम्प्रदायिक  विद्वेष और नफरत से भर कर जीना नहीं चाहते। पर हम हिन्दू मुसलमान के दरम्यान नफरत फैलाने वालों का विरोध करने की स्थिति में भी नहीं होते। अल्पसंख्यक होने के कारण मुसलमान और अन्य धर्मावलम्बी,  जो इस नफरत की सियासत के निशाने पर आ जाते हैं, सामान्य हिन्दू लोग उन का न तो विरोध करना चाहते हैं और न उनके पक्ष में ही खड़े हो पाते हैं। ऐसा करके वे साम्प्रदायिक ताकतों के निशाने पर बेवजह ही आ सकते हैं, जिससे वे बचना चाहते हैं। ऐसे हालात में अब हमारा समाज, एक सहनशील समाज नहीं रह गया है। एक दूसरे को जरा सा भी अपने विरोध में खड़ा पाकर, उनसे नफरत करने का चलन-सा हो गया है। इस मानसिकता को गहराने में सोशल मीडिया ने व्यापक भूमिका निभाई है। व्हाट्सएप्प आदि की मदद से सुनियोजित रूप में झूठा इतिहास बोध खड़ा किया  जा रहा है। नतीजतन हमारा समाज उदार मना हिन्दू मुसलमान के कुण्ठित होकर रह जाने की हालत में आ गया है।यह स्थिति इसलिये भयावह है, क्योंकि उदार हृदय से ताल्लुक रखने वाली सहनशीलता ने जैसे अपनी भाषा खो दी है। हमारे पास सार्वजनिक रूप में ऐसे हालात का प्रतिरोध कर सकने वाले शब्दों की कमी पड़ गयी है।

    ‘क्रांति’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो लगता है, जैसे हम किसी हिंसक गिरोह के सदस्य हो गये हैं। जब हम ‘धर्मनिरपेक्ष’ होने की बात करते हैं, तो लगता है, जैसे हम अल्पसंख्यक धर्म-समुदाय के तुष्टीकरण का फायदा उठाने वाली सियासत करने लगे हैं। समानता, स्वतन्त्रता, बन्धुता , न्याय, प्रजातन्त्र, सर्वोदय और संविधान का सम्मान करने जैसी बातें भले ही अभी तक अर्थपूर्ण लगती हैं, पर वे हमें ऐसे ‘पढ़े लिखे बुद्धिजीवी’ की श्रेणी में ले जाकर खड़ा कर देती हैं, जिसे समाज का एक बड़ा तबका जमीनी हकीकत से कटा हुआ मानता है। उदारता और सहनशीलता को इलेक्ट्रोनिक मीडिया चैनल और व्हाट्सएप्प ग्रुप कायरता, अकर्मण्यता और पलायन की मानसिकता से जोड़ने में कामयाब होते जाते हैं। इस तरह हम पाते हैं कि ऐसी सोच रखने वाले लोगों के पास बहुत थोड़ी सार्वजनिक ‘स्पेस’ बची है। वे अपनी बात को ठीक से रख पाने लायक नहीं रह गये हैं। रखते हैं, तो उनकी बात इतने कम लोगों तक पहुँचती है कि कहीं खोकर रह जाती है। लोग ऐसी बातों को सुनना, समझना और उनके साथ खड़े होना चाहते हैं, पर खुद को हाशिये पर डाल दिये जाने की वजह से निष्क्रिय पड़े से दिखाई देते हैं। उनसे जुड़ा तमाम विमर्श, सिवाय भविष्य की उम्मीद जगाये रखने के, और कुछ नहीं कर पाता। अपने समय में हस्तक्षेप करना, जैसे उसके बस की बात नहीं रह गया है।अगर हम अपने समय की इस दुविधा और सीमा को समझ पा रहे हैं, तो हम पूछ सकते हैं कि विकल्प क्या है?

        मुझे लगता है कि यह समय नवजागरण के अधूरे पड़े रह गये लक्ष्यों की पूर्ति के लिये भूमिका बनाने का समय है। पर इस शब्द के साथ भी वही दिक्कत है।  ‘नवजागरण’ और ‘प्रबोधन’ जैसे शब्द भी अभिजात बौद्धिक ( इलीट इंटेलेक्चुअल) के द्वारा ही इस्तेमाल में लाये जाने वाले शब्द हो गये हैं। इनका प्रयोग करने से भी यही लगता है कि सामान्यजन के लिये इनका कुछ खास अर्थ नहीं है। हम चाहते हैं कि हम आदमी के इन्सां होने की बात करें और वह भी एक  हिन्दू या एक मुसलमान हुए बगैर कर पाएँ। पर ऐसा करने के तमाम तरीके और रास्ते खो गये हैं। हम अपने देश को बेहतर लोगों के एक बेहतर समाज की तरह देखना चाहते हैं, पर हमारे पास उदार और सहनशील होने के विकल्प नहीं बचे हैं। ले देकर जो बात ‘सर्वधर्म समभाव’ की बात तक आकर रुक गयी है, उसका सम्बन्ध भी एक अच्छे हिन्दू , मुसलमान, सिख या ईसाई होने से होता है। हमारे यहाँ आधुनिक नवजागरण के आखिरी महानायक महात्मा गांधी हमें वहीं तक ले गये थे। वे एक अच्छे हिन्दू और एक अच्छे मुसलमान को ऐसे आदमी की तरह देखते थे, जो ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ तो कहता था, पर हिन्दू और मुसलमान बना रहता था।

दोनों धर्मों को, एक ही परमात्मा को पूजने वाले दो अलग धर्मों की तरह देखने की बात, ‘न हिंदू न मुसलमान’ होने की बात नहीं बन पाई थी। बेशक हम अब भी ‘सर्वधर्म प्रार्थना सभाएं’ आयोजित करके इस दिशा में फिरसे एक शुरुआत कर सकते हैं। पर हमें ऐसी प्रार्थनाओं को एक नयी शक्ल देनी पड़ेगी। हमें उन्हें भारत के लोगों की एक नयी धार्मिक सांस्कृतिक ‘पहचान’ हो जाने लायक बनाना पड़ेगा। इसके लिये हमें अपनी सांस्कृतिक परम्परा की एक नयी व्याख्या करनी होगी। और दूसरे, उसे अपने देश के वास्तविक इतिहास बोध की तरह ग्रहण करने लायक बनाना होगा। आइये देखते हैं कि क्या ये मुमकिन है?

     हमारे समाज का, खास तौर पर नयी पीढ़ी का साम्प्रदायिक ‘ब्रेनवाॅश’  होना आरम्भ हो चुका है। इससे बाहर निकलने के, बाकी रास्तों के बन्द हो जाने के बावजूद, एक व्यावहारिक रास्ता जरूर बचा रह गया है। वह है, अंग्रेजी माध्यम वाली उच्च शिक्षा को हासिल करके उस दुनिया का हिस्सा हो जाना, जिसे हम बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की भूमण्डलीय  (ग्लोबल) दुनिया कहते हैं। अगर हम हालात की इस पेचीदगी को समझ पा रहे हैं, तो हमें सोचना होगा कि जिसे हम ‘हिन्दी नवजागरण’ कहते हैं, उसका हमारे समय तक आते आते क्या हश्र हुआ है।

हालात ऐसे हो गये हैं कि जिस हिन्दी नवजागरण में, समाज को बदलने या प्रबोधित करने की गुंजायश दिख रही थी, वह ‘भारत को विश्वगुरू’ बनाने के राजनीतिक अभियान में बदल कर, ‘ हिन्दू नवजागरण’ का रूप ले चुका है।

          हिन्दू धर्म का बुनियादी ढांचा ज्ञानात्मक नहीं है। किसी भी धर्म का नहीं होता। इसके बजाय, धर्मों की जमीन, ज्ञान मूलक विचारों और सिद्धान्तों  के कर्मकाण्डी रूपों पर खड़ी होती है। कर्मकाण्ड आस्था से चलते हैं। हमारे  यहाँ आस्था के लिये ‘श्रद्धा’ शब्द का इस्तेमाल होता है। इसका मतलब सत्य को धारण करना होता है। तो, ज्ञान की जो बातें सत्य सिद्ध होती हैं, उन्हें कर्मकाण्ड की शक्ल देकर धारण कर लिया जाता है। इसलिये हिन्दू धर्म में बेशुमार कर्मकाण्ड हो गये। बेशक उनका सम्बन्ध भी ज्ञान से बना रहा। शुरू में ज्ञान को प्रतीक रूप में कर्मकाण्ड का रूप दिया गया। पर बाद में ज्ञान पीछे छूट गया और हमारे हाथ कर्मकाण्ड ही कर्मकाण्ड रह गये। उनकी ज्ञान मूलक व्याख्या करना चाहें, तो वह आज भी मुमकिन है। पर समस्या ये है कि कर्मकाण्ड में आस्था रखने वाला जो भक्त समाज पैदा हो जाता है, वह कर्मकाण्ड को ही सनातन सत्य मानने लगता है। तो उस के लिये राम, कृष्ण शिव, हनुमान, दुर्गा, उनकी मूर्तियाँ, मन्दिर, जप, कीर्तन, झांझ, खड़ताल, घण्टा, आरती, परिक्रमा, धूप, दीप, नैवेद्य, आरती, पुष्प,  चन्दन, हवन, दुग्ध, घृत आदि तमाम प्रतीक, प्रतीक न रह कर पवित्र, पूज्य, रक्षणीय और ईश्वर के पर्याय हो जाते हैं।

     यही स्थिति भिन्न कर्मकाण्डों के संदर्भ में इस्लाम, सिख, ईसाई, यहूदी, बौद्ध, जैन आदि धर्मों की भी है। सब के पास बचाने लायक अपने अपने सत्य हैं, परन्तु प्रतीकों को पीछे छोड़ कर सत्य या सार मात्र को बचाने की बात अधर में लटकी रह जाती है। अगर कुछ बचा रहता है, तो वे छूछे प्रतीक होते हैं, जो कर्मकाण्डी औपचारिकता निभाने के काम आते हैं। पीछे छिपे सत्य की तरफ कोई नहीं देखता।

         सब लोग जानते होते हैं कि धार्मिक कर्मकाण्ड से किसी को ईश्वर नहीं मिलता, फिर भी लोग धार्मिक बने रहते हैं। धर्म जो नैतिक दबाव पैदा करता है, वह एक तरफ शक्ति देता है, तो दूसरी तरफ हमें अनेक ऐसे मूल्यों से भी बाँधता है, जिन्हें हम विवशता में स्वीकार करते हैं।

     सत्य की खोज हमारी ज्ञान मूलक भूख को शान्त करने के लिये जरूरी है। धर्म इस काम को कठिन बताता है। इसके बजाय वह हमें कुछ नैतिक मूल्यों का पालन करने की ओर ले जाता है। वचन का पालन, मैत्री, अतिथि सत्कार; माता, पिता, पति, ब्राह्मण और गुरू को देवतुल्य मानना; पातिव्रत्य, इन्द्रिय-निग्रह, अल्पाहार, व्रत, तीर्थ स्नान जैसी बातें सामान्य नैतिक व्यवहार के लक्षण मान ली जाती हैं। धीरे धीरे धर्म की रक्षा के लिये प्राण त्याग देने या किसी के प्राण लेने की बात भी एक तरह के नैतिक व्यवहार का हिस्सा बना दी जाती है। जब ऐसा होता है, तब लोग महसूस करते हैं कि वे धर्म की वजह से ऐसी बातों को मूल्यवान मानने के लिये विवश हैं, जिन्हें वे ‘अधार्मिक’ भी कह सकते हैं। ऐसे में वे धर्म की वजह से खुद को फँसा हुआ तक अनुभव कर रहे होते हैं। पर इसका फायदा उठा कर धर्म के उत्साही रक्षक, समाज के नये नायकों या शहीदों की तरह भी, खुद को पेश करने में कामयाब हो जाते हैं। मूल्यों के मामले में धर्मों का रवैया उनके दोहरे होने का सुबूत है। इससे लोगों को भुलावे में रखने का इन्तजाम हो जाता है और धर्म अपने असली मकसद में कामयाब हो जाते हैं। मानवीय मूल्यों के जरिये लोकमंगल करने का दावा करके, वे अपना असली मकसद छिपा लेते हैं। वह मकसद होता है, लोगों को दान दक्षिणा के लिये प्रेरित करने का। इस तरह धर्म, लोगों से धन  ऎंठने की शोषणकारी सांस्कृतिक संस्था बन जाते हैं। मजे की बात यह है कि लोग स्वेच्छा से अपने साथ ये सब होने देते हैं। इस तरह एक परजीवी की तरह धर्म, समाज को चूसते हुए, उसे पतनशील बनाते हैं। वह भी लोगों को मुक्त करने के नाम पर। ऐसा इसलिये होता है, क्योंकि लोगों को लगता है कि वहां बहुत कुछ ऐसा भी है, जो अच्छा है। पर धर्म में जो कुछ अच्छा है, वह अध्यात्म और ज्ञान की दुनिया से उधार लिया गया होता है। इसलिये वे लोग जो धर्मों की असलियत समझ लेते हैं, ज्ञान प्राप्ति, रूपांतर और मुक्ति के लिये या तो अध्यात्म की ओर चले जातेहैं, या विज्ञान की ओर।

धर्म पंचायत

     अब जरूरी हो गया है कि हम धर्म के सवाल पर चुप न बैठे रहें। जो वाजिब सवाल हैं, उन्हें उठाने की हिम्मत दिखाएँ । और अपने लोगों के बीच जाकर उनसे पूछें कि उन्हें क्या चाहिये? धर्म या मुक्ति? हिन्दू राष्ट्र या विकसित भारत? हिंसा की संस्कृति या मानवीय सभ्यता? धर्म के पैरों तले से उसकी जमीन उस वक्त खिसकने लगती है, जब हम धर्म और अध्यात्म में फर्क करने लगते हैं। इसलिये सच्चे अर्थ में आध्यात्मिक होना, हमारे समय का नवजागरण और सांस्कृतिक इंकलाब है।

      हम एक ऐसे दौर में हैं, जब कोई आध्यात्मिक व्यक्ति हमारी रहनुमाई करने के लिये शेष नहीं है। रमन महर्षि, अरविन्द  और जे. कृष्णमूर्ति जैसे लोगों की हमें आज फिर से बड़ी जरूरत है। ये लोग बुनियादी सवाल उठाने वाले लोग थे। ऐसे सवालों के जवाब धर्म के पास नहीं होते।

पर दिक्कत ये है कि आधुनिक काल के ये आध्यात्मिक लोग भी, गोरखनाथ, कबीर और नानक की तरह, लोक चेतना के नये नायक नहीं हो सके थे। इसलिये हमें अचानक वहाँ लौटना पड़ेगा, उस 11वीं सदी में, जब गोरख अलख निरंजन को जगाने वाले अपने योगियों के साथ, पूरे भारत की चेतना का  रूपांतर करने के लिये प्रकट हो गये थे। 

     एक तीसरी वजह भी है। वह यह है कि गोरख के साथ हिन्दी पहली दफा  आकार लेती दिखाई  देती है और आज हमारे दौर में हिन्दी नवजागरण की  सम्भावनाएँ अब तक की सर्वाधिक अवरुद्ध स्थिति में हैं। अरबी फारसी के मेलजोल से हमारे यहाँ जिस हिन्दी का विकास होने लग पड़ा था, उस प्रक्रिया को 16वीं शती के मध्य में उलट दिया गया। नतीजतन हिन्दी का, हिन्दी की तरह विकास रुक गया। अरबी फारसी से यथासंभव परहेज की प्रक्रिया हमारे सूर तुलसी के साथ आरम्भ होती देखी जा सकती है।

         हिन्दी से उम्मीद थी कि वह भारत की विविधता मूलक संस्कृति की जुबान बनती, पर नवजागरण की यह जमीन उसके नीचे से कब सरक गयी, पता ही नहीं चला। हालांकि हमारी फिल्मों ने इस आपसदारी को कभी नहीं छोड़ा, परन्तु इस दुनिया के सरोकार मूलतः व्यावसायिक थे, इसलिये उसकी नवजागरण मूलक भूमिका संदिग्ध बनी रही।

     अब सवाल ये है कि हमारे पास क्या बचा है? कहां से शुरुआत करें कि हम 16वीं शती के मध्यकाल से रुके अपने फिर से मनुष्य हो सकने के आत्मसंघर्ष से जुड़ सकें? क्या करें कि गान्धी, अपने युग की सीमाओं की वजह से, अपना जो काम बीच में छोड़ कर रुखसत हो जाते हैं, उसे उसके मुकाम तक ले जा सकें? इसके लिये पहला काम तो हमें यही करना होगा कि हम गोरख, खुसरो, कबीर और नानक को, नये अर्थ में दोबारा खोजें।

     दूसरा काम हमें यह करना होगा कि गांधी के ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ को आधार बनाकर हम उसे भी गोरख कबीर नानक के, ‘न को हिन्दू न मुसलमान’ वाली बात तक ले जायें। पर यहाँ समस्या यह होगी कि वह जो न हिन्दू है, न मुसलमान, न सिख है न ईसाई, न बौद्ध है, न जैन, उसे हम उसकी नयी पहचान क्या देंगे। यह प्रश्न सबसे अधिक विकट है। गोरख ने उस धर्मेतर  पहचान वाले मनुष्य को ‘जोगी’ कहा — हिन्दू ध्यावै देहुरा/ मुसलमान मसीत/ जोगी ध्यावै परम पद/ जहाँ देहुरा न मसीत। हालात बदले, तो कबीर ने उसे ‘साधु’ का नाम दिया। जोगी और साधु की पहचान भी रूढ़ होने लगी, तो नानक ने उसे ‘सिख’ कहना आरम्भ  कर दिया। ऐसे ही रैदास के पीछे पीछे ऐसे मनुष्य को ‘भगत’ की तरह देखा गया। लेकिन ये ‘भक्त’ और ‘भगत’, दोनों हमारे समय तक आते आते खास अर्थों में  बन्धे दिखाई देने लग पड़े हैं।

          व्यवस्थित संगठित धर्मों से जुड़ी पहचान के धर्मेतर विकल्प खोजने के अतीत में जो प्रयास हुए हैं, अब हमें उनसे अलग, किसी नयी पहचान वाले मनुष्य की ओर आना पड़ेगा। इसे ऐसी पहचान की तरह स्वीकार्य बनाना पड़ेगा कि कोई अगर आपसे पूछे कि आप क्या हैं, तो जवाब में आप मुस्कुरा कर कह सकें, न हिन्दू, न मुसलमान, मेरा तो है ‘सर्वधर्म ईमान’।जब हमारे यहां धर्म निरपेक्षता की बात उठी, तो अनेक लोगों का ध्यान इस बात की ओर गया कि सामान्य भारतीय धर्मनिरपेक्ष नहीं होता, पर वह ‘सर्वधर्म समभाव’ वाला हो सकताहै। लेकिन यह बात चली नहीं, क्योंकि इसे परम्परा  पुष्ट जमीन नहीं मिल सकी। जबकि अगर हमने अपनी सांस्कृतिक  परम्परा की ओर ठीक से देखा होता, तो वहाँ कुछ ऐसा जरूर मिल जाता, जिसका हम अपने समय के इतिहास बोध की मदद से विकास कर सकते थे। इसका सम्बन्ध आदि शंकराचार्य के साथ है, जैसा कि इस आलेख के आरम्भ  में संकेत किया जा चुका है। अगर हम अपने समय के हिन्दुत्व के उभार की जमीन अपनी परम्परा में कहीं ठीक से खोजने निकलते हैं, तो वह हमें आदि शंकराचार्य की परम्परा से सीधे जुड़े, ‘दशनामी अखाड़े’ तक ले जायेगी। अंग्रेजों के भारत में पैर जमाने के आरम्भ करते ही बंगाल की नवाबी हुकूमत के खिलाफ जो संन्यासी विद्रोह हुआ था, उसकी कमान दशनामियों के हाथ में थी।

दुर्गा की शक्तिमाता के रूप में पूजा को उन्होंने, भारतमाता की एक नयी देवी की तरह स्थापना करके, राष्ट्रभक्ति का रूप दे दिया था। यह उनकी ‘पंचायतन पूजा पद्धति’ का विस्तार था। इसमें हिन्दू धर्म के उदार और समन्वयी रूप की मौजूदगी को देखा जा सकता है। यह पद्धति अभी रूढ़ नहीं हुई थी, इसलिये  वहाँ स्थानीय देवी देवता के रूप में, भारतमाता के देवी रूप को स्थान मिल सका था। संन्यासियों के उदार होने का दूसरा सुबूत यह है कि उन्हें इस्लाम से  सम्बद्ध  ‘फकीरों’ का सहयोग मिला था।जहाँ तक फकीरों के इतिहास का सम्बन्ध है, उस बारे में की गयी खोज हमें, गोरखनाथ के ‘मुसलमान जोगियों’ तक ले जा सकती है। वे मूलतः सूफी थे, जो जोगी होकर दर दर घूमने वाले ‘फकीरों’ में बदल गये थे। इन फकीरों को अनेक ग्रंथों में ‘रमता जोगी’ भी कहा गया है।

     यहां तक हमें भारत में समन्वय मूलक आपसदारी की संस्कृति के मौजूद होने के संकेत मिल जाते हैं, जिसकी परम्परा आदि शंकराचार्य और गोरखनाथ से होती हुई उस दौर में भारतमाता की एक देवी के रूप में प्रतिष्ठा में बदलती नजर आती है। यहाँ तक भारत सांस्कृतिक धरातल पर एक ओर अखण्ड  दिखाई देता है। ‘पंचायतन पूजा’ में तत्कालीन देवी देवताओं के उन सभी वर्चस्वी रूपों को जगह दी गयी थी, जिनकी लोक में अत्यधिक प्रतिष्ठा थी। सूर्य, शिव, शक्ति और विष्णु, ये चार देवी देवता उस दौर तक अत्यधिक प्रतिष्ठित थे। इन चारों में पांचवें देवी देवता के रूप में किसी भी स्थानिय विभूति को शामिल किया जा सकता था। यह भारत के आठवीं- नवीं शती के सांस्कृतिक समन्वय का समीकरण था। हम जानते हैं कि बाद के समयों में सूर्य का महत्व कम हो गया था। विष्णु के स्थान पर राम और कृष्ण की प्रतिष्ठा अधिक हो गयी थी। फिर अठारहवीं सदी में भारतमाता के देवी रूप के प्रतिष्ठित हो जाने के बाद उसकी हैसियत स्थानीय  देवी की नहीं रह गयी थी। परन्तु ग्यारहवीं सदी में गोरख के भारत व्यापी महत्व को देखते हुए यह बात भी उभर कर सामने आने लगी थी कि आदि शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धान्त को यह पंचायतन पूजा पूरी तरह आत्मसात नहीं कर पा रही थी। देवी देवताओं की पूजा के समान्तर ‘अलख निरंजन’ के ध्यान की बात भी उतनी ही अर्थपूर्ण थी, जितनी साकार देवी देवताओं की पूजा।

     इसलिए भारत में जब इस्लाम का प्रवेश होता है, तो उसके निराकार अल्लाह से संवाद की स्थितियाँ, गोरख के अलख निरंजन के साथ ही बन पाती हैं। जैसे ही यह संवाद शुरू होता है, गोरख की अहमियत मुहम्मद से कम नहीं रह जाती और एक नया समीकरण निकलता है कि हमें न हिंदू होना है, न मुसलमान, हमारा जोगी होना पर्याप्त है। इसीलिये गोरख के बाद के भारतीय सूफियों ने ‘मुहम्मद बोध’ नाम से इस योग परम्परा के, एक नये ग्रन्थ की रचना तक कर डाली थी। यह बात इस्लाम के अब तक के पूरे इतिहास में, सांस्कृतिक समन्वय का एक अप्रतिम उदाहरण प्रतीत होती है। तथापि हम यह भी देख सकते हैं कि इस्लाम और बाद में भारत में आई ईसाइयत में, ईश्वर और मनुष्य के बीच मध्यस्थ का काम करने वाले मुहम्मद और क्राइस्ट की उतनी ही प्रतिष्ठा है, जितनी हमारे यहाँ देवी देवताओं की। पर वे देवता न कहला कर, ईश्वरदूत या पैगम्बर कहलाते हैं। वैसे यह बात इन धर्मों को एकदम अजनबी बनाने की वजह नहीं है। यह हमारी अपनी वैदिक परम्परा में भी, अग्नि के अन्य देवों और ब्रह्म के बीच दूत होने की तरह, थोड़े अलग रूप में विद्यमान है।

     इन बातों पर गौर करेंगे, तो हम एक नये सांस्कृतिक समीकरण को जन्म देने की सम्भावना तक पहुँच सकते हैं। हम ‘पंचायतन पूजा’  की जगह ‘पंचायतन या पंचायती प्रार्थना’ को चुन सकते हैं।ऐसा करने से प्रार्थना सभा के बंगाली रूप से लेकर गांधी के भजन कीर्तन तक का, वैदिक परम्परा सम्मत रूप विकसित हो सकता है। इसे हम भारत की ‘धर्म पंचायत’ कह सकते हैं। इसके पंचों का चुनाव एक वृहत धर्म मण्डल  से किया जा सकता है। पहले पंच के रूप में राम, हनुमान और कृष्ण, यानी वैष्णव परम्परा में से एक ले सकते हैं।दूसरे पंच के रूप में शिव, दुर्गा, गणेश, यानी शैव परम्परा में से एक।तीसरे में निर्गुण निराकार निरंजन वाली परम्परा के पैरोकारों के रूप में बुद्ध, महावीर, आदि शंकराचार्य, गोरखनाथ, फरीद, कबीर, रैदास और नानक में से एक। चौथे पंच में मुहम्मद, क्राइस्ट और अब्राहम, यानी वैश्विक धर्म परम्परा में से एक को लिया जा सकता है और पांचवे को पूर्ववत स्थानीय रूप में महान और पूज्य माने जाने वालों में से किसी एक को ले सकते हैं, फिर भले ही वे गांधी, भगत सिंह और अंबेडकर जैसे इतिहासपुरुष, या इन सबको आत्मसात करने वाली भारतमाता ही क्यों न हो। बेशक ये नये मंदिर भी नयी तरह के कर्मकाण्डों से युक्त होकर बड़ी जल्दी रूढ़ हो सकते हैं। पर भारत की विषैली होती जाती सांस्कृतिक आबोहवा को कुछ वक्त के लिये, इस तरह के उपायों से, साँस लेने लायक तो बनाया ही जा सकता है।

गुरु नानक

     मैं इस तरह के उपाय आजमाने की बात इसलिये करना चाहता हूं क्योंकि गोरख से लेकर नानक तक भारत जिस आपसदारी की ओर आगे बढ़ा था, उसे भक्ति के संकीर्ण विमर्श के द्वारा ‘आन देवता चित्त न धरऊं’ के दड़बों में बन्द  करके, दमघोंटू बना दिया गया था। ‘मामेकम् शरणं व्रज’ के सिद्धान्त ने, वेदों के उस सिद्धांत को निरस्त कर दिया था, जिसमें पूरे विश्व के सभी मंगलकारी विचारों को खुले मन से स्वीकार करने की बात की गयी है– ‘आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतो’ (ऋग्वेद 1/89) ।अपने यहाँ की उदार मना सांस्कृतिक  परम्परा  में उपजा दूसरा विचार है,, ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति’। इनमें बहुलतावादी विचारों को स्वीकृति दी गयी है। परन्तु फिर जब सभी देवों का एक ईश्वर या ब्रह्म में विलय मान लिया गया, तो अवतारवाद का वह रूप सामने आया, जिसने किसी अन्य के पनपने के लिये गुंजायश खत्म कर दी। बस वही से भारत ने अपनी आत्मा को खो देना आरम्भ कर दिया। ईश्वर के अवतार ही नहीं, पैगम्बर या दूत भी बहुत से हो सकते हैं, इस विचार को स्वीकार करते ही परस्पर विद्वेष की नींव हिल जाती है।

     विविधता बहुलता के रास्ते के परित्याग के लिये तर्क यह दिया जाता है कि इसके कारण हिंदुओं का पराभव हुआ और उसे मुसलमानों और ईसाइयों का गुलाम हो जाना पड़ा। यह अपने भीतर के कलह , वर्ण विभाजन और शूद्रों व स्त्रियों के दमन आदि से सम्बन्ध रखने वाले अपने दुर्गुणों पर पर्दा डालने के लिये खोजा गया बहाना है। हिन्दू जाति के पराभव के कारण, उसकी संकीर्णता, पाखण्ड , आत्म विभाजन और अपने लोगों के दमन में छिपे हैं। हमारे भीतर ये बुराइयां नहीं होतीं तो हमारा पराभव भी नहीं हुआ होता।

     पर हम आज भी आत्म विश्लेषण से दूर भागते हैं। परम्परा के प्रासंगिक पुनर्विकास का साहस हमने खो दिया है। हमारे समाज को लकीर का फकीर बनाये रखने से, हमारे वर्चस्वी लोगों को सत्ता पर अधिकार जमाये रखने का मौका मिलता है। इसलिये हमें एक वैज्ञानिक सोच रखने वाले समाज में बदलने ही नहीं दिया जाता। हिन्दू मुसलमान को आपस में लड़ा कर जिन्हें शासन करने का अवसर मिलता है, वे स्वार्थी और अदूरदर्शी हो गये हैं। दूर की बात वे सोचते ही नहीं। उन्हें जैसे अपनी सत्ता से मतलब है, चाहे उसके लिये भारत के भविष्य को नफरत की आग में क्यों न झोंकना पड़े। इससे बाहर निकलने के लिये पहल तो हम लोगों को खुद ही करनी होगी। ‘धर्म पंचायत’ एक शुरुआत हो सकती है। इसका मकसद सामान्य जन की चेतना को लोकतान्त्रिक  बनाने का होना चाहिये। सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना के अलावा हमारे लिये बेहतर भविष्य में प्रवेश का यह एक उपाय तो जरूर हो सकता है

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विनोद शाही

लेखक हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक हैं। सम्पर्क +919814658098, drvinodshahi@gmail.com
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