यत्र-तत्र

राजेश्वर सक्सेना: एकाग्र तपश्चर्या में एक ऋषिवत साधक

 

डॉ. राजेश्वर सक्सेना हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक और चिन्तक हैं। उनके चिन्तन की परिधि साहित्य तक सीमित नहीं है, बल्कि उसे अतिक्रमित कर वह सामाजिक विज्ञान और दर्शन के दुर्गम इलाकों तक जाते हैं और एक व्यापक वैचारिक परिसर का निर्माण करते हैं। उनका आलोचनात्मक उद्यम वस्तुतः समकालीन समाज और उसके भीतर मनुष्य-जीवन को उसकी समूची ऐतिहासिक गतिकी के सन्दर्भ में समझने के प्रयत्न में विकसित हो रही सैद्धान्तिकी को विश्लेषित करने के वृहत् उपक्रम का हिस्सा है। डॉ. सक्सेना के इस उद्यम को निरी ‘साहित्यिक’ आलोचना नहीं कहा जा सकता, वह आज के सभ्यता-बोध को, और उसके भीतर मनुष्य की नियति के संकेतों को, समझने-बूझने का गम्भीर बौद्धिक प्रयत्न है। वह मार्क्सवाद और उत्तर-आधुनिकता की समकालीन सैद्धान्तिकी और उनमें उलझे अनेक प्रश्नों से टकराते हैं।

हिन्दी-आलोचना इन प्रश्नों से टकराने की अभ्यस्त नहीं है, बल्कि वह इनसे कतरा कर निकल जाती है। अकारण नहीं है कि हिन्दी में बीती सदी के अन्तिम दशक में उत्तर-आधुनिकता का ग़र्दो-ग़ुबार तो ख़ूब उठा, लेकिन उसकी सैद्धान्तिकी के आधार पर हिन्दी में समकालीन साहित्य की व्यावहारिक आलोचना विकसित न हो सकी, न ही उसकी आधार भूमि पर हिन्दी समाज, या व्यापक रूप से भारतीय समाज को समझने की दृष्टि निर्मित हुई। हिन्दी में उत्तर-आधुनिक सैद्धान्तिकी की चर्चा का स्वरूप मुख्यतः परिचयात्मक ही रहा, विमर्शात्मक नहीं। डॉ. राजेश्वर सक्सेना-जैसे इक्का-दुक्का विचारक हैं जो उससे मुठभेड़ करते हुए गम्भीर विमर्श रचते हैं। इस दृष्टि से उनके बौद्धिक-वैचारिक कर्म का महत्त्व स्वयं सिद्ध है।

हिन्दी की निपट साहित्य-केन्द्रित बौद्धिकता में राजेश्वर सक्सेना-जैसे चिन्तकों की उपेक्षा आकस्मिक और अनपेक्षित नहीं है। यह उसकी संकुचित दृष्टि की उस सीमा की तरफ इशारा करती है जिससे वह स्वयं घिरी हुई है, और जिसे लक्ष्य कर हिन्दीतर जगत हिन्दी को ‘किचन लैंग्वेज’ बताते हुए उसका उपहास करता है। हिन्दी-बौद्धिकता सृजनात्मक साहित्य के दायरे से बाहर जा नहीं पाती। हिन्दी के साहित्य में सामाजिक यथार्थ का बोलबाला है लेकिन साहित्येतर अनुशासनों से अलग उस पर विचार की कोई सम्भावना नहीं बनती। प्रायः स्वानुभव ही साहित्य में यथार्थ है। सामाजिक विज्ञान, दर्शन, मनोविज्ञान द्वारा निर्मित यथार्थ के प्रारूप साहित्य में अवांछित हैं।

इस स्थिति में यदि कोई हिन्दी-आलोचक निरी ‘साहित्यिक’ बुद्धिचर्या से परे जाकर यथार्थ को समझने का उद्यम करे तो यह अपूर्व और अप्रत्याशित है। डॉ. राजेश्वर सक्सेना ने यह जोखिम उठाया है। 86 वर्षीय डॉ. सक्सेना बिलासपुर में रहते हैं। सागर विश्वविद्यालय में आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के निर्देशन में पीएच.डी. की डिग्री हासिल करने के बाद वह बिलासपुर के एस.बी.आर. कॉलेज में अध्यापक हो गये। प्रारम्भ में उन्होंने छायावादी कविता का पुनर्मूल्यांकन करते हुए 1963 में पहली आलोचना-पुस्तक ‘छायावाद स्वरूप और व्याख्या’ लिखी। बाद में उनकी रुचि साहित्य के सैद्धान्तिक पक्ष की ओर हुई। 1969 में इस विषय पर उनकी पुस्तक ‘भारतीय काव्य चिन्तन’ प्रकाशित हुई। इसके उपरांत ‘काव्य दर्शन और शैव सौन्दर्य बोध’ (1976), ‘रचना का इतिहास-दर्शन’ (1981), ‘इतिहास, विचारधारा और साहित्य’ (1983), ‘काव्य के जीवनदायी द्वन्द्व और रामचंद्र शुक्ल’ (1988), ‘परम्परा का द्वन्द्व और आलोचना’ (1989) आदि आलोचना-ग्रन्थ सामने आये।

विचारों से मार्क्सवादी डॉ. सक्सेना अथक अध्ययनशील हैं, आज भी वह निरन्तर चिन्तन और लेखन में संलग्न हैं। प्रगतिशील लेखक संघ की गतिविधियों में उन्होंने सक्रिय हिस्सेदारी की और मार्क्सवादी दृष्टिकोण से साहित्य की व्याख्या-विश्लेषण के कार्य में जुटे रहे। वह विचारों की दुनिया के स्थायी नागरिक हैं- निरन्तर अध्ययनशील और अप्रतिहत जिज्ञासु। साहित्य और आलोचनाशास्त्र से होकर वह दर्शन, मनोविज्ञान, समाजविज्ञान तक पहुँचते हैं। विज्ञान का दर्शन के वह अप्रतिम अध्येता हैं।

उनकी लिखी पुस्तकों की सूची पर ग़ौर करें तो छायावाद की सैद्धान्तिक आलोचना से शुरू कर उन्होंने काव्यशास्त्रीय चिन्तन की भूमि पर क़दम रखे और दर्शनशास्त्र तथा मार्क्सवादी सामाजिक चिन्तन की पृष्ठभूमि में आधुनिक साहित्य-विचार की परम्परा के अध्ययन-विश्लेषण का उपक्रम किया। ‘रचना का इतिहास-दर्शन’ और ‘इतिहास, विचारधारा और साहित्य’, मार्क्सवादी दृष्टि से साहित्य और जीवन को समझने का अप्रतिम प्रयत्न है।

फिर 1990 के बाद उनके चिन्तन का दूसरा दौर शुरू हुआ। वह साहित्य तक सीमित यथार्थ-बोध की सीमाओं को समझते हुए सामाजिक विज्ञान, दर्शन और मनोविज्ञान की नवीनतम अवधारणाओं के प्रकाश में आज के वैश्विक यथार्थ को समझने के उद्यम में जुट गये। इस प्रयत्न में उन्होंने पाया कि जब दुनिया को जानने-समझने की तमाम दृष्टियाँ और विचार-सरणियाँ प्रश्नांकित की जा रही हों, पूँजीवाद के इस उत्तरवर्ती दौर में पूँजी, तकनीक, वैश्विक बाजार ने यथार्थ को जब गड्डमड्ड कर दिया हो, और मानवजाति को एक तयशुदा रास्ते पर झुण्ड में धकेला जा रहा हो, तब उसकी नियति की व्याख्या के लिए साहित्य के परिसर से बाहर आकर विचारों के खुले क्षेत्र की नयी आबोहवा में साँस लेना आवश्यक है।

पिछली सदी के अन्तिम दशक में पूँजीवाद ने एक नया चरित्र धारण कर लिया था। फलस्वरूप वैश्विक यथार्थ में व्यापक खलबली मची हुई थी। नयी विश्वव्यवस्था के नाम से ज्ञान-विज्ञान, तकनीक, आर्थिकी, व्यापार और वित्त, समाजनीति, राजनीति आदि तमाम इलाकों में तोड़फोड़ को पुनर्गठन कहकर युक्तिसंगत ठहराया जा रहा था। उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण की आँधी में बहुत-कुछ ढह रहा था। विचारों की दुनिया में उत्तर-आधुनिकता की धमक थी। तब डॉ. सक्सेना ने उससे टकराने का जोखिम लिया। इस प्रयत्न में उन्होंने नये परिदृश्य में यथार्थ की प्रकृति पर बौद्धिक रूप से स्वयं को एकाग्र कर उसे समझने का उद्यम आरम्भ किया। यह उद्यम उनकी चार महत्त्वपूर्ण कृतियों के रूप में सामने आया- ‘उत्तर आधुनिक सौन्दर्यशास्त्र और द्वन्द्ववाद’, (2000), ‘वित्तीय पूँजी और उत्तर आधुनिकता (2001), ‘विज्ञान का दर्शन: फ्रेडरिक एंगेल्स का योगदान’ (2008) और ‘उत्तर आधुनिकता और द्वन्द्ववाद’ (2008)।

1990 के बाद का उनका लेखन उनके भीतर की अत्यन्त गहन बौद्धिक बेचैनी को व्यक्त करता है जो हिन्दी-बौद्धिकता के सुविधावादी और आत्मविकल सृजनात्मकता के दायरे में अन्यत्र लगभग नदारद है। यह बेचैनी उनकी बौद्धिक दृष्टि और भूमिका में बदलाव को सूचित करती है। 1990 के पहले उनकी भूमिका यदि साहित्य-चिन्तक के रूप में थी, तो बाद के दौर में उन्होंने समाज-चिन्तक की भूमिका अख़्तियार कर ली। यह एक बड़ा शिफ़्ट था।

डॉ. सक्सेना ने समकालीन मार्क्सवादी चिन्तन, दर्शन और समाजविज्ञान के अद्यतम विचारों का अध्ययन कर व्यापक दृष्टि अर्जित की। द्वन्द्ववाद को वह तमाम उलझनों और जटिलताओं को खोलने की कुंजी मानते हैं। उनकी राय में ऐतिहासिक भौतिकवाद भले ही नाकाम हो जाए लेकिन द्वन्द्ववाद विफल नहीं होगा। उन्होंने ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न प्रणालियों और ज्ञानानुशासनों, भौतिकशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, भाषा विज्ञान, मानव विज्ञान, सौन्दर्यशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनैतिक अर्थशास्त्र, कला-संस्कृति, सूचना तन्त्र और डिजिटल तकनीक की अद्यतन उपलब्धियों और इन क्षेत्रों में अधुनातन शोध का न सिर्फ गहराई से अध्ययन किया, बल्कि वह उनकी रोशनी में मनुष्य की तमाम साभ्यतिक उपलब्धियों और उनसे सम्बन्धित नवीनतम स्थापनाओं की जानकारी रखते हैं, और उसे समकालीन जीवन और इतिहास पर लागू करने का प्रयत्न करते हैं।

डॉ. सक्सेना उत्तर-आधुनिक यथार्थ को समझने के लिए द्वन्द्ववाद के प्रयोग की नयी परिस्थितियों की पहचान पर बल देते हैं। उनकी दृष्टि में अतीत का चिन्तन सारहीन हो गया है और यथार्थ की नयी अन्तर्वस्तु, ‘नये प्रस्थान और नयी निष्पत्ति को पकड़े बगैर किसी भी तरह के नये चिन्तन और नये कर्म की दुनिया में प्रवेश नहीं किया जा सकता।’ वह मानते हैं कि “हर तरह की पूर्व-निर्धारणाएँ बेमानी हो गयी हैं। कोई ‘युटोपिया’ असरदार नहीं रह गया है।” सारे स्वप्न धूमिल हो गये हैं, ‘सम्भावना पर सोचना कम हो गया है, या बन्द हो गया है।’ और ‘कृत्रिम ज्ञान की नयी कोटियों के प्रभाव में आ जाने के कारण हमारा सम्पूर्ण वस्तुनिष्ठ आत्मनिष्ठ निरपेक्ष-सा होकर रह गया है।’ इन परिस्थितियों में ठोस, मूर्त्त और वास्तविक का स्थान कृत्रिम और आभासी ने ले लिया है।

डॉ. सक्सेना वर्त्तमान दौर के संक्रमण को वित्तीय पूँजी की लीला के रूप में देखते हैं। वित्तीय पूँजी और उन्मुक्त विश्व बाजार में फँसी अर्थव्यवस्था ने मानवीय बोध पर जिस तरह से नियन्त्रण कायम किया है, उसके चलते इतिहास और परम्परा को कूड़ेदान में डाल दिया गया है। उनकी दुर्व्याख्याएँ वास्तविकता बनकर पेश हो रही हैं।

इस दृष्टि से देखें तो यह आकस्मिक नहीं लगता कि स्वाधीनता संग्राम की समूची विरासत और मूल्यबोध को हमारी स्मृतियों से पोंछ दिया जा रहा है। फलस्वरूप ‘राष्ट्र और राष्ट्रीय पद गैर-राजनीतिक से हो जाते हैं।’ उनके अर्थ बदल जाते हैं। ‘ऐसे में, नागरिक-बोध भी पौराणिक-सा होने लगता है। तरह-तरह की कट्टरताएँ और संकीर्णताएँ बढ़ने लगती है। कह सकते हैं कि संस्कृति और इतिहास में विलगाव भरने लगता है। व्यक्ति संस्कृति का तो हो जाता है किन्तु वह इतिहास का नहीं रह जाता।’ वैश्वीकरण के बाद की परिस्थितियों में ये लक्षण भारत तक सीमित नहीं है, वे वैश्विक हैं। डॉ. सक्सेना आधुनिक यूरो-अमरीकी समाजदर्शन और उत्तर-आधुनिक चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में व्यापक सामाजिक क्रिटिक निर्मित करते हैं।

इस सिलसिले में वह नहीं भूलते कि उत्तर-आधुनिक विमर्श ने एक अभूतपूर्व स्थिति पैदा कर दी है। ज्ञान और तर्क पर आधारित आधुनिक समाज में अतार्किक और मनोविक्षेपमूलक स्थितियों के आगमन के साथ तर्क और विवेक का अप्रत्याशित पराभव हुआ है। फलस्वरूप सारी सैद्धान्तिकी और विचार-सरणियाँ संकट से घिर गयी हैं। डॉ. सक्सेना समझते हैं कि उत्तर आधुनिक चिन्तन स्वयं समस्याग्रस्त है। द्वन्द्ववाद के प्रयोग की यही स्थितियाँ हैं जो यथार्थ की सही व्याख्या का रास्ता खोल सकती हैं। डॉ. सक्सेना औद्योगिक क्रान्ति और ज्ञानोदय के मूल्यों के ह्रास, संस्था के रूप में राज्य के पतन, लोकतन्त्र के स्खलन, बाजार की सर्वग्रासिता, पूँजी की तानाशाही, ज्ञानाश्रित समाज के मिथक, तकनीकी क्रान्ति, नयी विश्वव्यवस्था की गतिकी, व्यक्तिवाद के उत्थान, निषेधवाद और सिनिसिज़्म, धर्म-मिथक-अतार्किकता के मूल्यवर्द्धन, मिथ्या की अतिसत्ता, नयी सामाजिक नैतिकता, अमरीकी सभ्यता के खोखलेपन, उसकी साम्राज्यवादी अतिक्रामकता और अमरीकी मूल्यों की वैश्विक स्वीकृति, मानव-भविष्य की चिन्ता आदि अनेक प्रश्न हैं जिन पर डॉ. सक्सेना ने गम्भीर विमर्श किया है।

आधुनिकता के मूलभूत लक्षण अर्थात तर्क और विवेक के ध्वस्त होने के शोरगुल के बीच डॉ. सक्सेना उसके साम्राज्यवादी निहितार्थ की ओर संकेत करते हैं और चेतावनी देते हैं—“ऐसे परिदृश्य में जब कोई यह कहता है कि ‘आधुनिक’ तो ज्ञान का था, वह ज्ञानोदय का था, किन्तु यह ‘उत्तर आधुनिक’ सिर्फ़ तकनालाजी का है, वह ज्ञान-निरपेक्ष का है। यह कि ‘आधुनिक’ तो शब्दार्थ का था, किन्तु यह ‘उत्तर आधुनिक’ तो टर्म्स का है, अनुचिन्हों का है, वह संकेत-संकेतित का है। कि ‘आधुनिक’ तो ‘उदय’ का था, यह उत्तर आधुनिक तो ‘विलोप’ का है। तो यह अर्धसत्य है। इसमें शीतयुद्धवाद का मन्तव्य भी भरा है।”

डॉ. सक्सेना पश्चिमी दर्शन और सौन्दर्यशास्त्र की आधुनिक अवधारणाओं से टकराते हुए जिरह करते हैं। उत्तर-आधुनिक ज्ञानमीमांसा और सत्तामीमांसा के सन्दर्भ-बिन्दुओं को खँगालते हैं। वह काण्ट, हीगेल, नीत्शे, हाइडेगर, लेविस्ट्रॉस, देरिदा, फूको, रोलाँ बार्थ तथा संरचनावादियों और उत्तर-संरचनावादियों  से जूझते हुए प्रैगमेटिज़्म तक आते हैं और उसकी आलोचना करते हैं। उन्हें सन्तोष है कि आज के ज्ञानाधृत समाज में द्वन्द्वात्मक भौतिक की जड़ों में मट्ठा डालने की तमाम कोशिशों के बावजूद फिर से सोशल थ्योरी और सोशल प्रेक्सिस की चिन्ता की जाने लगी है और ज्ञानमीमांसा के पुनर्गठन का काम किया जाने लगा है। वह इस बात की आवश्यकता पर भी ज़ोर देते हैं कि प्रैग्मेटिज़्म से लड़ने के लिए भारत की विरासत को नये ज्ञान-विज्ञान की अर्थमीमांसा में खड़ा करना होगा।

‘उत्तर आधुनिकता और द्वन्द्ववाद’ में उन्होंने अमरीकी समाज और उसके मूल्यतन्त्र को समझने के यत्न में अमरीकी प्रैग्मेटिज़्म की खबर ली है। वह संरचनावादी नृविज्ञान की भी आलोचना करते हैं। उत्तर-आधुनिक परिदृश्य सभ्यता की चेतना पर नृविज्ञान और मनोगतिकी के निरन्तर हावी होने पर चिन्ता व्यक्त करते हुए उन्होंने फुकुयामा के ‘उत्तर-मानवीय भविष्य’ का भी विस्तृत क्रिटिक प्रस्तुत किया है। वह मानते हैं कि उत्तर-मानवीय भविष्य सिर्फ उच्च स्तर की तकनीकी प्रगति से परिभाषित नहीं होता, वह ‘आज के नव-धनाढ्यवर्गीय (इलीट) अर्थशास्त्र के उस तकनीकी ग्रहण से भी है जिसमें आज की समस्त पूँजी का करीब ढाई प्रतिशत ही वास्तविक उत्पादन और व्यापार में लगा है। इसका नतीजा यह हुआ है कि जन-समूह को बायोमास में घटकर रह जाने की एक अनिवार्यता से पैदा हो गयी है।’ मानव-समूह का अनुत्पादक बायोमास में अपघटित होकर रह जाना आज मानव-समाज की सबसे बड़ी चिन्ता होनी चाहिए। यह आज का ज्वलन्त साभ्यतिक प्रश्न है जिसे पूछने की हिम्मत कोई नहीं करता।

डॉ. सक्सेना का लेखन इस तरह के गम्भीर प्रश्नों को उठाने का अकेला उपक्रम है। इसकी गहराई में जाने का बौद्धिक साहस और उसके अनुरूप परिश्रम हिन्दी में दुर्लभ है। इसलिए अचरज नहीं कि डॉ. सक्सेना की पुस्तकों को पढ़ने की ज़हमत ही न उठाई गयी हो। दरअसल उसके लिए बौद्धिक तैयारी भी ज़रूरी है। इस स्थिति से डॉ. सक्सेना स्वयं वाकिफ हैं, और पाठक से वह समुचित तैयारी और ‘विशिष्ट मर्यादा’ की अपेक्षा करते हैं। उन्हें इल्म है कि इस तैयारी के अभाव में हिन्दी के सामान्य पाठक को उनकी पुस्तकों में प्रवेश करने की दिक्कत हो सकती है। उन्होंने लिखा है कि उनकी “भाषा भी ‘आज की’ और ‘आने वाले कल’ की है, वह बासी पड़ गयी भाषा नहीं है। यह भाषा चालू मुहावरों में ‘कुछ को’ या ‘हरेक को’ फ़िट कर देने वाली तरकीब या जुगाड़ की भाषा नहीं है। यह विज्ञान के उस इतिहास-दर्शन की भाषा है जिसे अभी अपना नया रूप ग्रहण करना है। इस भाषा से ‘साहित्येतर’ का हर प्रपंच भी ध्वस्त हो जाता है। यह निषेध और शून्य के प्रतिपक्ष को खड़ा करने की भाषा है।”

अपनी पुस्तक-त्रयी की पहली पुस्तक ‘उत्तर-आधुनिक सौन्दर्यशास्त्र और द्वन्द्ववाद’ के बारे में डॉ. सक्सेना ने आशंका व्यक्त की है- “वे जो ज्ञान की अन्तरानुशासित रीति-नीति से वाकिफ़ नहीं हैं, ज्ञान के संश्लेष-विश्लेष से बाहर रह जाने में सुख पाते हैं, वे इस किताब से घबराते और भय खाते रह जा सकते हैं।” वह जानते हैं कि ‘ऐसों के पास कोई भाव होता भी है तो वह भी हर क्षण उच्छ्रंखलताओं में ही कुलाचें भरता रह जाता है।’ वह मानते हैं कि हिन्दी के इतिहास-दर्शन में विरासत के विकास की चेतना, विश्व-इतिहास की आधुनिक गति में और राष्ट्रीय आन्दोलन के मूल्यों से सम्पन्न रही है। उसमें ज्ञानोदय के मूल्य समाहित रहे हैं, जिनकी अभिव्यक्ति जीवन के यथार्थ में होती रही है। उसमें समकाल का द्वन्द्व भरा रहा है, लेकिन ‘वही, अब जैसे अति-यथार्थवादी और उपभोक्तावादी हुए जा रहा है। हिन्दी में प्रैग्मैटिज़्म का हर मन्तव्य प्रकट होने लगा है। हिन्दी इस प्रैग्मैटिज़्म की हुए जा रही है।’ डॉ. सक्सेना उसकी गम्भीर पड़ताल करते हैं और हमारे समय के परिदृश्य में पसरते वीभत्स को पहचानने और उसके विरुद्ध हस्तक्षेप करने की एक दृष्टि देते हैं।

अब आवश्यक है कि गम्भीरतापूर्वक उनकी आलोचना-दृष्टि और समाज-बोध का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। उनकी उत्कट बौद्धिकता, गहरी वैचारिक तीक्ष्णता और विश्लेषण-कौशल की ओर ध्यान देकर तकनीकी और पूँजी के नये प्रपंच में फँसी मानव जाति की साभ्यतिक नियति को समझने की दिशा में उनकी प्रबल जिज्ञासा और को रेखांकित किया जाना चाहिए

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जय प्रकाश

लेखक साहित्य-संस्कृति से सम्बन्धित विभिन्न विषयों पर पिछले 25 वर्षों से लेखन कर रहे हैं। सम्पर्क +919981064205, jaiprakash.shabdsetu@gmail.com
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