यत्र-तत्र

डिजिटल युग में कविता

 

बीसवीं शताब्दी तक आकर मानव-सभ्यता जिस मुकाम पर पहुँची, वहाँ अभिव्यक्ति के दो माध्यम पूरी तरह विकसित हो चुके थे– वाचिक माध्यम और मुद्रित माध्यम। वाचिक या उच्चरित शब्द सदियों पहले से श्रुति-परंपरा के रूप में मौजूद था। फिर लेखन-कला और मुद्रण-तकनीक का विकास होने के बाद लिखित-मुद्रित पाठ के ज़रिये अभिव्यक्ति का अपेक्षाकृत उन्नत रूप सामने आया। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कम्प्यूटर और सूचना-तकनीक के आगमन के साथ सभ्यता फिर एक नये दौर में दाख़िल हुई। इस बार अभिव्यक्ति का तीसरा माध्यम प्रकट हुआ। यह सायबर-स्पेस-माध्यम है।

कविता सृजनात्मक अभिव्यक्ति का बहुत पुराना माध्यम है। अब तक वह सुनी और पढ़ी जाती थी। मगर अब उसे कम्प्यूटर के स्क्रीन पर भी देखा-पढा और सुना जा सकता है। कविता शब्दों से निर्मित होती है– श्रुति-परंपरा में ‘उच्चरित शब्द’ प्रयुक्त होते हैं, साक्षरता पर आधारित पाठ्य साहित्य में शब्द काग़ज़ पर मुद्रित होते हैं। कविता या तो ध्वनि के रूप में संचरित होती है या लिखित-मुद्रित पाठ के रूप में। लोककाव्य का माध्यम ध्वनि है और मुद्रित काव्य का माध्यम काग़ज़ का पन्ना जिसमें पाठ अवतरित होता है।

लेकिन कम्प्यूटर की तकनीक के विकास के बाद कविता जब काग़ज़ से बाहर आ कर स्क्रीन पर प्रकट हुई तो वह सिर्फ़ शब्द पर निर्भर नहीं रही; बल्कि उसने इस नये माध्यम की संभावनाओं का भरपूर इस्तेमाल किया और सूचना की नयी तकनीक द्वारा निर्मित आभासी संरचनाओं को शब्द के सहयोजन में अथवा उसके विकल्प के तौर पर प्रस्तुत किया। इस तरह सायबरनेटिक्स की तकनीकी नियंत्रण-शक्ति और उसके चमत्कारों का दोहन करते हुए कविता बिल्कुल नये रूपकल्प में सृजन के नये क्षेत्रों में दाख़िल हुई। अब वह एक सम्मिश्र (कंपोज़िट) विधा बन गयी।

कविता अब तक कानों से सुनी जाती थी या आँखों से पढ़ी जा सकती थी। उसकी संचार-प्रक्रिया में दो ज्ञानेंद्रियां पृथक-पृथक सक्रिय होती थीं, कान और आँख। मगर डिजिटल तकनीक ने दोनों ज्ञानेन्द्रियों को एक साथ सक्रिय होने का अवसर जुटा दिया। इस तरह उसने कविता को दृश्य-श्रव्य-पाठ्य एक साथ बना दिया। अब उसे एक समय में पढ़ा, सुना, देखा और जाना जा सकता है। कविता के संचार और उसके आस्वादन के संदर्भ में यह बहुऐंद्रिकता बिल्कुल नयी चीज़ है। उसके आस्वाद के लिये अब वाचिक, दृश्यगत और पाठगत कार्यकलापों को एक साथ यानि समकालिक (सिंक्रोनाइज़्ड) रूप से सक्रिय किये जाने की दरकार हुई। ज़ाहिर है, वाचिक कविता का श्रोता और मुद्रित कविता का पाठक अपनी स्वतंत्र भूमिका खो कर श्रोता-पाठक-दर्शक की एकीकृत भूमिका में स्वतः ही संकेंद्रित हो गया।

अब वह कविता को कम्प्यूटर के स्क्रीन पर देख सकता है। यह ‘देखना’ काग़ज़ पर ‘पढ़ने’ के अनुभव से भिन्न एक संश्लिष्ट सौंदर्यात्मक अनुभव है। यहाँ शब्द को ‘पढ़ने’ का प्रचलित अभ्यास पीछे छूट जाता है। उसे तकनीकजन्य दीगर उपादानों के सहयोजन में ‘देखना’ सर्वथा एक चामत्कारिक क़िस्म के काव्यानुभव में बदल जाता है। इस प्रक्रिया में पढ़ने, सुनने और देखने की क्रियाऍं साथ-साथ घटित होती हैं। इसमें शब्द हैं, आकृतियाँ हैं, स्थिर या गतिशील चित्र हैं, रंग-रेखाएँ और ध्वनियाँ हैं। दिलचस्प यह है कि वे अलग-अलग नहीं, एक साथ, एक ही क्षण में घटित होती हैं। स्क्रीन पर कविता का यह नया अवतार अचंभित करता है। ज़ाहिर है, कविता की बनी-बनायी समझ को यह एकबारगी ध्वस्त कर देता है।

कहने की ज़रूरत नहीं कि नये ढंग की यह कविता आज की उन्नत तकनीक का परिणाम है। तकनीक कविता को बदल दे रही है, बल्कि सच कहें तो उसकी रचना भी कर रही है। अनेक रूपों में प्रचलित इस तरह की कविता को अनेक नामों से पुकारा जा सकता है – डिजिटल कविता, साइबर कविता, कम्प्यूटर कविता, हाइपरटेक्स्ट कविता, चाक्षुष कविता (विज़ुअल पोएट्री), इलेक्ट्रॉनिक कविता, वीडियो कविता, साइबरटेक्स्ट कविता, रीमिक्स कविता, संवादी कविता (इंटरेक्टिव पोएट्री), दृश्य पद्य (विज़ुअल वर्स), गत्यात्मक कविता (काइनेटिक पोएट्री) प्रजननात्मक कविता (जनरेटिव पोएट्री) आदि।

डिजिटल कविता दरअसल कम्प्यूटर की प्रोग्रामिंग प्रकृति या उसके प्रजननात्मक गुण और संयोजन कौशल के द्वारा तैयार किये गये ऐसे पाठ के रूप में चरितार्थ होती है जिसमें शब्दों, ध्वनि-संकेतों, दृश्यों, बिंबों, छवियों के संयोजन से काव्यानुभव का, अथवा विभिन्न काव्यात्मक रूपों का सृजन होता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि डिजिटल कविता काग़ज़ पर लिखी गयी कविता से भिन्न है। उसका स्वरूप, संचरण-माध्यम, संचार-प्रक्रिया और स्वभाव अलग है। कविता का यह चामत्कारिक रूपांतरण है। वह तकनीक के साथ क़दम मिला कर चल रही है।

डिजिटल कविता को समझने के लिए काग़ज़ के भौतिक स्पेस की तुलना कम्प्यूटर स्क्रीन के आभासी स्पेस से करना दिलचस्प होगा। काग़ज़ और स्क्रीन दोनों पर कवि के अनुभव और उसकी संवेदना कल्पना के विविध रूपों में साकार होती है। लेकिन काग़ज़ पर केवल शब्द अंकित किये जा सकते हैं, जबकि डिजिटल कवि स्क्रीन पर शब्दों के अलावा कम्प्यूटर-जनित अन्यान्य युक्तियों का उपयोग कर काव्यानुभव को अधिक सुनियोजित, आकर्षक, प्रभावशाली और सम्भवतः अधिक संप्रेषणीय भी बना सकता है। काग़ज़ पर अंकित शब्द कवि की संवेदना और कल्पना से उपजते हैं लेकिन वे पाठक की कल्पना को मुक्त करते हैं।

डिजिटल कविता

स्क्रीन पर कवि-कल्पना तो मुक्त होती है, लेकिन डिजिटल कविता के पाठक की कल्पना शब्दों, दृश्यों, बिम्बों, ध्वनियों के संयोजन या हाइपरटेक्स्ट के घटाटोप में सिमट जाती है। वह साइबर चिह्नों की सांकेतिकता (सीमिऑटिक्स) में बँध जाती है। यह अनुभव कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे राजा रवि वर्मा द्वारा चित्रित देवी-देवताओं की छवियाँ भारतीय मानस में रूढ़ हो गयीं, जबकि उनसे पहले प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी कल्पना से देवी-देवताओं की नितांत निजी छवियाँ निर्मित करने को स्वतंत्र था। राजा रवि वर्मा के कैलेण्डर आर्ट ने व्यक्तिगत कल्पना की स्वतंत्रता को ख़त्म कर दिया।

डिजिटल कविता में भी पाठक की सर्जनात्मक कल्पना के पंख झर जाते हैं और वह छवियों-साइबर टेक्स्ट-ध्वनियों-संकेतों के जटिल चिह्नशास्त्र में उलझ जाती है। आदिवासी-कला का मानकीकरण हो जाए तो उनके देवी-देवताओं की आकृतियाँ भी अमूर्त्तन और स्वच्छंद कल्पना की स्वतंत्रता खो कर पौराणिक देवी-देवताओं की सुनिश्चित आकृतियों में बँध जाएंगी। वाचिक और मुद्रित कविता भी शब्दों के भीतर छिपी निजी कल्पनाओं की निर्व्यास दुनिया में स्पंदित होती है। इसके विपरीत डिजिटल कविता के भावक (एकीकृत पाठक-दर्शक-श्रोता) के आगे स्क्रीन पर बनी-बनायी कविता परोस दी जाती है। शब्द की पीठ पर उगी कल्पना के पंख नहीं खुल पाते, वह चित्रों और ध्वनियों में लिथड़ जाती है। यह स्थिति तब है जब डिजिटल कविता कवि द्वारा रचे गए प्रारूप से बँधी हुई हो और पाठक उसे सम्मान देते हुए उससे छेड़छाड़ न करे तथा पूरी तरह से आज्ञाकारी बालक की तरह बर्ताव करे।

काग़ज़ पर रची कविता में शब्द अपने समूचे संवेदन-तंत्र यानी अपने इतिहास और स्मृतियों के साथ आता है, जबकि डिजिटल कविता की नयनाभिराम तात्कालिकता शब्दों की झरती स्मृतियों को सहेज पाये, इसमें संदेह है। वह एक विद्युत-स्फुरण, एक फैंसी, एक त्वरा, एक गतिशील कार्य-व्यापार या एक चमत्कार में तब्दील हो जाती है। यह इतना विलक्षण है कि डिजिटल कविता का पाठक (अब वह दर्शक-पाठक-श्रोता में तब्दील हो चुका होता है) उससे जादुई ढंग से प्रतिकृत होता है, लेकिन सम्भवतः वह उससे आश्वस्त नहीं हो पाता। उसका प्रचलित काव्यबोध बिखरने लग जाता है और डिजिटल कविता को कविता मानने में उसे हिचक होने लगती है। मुद्रित कविता के अभ्यस्त पाठक की यह आम समस्या हो सकती है, लेकिन 1990 के बाद जन्मी डिजिटल नेटिव पीढ़ी शायद इसे समस्या की तरह नहीं देखती।

दरअसल डिजिटल कविता का आगमन कुछ-कुछ वैसा ही अनुभव लेकर आया है जैसा कि पंद्रहवीं शताब्दी में छापाखाने के आने पर हुआ था, जब प्रिंट-माध्यम अस्तित्त्व में आया। उच्चरित शब्द की अपेक्षा तब मुद्रित शब्द अपनी प्रतिकृति-क्षमता (किसी पुस्तक की अनेक प्रतियाँ छाप सकने की क्षमता) के चलते जहाँ एक ओर अधिक उपयोगी हुआ, वहीं साक्षरता की बुनियादी शर्त के चलते अक्षर-ज्ञान से वंचित समुदाय तक उसकी पहुँच बाधित भी हुई। छपे हुए शब्द उसके लिये ‘काला अक्षर भैंस बराबर’ थे। ठीक इसी स्थिति में आज डिजिटल साक्षरता (कम्प्यूटर-ज्ञान) से वंचित लोग हैं। नयी पीढ़ी जिसे डिजिटल नेटिव भी कहा जाता है, उसे कम्प्यूटर का सहज अभ्यास है। इसलिए डिजिटल कविता तक उसकी पहुँच भी सहज है। चालीस साल से अधिक उम्र के वे लोग भी जिन्होंने प्रयत्नपूर्वक कम्प्यूटर सीखा है और जो डिजिटल इमाइग्रेंट कहलाते हैं, डिजिटल कविता के अभ्यासी हो सकते हैं। लेकिन डिजिटल इलिटरेट, जिन्हें कम्प्यूटर की जानकारी नहीं है, वे इस नये ढंग की कविता के आगे लगभग असहाय हैं।

इस तरह के संक्रमण-काल में जब अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण का एक नया माध्यम अस्तित्त्व में आ रहा होता है, तब इस नये माध्यम को उससे अनजान होने के कारण भी स्वीकार नहीं किया जाता और उसके प्रति आम लोगों में शुरुआती बेरुख़ी या तकनीक के प्रति अज्ञानजन्य भय देखा जाता है। इसकी कहीं तीखी और नकारात्मक प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक है, जैसे कभी छापाखाना छपे साहित्य को लेकर हुआ निरक्षर जनों को हुआ था।

डिजिटल अभिव्यक्ति के प्रति भी कुछ-कुछ यही रवैया देखने में आये तो अचरज नहीं। अगर कम्प्यूटर न आया होता तो डिजिटल कविता भी संभव नहीं होती। 1960 और 1970 के दशक में पर्सनल कम्प्यूटर के आने के साथ साहित्य काग़ज़ की सीमाएँ लांघ कर इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में प्रविष्ट हुआ। फिर सूचना-प्रविधि की उन्नति के चलते उसके नये-नये रूप विकसित हुए। इस तरह बीसवीं शताब्दी के अंत तक पहुँच कर इलेक्ट्रॉनिक साहित्य निखर आया था। आरंभ में वह सीडी रोम, डीवीडी, इलेक्ट्रॉनिक इंस्टालेशन के रूप में था। फिर सोशल नेटवर्किंग साइट्स के आगमन के साथ उसके स्वरूप में भी परिवर्त्तन होने लगा। वेबसाइट, ब्लॉग, माइक्रो ब्लॉगिंग साइट के बाद फ़ेसबुक, ट्विटर या इंस्टाग्राम उसके नये माध्यम बने।

उसके आकार-प्रकार और स्वरूप में भी क्रमशः बदलाव आया। उदाहरण के लिए इंस्टा-पोएट्री या ट्विटेरेचर जैसे वर्चुअल साहित्य-रूप इंस्टाग्राम या ट्विटर-जैसे माध्यम की अपनी सीमाओं और उनकी प्रकृति के अनुरूप इलेक्ट्रॉनिक साहित्य के ढल जाने के लचीलेपन को सूचित करते हैं। ट्विटर की शब्दसीमा और इंस्टाग्राम का सीमित चौकोर पृष्ठ इस तरह की कविता का स्वरूप (फॉर्म) अपने-आप तय कर देता है। ज़ाहिर है, यह कविता में नया प्रयोग है। क्रिसी विलियम्स ने इसे उचित ही कविता की अपूर्व कामयाबी (ग्रेट लीप फॉरवर्ड) कहा है।

कुल मिला कर डिजिटल कविता सूचना-तकनीक और कविता के पारस्परिक संयोजन से निर्मित रचना है जिसका सृजन शब्दों और मल्टीमीडिया तत्त्वों से मिल कर होता है। यह बहुरूपात्मक विधा है जो अद्भुत चाक्षुष काव्य-रूपों का सृजन करती है। तकनीक का कमाल यह है कि इसे कहीं-कहीं खेल की तरह भी खेल जा सकता है। मसलन ऑस्ट्रेलियाई हाइपर कवि जेसन नेल्सन की एक प्रसिद्ध कृति ‘पोएट्री क्यूब’ को लें। यह परस्पर संवादात्मक (इंटरेक्टिव) कार्यकलाप के रूप में है।

इस खेल में प्रयोक्ता सोलह पंक्तियों की एक कविता की प्रविष्टि करता है जो एक बहुआयामी घनाकृति (क्यूब) में रूपांतरित हो जाती है। नेल्सन ने इसके डेटाबेस में चार्ल्स बर्नस्टीन और एड्रिन रीश जैसे कवियों की रचनाएँ शामिल की है। नेल्सन ने वीडियोगेम कविताओं की एक त्रयी भी तैयार की है जिसमें तीन कृतियाँ हैं– गेम, गेम, एण्ड अगेन गेम, आई मेड दिस, यू प्ले दिस, ‘वी आर एनिमीज़औरएविडेंस ऑफ एवरीथिंग एक्सप्लोडिंग। वीडियो गेम कविताएँ पारंपरिक वीडियो गेम पर आधारित होती हैं। इनमें इंटरनेट पर उपलब्ध विभिन्न स्रोतों से पाठ, तस्वीरों और ध्वनियों को संयोजित किया जा सकता है।

दरअसल जब कोई नयी तकनीक उभर रही होती है तब उसका प्रभाव पारंपरिक माध्यम पर भी पड़ता है। नये माध्यम के साथ स्पर्द्धा में वह भी अपने को बदलने की कोशिश करता है। हाल ही में कार्नेल विश्वविद्यालय में समकालीन जापानी साहित्य पर नयी तकनीक के प्रभाव के अध्ययन के सिलसिले में शोधकर्त्ता एंड्रयू कम्पाना ने एक दिलचस्प तथ्य का उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि 1920 और 1930 के दशक में जब जापान में मूक फिल्मों का दौर बीत रहा था और सवाक फिल्में अस्तित्त्व में आ रही थीं, पहले से रेकॉर्ड किये हुए साउंडट्रैक का प्रयोग शुरू हुआ। तब मूक सिनेमा में इस्तेमाल होने वाले लाइव बैकग्राउंड संगीत या लाइव नैरेशन के लचीलेपन और उससे विकसित स्वतंत्रता की तुलना में इसे कमतर समझा गया। तब बहुतों ने आशंका जतायी कि इससे फिल्मों में प्रयोग की गुंजाइश कम हो जाएगी और वे पहले जितनी रुचिकर नहीं रह जायेंगी क्योंकि तब वे साउंडट्रैक से पूरी तरह बँध जाएँगी।

इसकी प्रतिक्रिया में जापान में एक अभिनव प्रयोग किया गया जो सिने-कविता के रूप में लोकप्रिय भी हुआ। सिने-कविता दरअसल दरअसल ऐसी पटकथा के तौर पर अस्तित्त्व में आयी जिसे उस दौर की फ़िल्म तकनीक के लिहाज से दृश्यांकित करना संभव न था। कम्पाना के मुताबिक कोई सिने-कविता कुछ इस तरह से हो सकती थी कि मसलन पहला दृश्य एक कारख़ाने का हो, फिर अगले दृश्य में सड़क पर भागती एक औरत दिखाई दे, फिर तीसरे दृश्य में उसकी देह के भीतर का वर्णन हो। यह चित्रण कैमरा कर सकता है। लेकिन इसे पटकथा के रूप में कवि भी परिकल्पित कर सकता है। कम्पाना के अनुसार सिने-कविता के रचनाकार न सिर्फ़ सवाक फ़िल्म की कार्यविधि को, बल्कि फ़िल्म-निर्माण में कैमरे की ही भूमिका को खारिज कर रहे थे। वे दावा कर रहे थे कि काग़ज़ पर रची कविता के ज़रिए वे एक नयी तरह की फ़िल्म बना रहे थे जो सेल्युलॉयड पर रची फ़िल्म से ज़्यादा दिलचस्प होगी। इस तरह सिनेमा-जैसे माध्यम के ख़िलाफ़ कविता का यह अपना प्रतिरोध था, जिसमें वह स्वयं बदल रही थी।

तब कम्प्यूटर का चलन नहीं था, अन्यथा सिने-कविता काग़ज़ की बजाए स्क्रीन पर रची जाती। शायद डिजिटल कविता की शुरुआत तभी हो गयी होती। लेकिन सिने-कवियों ने नयी तकनीक के सुलभ विकल्प की कल्पना का साहस तो किया ही था। इस सिलसिले में याद आता है, तीन दशक से कुछ पहले जब भारत में टेलीविज़न का आगमन हुआ था और सोप-ओपेरा को मिल रही अपार लोकप्रियता के चलते उसे हिंदी में कहानी विधा को मिल रही बड़ी चुनौती के रूप में देखा जा रहा था, तब दलील दी गयी थी कि अब वही कहानी सार्थक हो सकेगी जिसे फ़िल्म में रूपांतरित करना असंभव होगा। ज़ाहिर है, आज यह आशंका निर्मूल साबित हो चुकी है। सिने-कविता के पीछे भी अंततः एक निर्मूल आशंका थी।

कहने की ज़रूरत नहीं कि डिजिटल कविता को लेकर भी आशंकाएँ हैं। पहली बात तो यही कि काग़ज़ के पृष्ठ पर कविता पढ़ने का अभ्यास जो आधुनिक जीवन में लगभग रूढ़ि बन चला है, कम्प्यूटर स्क्रीन पर प्रकट होने वाली और रूप-गुण-प्रकृति में भिन्न एक आभासी क़िस्म की कविता के साथ किस तरह संगति बिठा पाएगा, कहना मुश्किल है। हिंदी में डिजिटल कविता का अभ्यास वैसे भी नहीं के बराबर है। इसलिए डिजिटल कवियों को हमारा साहित्यिक समुदाय बराबरी का दर्जा दे सकेगा, इसमें संदेह है। वह तो जनपदीय और लोकभाषाओं के कवियों को भी बराबरी का सम्मान देने को तैयार नहीं है। यह एक तरह का प्रिंट आभिजात्य है जो लोक कविता को निरक्षर जनों के निम्न सांस्कृतिक उद्यम के तौर पर देख कर उसे हीन कोटि का समझता है। वह इस गुरूर को तोड़ कर डिजिटल कविता अपना आभिजात्य रचती है। शायद वह भूलती नहीं कि वह उच्चतर तकनीक की देन है

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जय प्रकाश

लेखक साहित्य-संस्कृति से सम्बन्धित विभिन्न विषयों पर पिछले 25 वर्षों से लेखन कर रहे हैं। सम्पर्क +919981064205, jaiprakash.shabdsetu@gmail.com
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