यत्र-तत्र

स्मारक में मुक्तिबोध

 

मुक्तिबोध की स्मृतियों को सँजोने के लिये राजनांदगाँव में 2005 में एक स्मारक बनाने की योजना पर तत्कालीन छत्तीसगढ़ सरकार ने महत्त्वपूर्ण पहल की। कलेक्टर की अगुवाई में एक समिति गठित हुई जिसमें मुक्तिबोध के मित्र शरद कोठारी, प्राध्यापक डॉ. गणेश खरे और लेखक गणेशशंकर शर्मा सहित नगर के कुछ प्रतिष्ठित नागरिक, राजनीतिक कार्यकर्त्ता और प्रशासनिक अधिकारी शामिल थे। समिति की बैठकों के दौरान अकेले मुक्तिबोध की स्मृति में स्मारक बनाने के विचार को ख़ारिज कर दिया गया और द्विवेदी-युगीन साहित्यकार पदुमलाल पुन्नालाल बख़्शी और डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र को भी योजना में शामिल कर संयुक्त स्मारक ‘त्रिवेणी’ बनाए जाने पर सहमति बनी। बख़्शी जी ‘सरस्वती’ के संपादक रह चुके थे। वह हिंदी निबंध को लालित्य और सुदृढ़ विधागत आधार प्रदान करने वाले महत्त्वपूर्ण लेखक  थे। मिश्र जी ने रामकाव्य पर शोधकार्य किया था और वह उसके अधीत विद्वान थे। वह पहले शोधार्थी थे, जिन्होंने हिंदी में में अपना शोध-प्रबंध लिख कर नागपुर विश्वविद्यालय से 1939 में ‘तुलसी दर्शन’ पर डी. लिट्. की उपाधि प्राप्त की थी। उनसे पहले शोध-प्रबंध अंग्रेज़ी में लिखे जाते थे। उन्होंने रामचरित को केंद्र में रख कर ‘कोसल किशोर’ और तुलसीचरित पर एकाग्र ‘साकेत संत’ सहित लगभग सौ कृतियों का सृजन किया था।

स्मारक के निर्माण के लिए बनी समिति की धारणा थी कि तीनों साहित्यकारों ने नगर का गौरव बढ़ाया है, इसलिये संयुक्त स्मारक का निर्माण उपयुक्त होगा। मूल विचार मुक्तिबोध के दिग्विजय महाविद्यालय परिसर में स्थित उस आवास के संरक्षण का था जिसमें उन्होंने अपने जीवन के अंतिम वर्ष बिताए थे और जहाँ महत्त्वपूर्ण रचनाओं को सँवारा था, या उनमें से कुछ का सृजन किया था; लेकिन अब इसकी जगह संयुक्त स्मारक का विचार आ गया।

राजनांदगाँव के नागरिकों की सक्रिय मुहिम  के चलते छत्तीसगढ़ सरकार ने जब त्रिवेणी स्मारक बनाने की पहल की तो यह उल्लेखनीय क़दम था। स्मारक के निर्माण की तैयारी  के दौरान मुक्तिबोध के आवास को यथावत—जिस स्थिति में मुक्तिबोध अपने अंतिम दिनों में रहते थे, उसी स्थिति में— संरक्षित किये जाने की कमज़ोर-सी माँग उठी थी, लेकिन अनसुनी रह गयी। दरअसल प्रशासन का प्रयास उसे भव्यता प्रदान करने का था। स्मारक पूर्ण होने के बाद कलेक्टर ने गर्वपूर्वक कहा था— ‘कौन यक़ीन करेगा कि यहाँ मुक्तिबोध-जैसा लेखक रहता था। यह तो सचमुच महल-जैसा लगता है।’ ज़ाहिर है, रंगरोगन और फ़र्श आदि बदलने के बाद पूरा घर सुंदर लग रहा था। मैंने मुक्तिबोध को या उनके घर को नहीं देखा है, लेकिन यक़ीन के साथ कोई भी कह सकता है कि यह मुक्तिबोध का घर नहीं लग रहा था। जानना मुश्किल था कि शांताबाई की रसोई कहाँ रही होगी, ग़ुसलख़ाना कहाँ रहा होगा, बैठक कहाँ होगी या मुक्तिबोध कहाँ बैठकर पढ़ते-लिखते रहे होंगे। अब यह उनका घर नहीं रह गया था, त्रिवेणी संग्रहालय में तब्दील हो चुका था।

 

त्रिवेणी संग्रहालय दिग्विजय महाविद्यालय के पिछले हिस्से में स्थित है। रानीसागर और बूढ़ासागर सरोवरों के बीच के सुरम्य भूभाग में स्मारक बनने के लगभग तीन दशक पहले उद्यान का निर्माण किया गया था। 2005 में वहाँ स्मारक के साथ बख़्शी जी, मिश्र जी और मुक्तिबोध की आवक्ष प्रतिमाएँ स्थापित की गयीं। मैंने बख्शीजी और मिश्रजी को रूबरू देखा है। मगर उनकी प्रतिमाएँ उनकी मुखाकृति से भिन्न मालूम पड़ती हैं।  मुक्तिबोध की प्रतिमा भी उनकी छवि से मेल नहीं खाती। जिन्होंने उन्हें प्रत्यक्ष देखा है, या नहीं भी देखा है लेकिन उनके चित्रों से उन्हें जानते हैं, उनके लिए इन प्रतिमाओं को देख कर पहचानना मुश्किल है। अचरज है कि इस विषय में आज तक कभी किसी ने कोई आपत्ति दर्ज नहीं की है। लोग तटस्थ पर्यटक-भाव से आते हैं और तस्वीर खींच कर लौट जाते हैं। उन तस्वीरों में वे स्वयं फोकस में होते हैं, बख़्शी जी, मिश्र जी या मुक्तिबोध नहीं।

मुक्तिबोध स्मारक त्रिवेणी संग्रहालय के साथ बगल में सृजन संवाद भवन भी बनाया गया है। इसके निर्माण का उद्देश्य स्मारक में सृजनात्मक गतिविधियों का संचालन करना था। इसके तहत किसी वरिष्ठ लेखक को कुछ महीने के लिए आमंत्रित कर युवतर रचनाकारों को उनका सान्निध्य-लाभ प्रदान करने की योजना थी ताकि उन्हें प्रोत्साहन और उनकी सृजनात्मकता को दिशा मिल सके।  स्मारक के उद्घाटन समारोह में तत्कालीन मुख्यमंत्री ने अशोक वाजपेयी, प्रभाकर श्रोत्रिय, उदय प्रकाश और ओम भारती आदि लेखकों की उपस्थिति में सृजन संवाद भवन में उसे लेकर ‘राइटर-इन-रेसिडेंस’ यानी अतिथि लेखक योजना सहित विभिन्न सृजनात्मक गतिविधियों के संचालन की घोषणा की थी। लेकिन अतिथि लेखक योजना कभी क्रियान्वित ही नहीं हो सकी। न इसके विषय में सरकार या प्रशासन में कभी कोई सोचने वाला था, न ही इसके निर्माण के बाद पिछले सत्रह वर्षों में कभी कोई बजट आवंटित किया गया। भवन बन तो गया, मगर तुरंत बाद से ही नाइंतज़ामी का शिकार है। भवन में लेखक का आवास, कार्यालय और छोटा सभागार-नुमा केंद्रीय कक्ष है, जहाँ विभिन्न गतिविधियाँ संचालित की जा सकती हैं। लेकिन पिछले सत्रह वर्षों में बहुत कम ही अवसर आये हैं जब यहाँ कोई गोष्ठी या अन्य गतिविधि हो पायी हो। अगर कुछ हुई भी हैं तो स्थानीय साहित्यकार-बुद्धिजीवियों के निजी प्रयासों से।

मुक्तिबोध

संग्रहालय में तीन कक्ष हैं। दक्षिण की ओर के कक्ष में डॉ. बल्देव प्रसाद मिश्र का तैलचित्र और उनसे संबंधित वस्तुएँ हैं।  सम्मान पत्र, कपड़े, उनकी पेन, उनकी पुस्तकें और उनके कार्यक्रमों के चित्र लगाए गए हैं। बीच के कक्ष में बख़्शी जी से संबंधित सामग्री है जिसमें उनकी हस्तलिखित रचनाओं के साथ दैनंदिन इस्तेमाल की कुछ वस्तुएँ हैं। उत्तर की ओर के कक्ष में मुक्तिबोध द्वारा उपयोग किए गए कपड़े, उनका शेविंग सेट, क़लम और कुछ अन्य वस्तुएँ हैं। इसी कक्ष में लोहे की वह चक्करदार सीढी है जो उनकी कविता में प्रकट होकर उनके काव्य-संसार में गहरी व्यंजना उत्पन्न करती है। उत्तर दिशा के इसी कक्ष में वह बड़ी-सी खिड़की भी है जिसमें बैठकर वह रानी सागर के उलट में उठती-गिरती लहरों को देखा करते थे और जहाँ से दूर तक फैले हुए कौरिनभाठा गाँव के खेत दिखाई पड़ते थे।

मुक्तिबोध के घर की स्मृति उनके स्मारक में बस इतनी है कि वहाँ आप जाएँ तो यह बात आपके दिमाग़ में महज़ सूचना की तरह आती है कि इस स्थान पर वह पाँच वर्ष रहे हैं। उनका परिवेश विस्मृति के अँधकार में समा गया है।  उनका समय स्मारक से बाहर अतीत में छूट चुका है। दरअसल स्मारकों के निर्माण के पीछे मुख्यतः यह उद्देश्य  होता है कि उसके परिवेश और ज़िंदगी जीने के ढंग को लगभग जीवंत रूप में महसूस कर सकें। इसलिये उसके घर को उसके जीवन-स्मृतियों के साथ यथावत संरक्षित किया जाता है। मुक्तिबोध-स्मारक को देख कर अनुमान लगाना मुश्किल है कि वह किस तरह का जीवन जीते थे। अगर मुक्तिबोध कोई स्मृति यहाँ शेष है तो वह सिर्फ़ चक्करदार सीढ़ी के रूप में मौजूद है। उत्तर के कक्ष की यह घुमावदार सीढ़ी उनकी कविता में जितनी जीवंत है, उसे ध्यान में रखें तो यहाँ वह उनकी याद दिलाने वाली वस्तु से अधिक नहीं जान पड़ती—अपने मूल परिवेश से विच्छिन्न सिर्फ़ एक बेजान वस्तु। कक्ष का वातावरण मुक्तिबोध-कालीन नहीं, पूरी तरह ठेठ आज का मालूम पड़ता है; बल्कि उसे यत्नपूर्वक आज के वातावरण में ढाल दिया गया है। उत्तर का यह कक्ष मुक्तिबोध के घर का हिस्सा नहीं महल का सुसज्जित कक्ष लगता है। बेजान होते हुए भी चक्करदार सीढ़ी अंततः काव्यात्मक मालूम पड़ती है जब कोई सीढ़ी को देखकर मुक्तिबोध की कविता में अनायास ही उसकी स्मृतियों के पास चला जाता है।

मुक्तिबोध

त्रिवेणी परिसर में यह स्मारक बहुत सुंदर जगह पर स्थित है। दोनों ओर तालाब हैं— दक्षिण की तरफ़ रानी सागर और उत्तर दिशा में बूढ़ा सागर। मुक्तिबोध के समय का रमणीय प्राकृतिक परिवेश आधुनिक इमारतों और आसपास बन गयी कालोनियों की वजह से अतीत में समा गया है। आवाजाही और शहरी जीवन की हलचलों के बीच सिर्फ़ तालाब है जो अतीत का साक्ष्य लिए मौजूद है। मुक्तिबोध के तत्कालीन जीवन का साक्ष्य भी रानी सागर की लहरें देती हैं। मुक्तिबोध के ज्येष्ठ पुत्र रमेश मुक्तिबोध बताते हैं कि प्रायः अपने पिता और भाइयों के साथ वह रानी सागर नहाने जाया करते थे। मोटरगाड़ी की ट्यूब में हवा भरकर वह बच्चों को तैरना सिखाया करते थे। मुक्तिबोध स्वयं अच्छे तैराक थे। उज्जैन में क्षिप्रा में उन्होंने ख़ूब तैराकी की थी।

उज्जैन में बीते बचपन की उमंग किसी हद तक उनके राजनांदगाँव के जीवन में ही लौटी थी। वह यहाँ मित्रों, पार्टी कार्यकर्त्ताओं और आगन्तुकों से इसी घर में मिलते थे। राजनांदगाँव के मज़दूर नेता और कवि नंदूलाल चोटिया मुक्तिबोध से मिलने जाते तो यह सीढ़ी उन्हें दिखाई देती थी। उनके मन में वह सीढ़ी उतनी ही जीवंत थी जितनी बाद में मुक्तिबोध की कविता में। मुक्तिबोध की कविता में इस सीढ़ी की मौजूदगी को लक्ष्य कर उन्होंने कवि के निधन के तीन दशक बाद लिखा था–’मुक्तिबोध तक पहुँचने के लिए सीढ़ी चाहिए।’ मुक्तिबोध और उनकी समकालीन पीढ़ी आशावादी थी। देश की आज़ादी साम्राज्यवाद से मुक्ति की बयार लेकर आयी थी। वह पीढ़ी पूंजीवाद से मुक्ति के स्वप्न भी देख रही थी। तभी मुक्तिबोध कहा करते थे–’पार्टनर, 1980 तो आने दो।’ उन्हें उम्मीद थी कि स्वप्न तब तक साकार हो उठेगा। इसी स्वप्न का स्पर्श पा कर नंदूलाल चोटिया ने मुक्तिबोध के निधन के तीन दशक बाद ही एक अन्य काव्य-पंक्ति में बाबा नागार्जुन की उपस्थिति में उन्हें लक्ष्य कर सभा में बैठे नौजवानों से कहा था–’बाबा की यह चौथी पीढ़ी लाएगी सोने की सीढ़ी।’ मुक्तिबोध के घर की चक्करदार सीढ़ी कवि चोटिया के मन में इस क़दर समा चुकी थी कि वह आशावाद का स्वर्णिम प्रतीक बन गयी। अस्सी के दशक का आशावाद तब जीवित था। आशाओं के विध्वंस की आशंका का तब नामोनिशान न था, हालाँकि स्वयं मुक्तिबोध की कविता उसकी ओर बार-बार इशारा रही थी। यह और बात है कि वहाँ ‘अरुण कमल’ खिलने की संभावना भी धूमिल नहीं हुई थी।

पश्चिम में अपने साहित्यकारों की स्मृतियों को संरक्षित करने की सुदीर्घ परम्परा रही है। वहाँ लेखक-कलाकार के आवास को यथावत सुरक्षित रखने और उसके द्वारा इस्तेमाल की गई वस्तुओं को जतन से सहेजने का प्रयत्न किया जाता है। रूस में मॉस्को में मलाया निकित्स्काया स्थित मैक्सिम गोर्की का घर, सदोवाया कुदरिंस्काया स्थित चेख़व का घर या तोल्स्तोय का ख़ामोव्नीकी स्थित विशाल एस्टेट अथवा सेंट पीटर्सबर्ग के ईस्ट अपार्टमेंट में कुज़्नेचनी लेन स्थित दॉस्तोएव्स्की का घर ठीक वैसे ही सहेजे गये हैं जैसे कि वे उनमें रहते थे। इसी तरह फ़्रांस में पेरिस स्थित बाल्ज़ाक, विक्टर ह्यूगो, मार्सेल प्रूस्त, ऑस्कर वाइल्ड आदि महान लेखकों के आवास यथावत संरक्षित किये गये हैं। उनका अपना समय उनके आवासों में अब भी ठहरा हुआ है।

फिर इंग्लैंड में स्ट्रैटफोर्ड-अपॉन-एवन का शेक्सपीयर स्मारक है जहाँ उनके समकालीन वातावरण के साथ उनका घर अक्षुण्ण रूप में मौजूद है। उनका ग्लोब थियेटर आज भी है।

प्राचीन अतीत से विच्छिन्न होने के तीखे बोध के चलते पश्चिमी समाज संभवतः अपनी स्मृतियों के प्रति अतिरिक्त रूप से सजग रहा है। इस विच्छिन्नता-बोध की क्षतिपूर्त्ति के रूप में वह घटनाओं, व्यक्तियों, मानवीय कार्यकलाप और उनकी स्मृतियों को स्मारकों के रूप में सहेजने की ओर प्रवृत्त होता है। अपने नायकों को याद करने के लिये वह उनकी धरोहर को भरसक बचाए रखने प्रयत्न करता है। भारतीय समाज इस तरह के विच्छिन्नता के अनुभव से अनजान है, क्योंकि उसकी चेतना में उसकी जातीय स्मृति  सहज ही अविरल प्रवाहित है; वह परम्परा की निरंतरता में जीने का अभ्यस्त है। इसलिये अतीत के प्रति वह सन्नद्ध और अतिरिक्त रूप से सजग नहीं है। यही कारण है कि स्मारकों के निर्माण और संरक्षण की परम्परा पश्चिम में ही संभव थी। हमारे यहाँ वह औपनिवेशिक विरासत के रूप में पश्चिम से ही आई है; बंगाल, असम, केरल जैसे कुछ हिंदीतर प्रांत किसी हद तक सुखद रूप से अपवाद हैं, जहाँ लेखकों को यथोचित सम्मान दिया जाता है और उनकी स्मृतियों को सुरक्षित रखने के यत्किंचित प्रयास भी किये जाते हैं।

अपवादों को छोड़ दिया जाए तो भारत में साहित्यिक स्मारकों की दुर्दशा प्रायः सर्वज्ञात है। हिंदी क्षेत्र में तो शायद ही किसी लेखक की स्मृतियाँ उसके आवास के रूप में व्यवस्थित और पेशेवर तरीक़े से सहेजी गयी हों। बीते अनेक वर्षों से लमही में प्रेमचंद स्मारक की दुर्दशा की ख़बरें आती रही हैं। मुक्तिबोध स्मारक की हालत भी इससे कुछ अलग नहीं है।

 

कुछ राज्य सरकारों ने कुछ लेखकों के स्मारक निर्मित किये हैं। प्रेमचंद के अलावा रेणु का स्मारक तत्काल याद आता है। लेकिन हिंदी-क्षेत्र में सुनियोजित और व्यवस्थित तरीक़े से निर्मित कोई स्मारक शायद ही कहीं हो। अगर कहीं स्मारक बनाया भी गया है तो उसके संचालन और संरक्षण की दीर्घकालीन योजना के अभाव में और मुख्यतः उसका यथोचित रखरखाव न होने के कारण उसके निर्माण का उद्देश्य तिरोहित हो जाता है और धीरे-धीरे वह उजड़ने लग जाता है। राजनांदगाँव में मुक्तिबोध स्मारक की दशा इससे भिन्न नहीं है। यह उजाड़ तो नहीं हुआ है, लेकिन जीवंत नहीं मालूम होता। लगता है, मुक्तिबोध की स्मृतियों को बस ढो रहा है। 2018 में चंद्रकांत पाटिल, दामोदर खडसे, प्रफुल्ल शिलेदार सहित लगभग बीस मराठी लेखकों के साथ मैंने त्रिवेणी स्मारक का भ्रमण किया था। उनमें से कुछ मराठी-हिंदी में सामान रूप से लिखने वाले साहित्यकार थे। शेष मराठी साहित्यकारों के लिए गजानन माधव मुक्तिबोध के प्रति मराठी के मूर्द्धन्य कवि-उपन्यासकार शरच्चंद्र मुक्तिबोध के बड़े भाई होने के नाते  भी विशेष श्रद्धाभाव था। मैंने अनुभव किया कि जिस उत्सुकता से वे स्मारक पहुँचे थे, वैसा उत्साह उनमें स्मारक देखने के बाद नहीं रहा।

स्मारकों के निर्माण को लेकर सरकारी रवैये को देखें तो सरकारें या तो उदासीन हैं या ढुलमुल। अगर कहीं अति उत्साहित जान पड़ती हैं तो प्रदर्शन-प्रेम के वशीभूत वे उसे भव्य और दर्शनीय बनाने को व्याकुल होती हैं। छत्तीसगढ़ शासन ने इसी अति उत्साह में त्रिवेणी स्मारक का निर्माण किया था। लेकिन शीघ्र ही वह उत्साह ग़ायब हो गया। उत्साह के इस प्रक्षेप को महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम के कथित पुनरुद्धार के उदाहरण से बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। साबरमती आश्रम को विश्वस्तरीय पर्यटक आकर्षण केंद्र में परिवर्त्तित करने की मंशा से उसके आधुनिकीकरण का प्रोजेक्ट आरंभ किया गया।  इसे पूरा करने के लिए सरकार द्वारा 1,200 करोड़ रुपये की राशि देने का ऐलान किया गया। सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के आर्किटेक्ट को ही आश्रम परिसर के आधुनिकीकरण के लिए नियुक्त किया गया। इस प्रस्तावित तामझाम पर प्रख्यात लेखक गणेश एन. देवी ने 11 अगस्त, 2021 को द टेलीग्राफ़ में लिखा कि “गांधी अपनी पूरी सादगी के कारण ‘विश्व स्तरीय’ थे और रहेंगे। उसी सादगी के साथ उन्होंने आश्रम को बनाया था। प्रस्तावित वीआईपी गेस्ट हाउस और ऑडिटोरियम हमें गांधी और उनकी सादगी विस्मरण करा सकते हैं। कुल मिलाकर, साबरमती आश्रम में बदलाव की योजना का उद्देश्य भूलने की बीमारी पैदा करना है, न कि गांधी के विचारों और उद्यम को याद करना।” ज़ाहिर है, साबरमती आश्रम में गांधी की स्मृति को संरक्षित करने का अर्थ है, उनकी सादगी का संरक्षण, न कि उसका उत्सवधर्मी प्रदर्शन जो अक्सर नासमझी और सांस्कृतिक निरक्षरता का प्रदर्शन बन जाता है।  राजनांदगाँव में मुक्तिबोध स्मारक के संरक्षण के प्रति सरकारी रवैया इससे भिन्न नहीं मालूम पड़ता

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जय प्रकाश

लेखक साहित्य-संस्कृति से सम्बन्धित विभिन्न विषयों पर पिछले 25 वर्षों से लेखन कर रहे हैं। सम्पर्क +919981064205, jaiprakash.shabdsetu@gmail.com
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