बांग्लादेश ‘मुक्ति संग्राम’ के पचास साल
हाल ही में बांग्लादेश ने अपनी आजादी के 50 साल पूरे किये हैं जिसे ‘मुक्ति संग्राम’ भी कहा जाता है। यह मुक्ति संग्राम किसी औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ नहीं बल्कि 1947 में धर्म के नाम पर बने मुल्क पाकिस्तान के खिलाफ उसी के एक हिस्से पूर्वी पाकिस्तान के द्वारा लड़ा गया था। 16 दिसम्बर 1971 को बांग्लादेश नामक नये देश का अस्तित्व में आना द्विराष्ट्र सिद्धांत पर सबसे बड़ा सवाल था। बांग्लादेश के वजूद ने इस “कु”तर्क को पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया कि एक मुल्क बनाने के लिए सभी लोगों का सामानधर्मी होना बुनियादी शर्त है। बांग्लादेश ने मजहब पर अपने भाषा और संस्कृति को तरजीह दिया जिसके चलते पाकिस्तान को अपना एक हिस्सा खोना पड़ा। पूर्वी पाकिस्तान की आबादी भले ही मुस्लिम बहुल रही हो लेकिन सिर्फ यही उनके लिये काफी नहीं था वे बंगाली भी थे जिसे पाकिस्तान के संस्थापकों द्वारा नजरअंदाज किया गया।
विभाजन के बाद भी दक्षिण एशिया पर लगातार धार्मिक उन्माद और उग्र राष्ट्रवाद का साया मंडराता रहा है जो कि लगातार बढ़ता ही जा रहा है, ऊपर से आज भारत और पाकिस्तान के सीमा का शुमार दुनिया के सबसे खतरनाक और संवेदनशील सीमाओं में किया जाता है। संयोग से आज बांग्लादेश की राजसत्ता और सिविल सोसायटी अपने आप को इस उन्माद से बचाने में कामयाब साबित हो रही है और अपने देश को उस रास्ते पर ले जाती हुई दिखाई पड़ रही है जो कुछ वर्षों पहले भारत का रास्ता था। आज 50वीं वर्षगांठ पर दुनिया बांग्लादेश को दक्षिण एशिया के एक नये उभरते हुए सितारे के तौर पर देख रही है जो संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता द्वारा संचालित होकर आर्थिक, सामाजिक विकास की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है।
उबड़ खाबड़ रास्तों भरा सफर
एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में बांग्लादेश के आधी सदी का सफर उतार-चढ़ाव भरा रहा है जिसमें बांग्लादेश के संस्थापक बंगबंधु की हत्या, दो सैन्य तानाशाहों का राज, सैन्य तख्तापलट और राष्ट्रपति जियाउर रहमान की हत्या, तीन कार्यवाहक शासन सरकारें, दो महिला प्रधानमंत्रियों के नेतृत्व वाली सरकारें शामिल हैं।
दरअसल अपनी स्थापना के समय से ही बांग्लादेश अपनी इस्लामी बनाम बंगाली पहचान के द्वंद्व के बीच उलझा रहा है और इस दौरान जो भी पलड़ा भारी हुआ उसी के अनुसार इस मुल्क का मिजाज भी बदलता रहा।
1971 में जब बांग्लादेश आजाद हुआ तो वह एक तबाह देश था, नया युद्धग्रस्त मुल्क, बुनियादी ढांचे, भोजन की कमी और सामूहिक अवसाद से घिरा हुआ था। दुनिया इसे “बास्केट केस” मानती थी। लेकिन इसके संस्थापक नेता शेख मुजीबुर रहमान “बंगबंधु” के पास अपने देश के भविष्य का एक नक्शा था। उन्होंने आजादी के नौ महीने के भीतर ही बांग्लादेश के लिए एक प्रगतिशील संविधान के निर्माण को सुनिश्चित किया। इस संविधान के चार बुनियादी सिद्धांत थे: लोकतन्त्र, राष्ट्रवाद, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता। लेकिन इस बीच बांग्लादेश की मुक्ति के तीन वर्ष के भीतर ही बंगबंधु की हत्या कर दी गई। उनकी मृत्यु के बाद बांग्लादेश में लम्बे समय तक उथल-पुथल का दौर रहा और इस दौरान सेना, सेना से संबद्ध दलों और लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी गयी सरकारों का शासन रहा।
पिछले करीब तेरह वर्षों से बंगबंधु की बेटी शेख हसीना बांग्लादेश का नेतृत्व कर रही हैं और इस दौरान वहाँ राजनीतिक स्थिरता आयी है, जिसका असर बांग्लादेश के आर्थिक विकास दर और सामाजिक विकास संकेतकों में भी साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि पिछले एक दशक के दौरान बांग्लादेश एक गरीब से विकासशील राष्ट्र में बदल गया है यहाँ तक कि बांग्लादेश की आर्थिक विकास दर अपने हमसाया मुल्क भारत से आगे निकल गई है। इसकी वजह साफ़ हैं, इस दौरान दोनों मुल्कों के फोकस बिंदु में बदलाव आया है जहाँ एक तरफ बांग्लादेश अपने आप को कट्टपंथी और प्रतिगामी ताकतों के चुंगल से बाहर निकालने में कामयाब हुआ है वहीँ भारत इस दलदल में धंसता गया है। आज जहाँ बांग्लादेश अपने भविष्य की यात्रा में है वहीं भारत इतिहास को भविष्य मानकर पीछे की तरफ बढ़ रहा है।
1971 में आजादी के समय बांग्लादेश की जीडीपी 8 बिलियन अमेरिकी डॉलर के करीब थी जो कि आज लगभग 324 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गयी है। इन पचास वर्षों के दौरान प्रति व्यक्ति आय भी 93 अमेरिकी डॉलर से बढ़कर दो हजार डॉलर से अधिक हो गई है। पिछले एक दशक के दौरान बांग्लादेश की जीडीपी छह फीसदी से ऊपर रही है जबकि पिछले तीन वर्षों से बांग्लादेश ने लगातार सात प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर हासिल की है जोकि एशिया में सर्वाधिक है।
सामाजिक विकास संकेतकों में भी बांग्लादेश का प्रदर्शन उल्लेखनीय है, 1971 में आजादी के समय, बांग्लादेश दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक था जिसकी 71 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से थी जोकि 2016 में घटकर 24 प्रतिशत रह गयी। पिछले डेढ़ दशक के दौरान ही बांग्लादेश करीब ढाई करोड़ लोगों को गरीबी से उबारने में कामयाब हुआ है। इसके अलावा ग्लोबल हंगर इंडेक्स जैसे सूचकांक में भी बंगलादेश (76) अपने हमसाया मुल्कों भारत (101) और पाकिस्तान (92) की तुलना में बेहतर स्थिति में है। महिलाओं के सामाजिक और आर्थिक समावेशन में भी यह देश आगे बढ़ रहा है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) की ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट (2021) ने बांग्लादेश को 156 देशों में 65वें स्थान पर रखा है, जो 2006 के 91वें स्थान से काफी बेहतर है। इसी प्रकार से बांग्लादेश में श्रम बल में महिला भागीदारी की दर 40 प्रतिशत के करीब है जोकि भारत (22.3 प्रतिशत) की तुलना में काफी बेहतर है।
हालांकि जीडीपी आधारित विकास मॉडल होने की वजह से बांग्लादेश का विकास व्यापक असमानताओं से भी ग्रस्त है। विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के अनुसार बांग्लादेश की 10 प्रतिशत का देश के 43 प्रतिशत राष्ट्रीय आय पर कब्ज़ा है जबकि 50 प्रतिशत आबादी के पास राष्ट्रीय आय का केवल 17 प्रतिशत हिस्सा है।
आगे रुकावट भी है
बांग्लादेश के संविधान के चार मुख्य सिद्धांत थे – लोकतन्त्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और बंगाली राष्ट्रवाद जोकि बंगबंधु की हत्या के बाद अधर में झूलते रहे हैं। बंगबंधु के बाद सेना अधिकारी से राष्ट्रपति बने ज़ियाउर रहमान ने “बांग्लादेशी मुस्लिम राष्ट्रवाद” लेकर आये। रहमान ने प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी को भी शह दिया जिसकी वजह से आज बंगलादेश में इसकी जड़ें काफी मजबूत है। इसके बाद एक और सैन्य तानाशाह हुसैन मुहम्मद इरशाद ने संविधान में संशोधन करते हुये इस्लाम को बांग्लादेश का राजकीय धर्म बना दिया।
आज बांग्लादेश की राजनीति स्पष्ट रूप से दो ध्रुवीय धाराओं में विभाजित है एक ‘सेक्युलर’ और दूसरी ‘कट्टरपंथी धार्मिक’। बंगबंधु की बेटी शेख हसीना प्रथम खेमे का नेतृत्व कर रही है जो 2008 से लगातार प्रधानमन्त्री हैं। उनके कार्यकाल के दौरान बांग्लादेश में लोकतान्त्रिक और प्रगतिशील ताकतें मजबूत हुई है। इसी वजह से 2013 में वहाँ शाहबाग जैसा व्यापक आन्दोलन हो सका जो 1971 के युद्ध अपराधों के लिए जिम्मेदार गुनाहगारों को सजा और पाकिस्तान परस्त कट्टरपंथी संगठन जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबन्ध जैसी मांगों पर आधारित थी। लेकिन वे अभी भी 1972 के संविधान को बहाल करने का अपना वादा पूरा करने का साहस नहीं दिखा सकीं है। जाहिर हैं कट्टरपंथी खत्म नहीं हुए हैं बल्कि नेपथ्य में जाकर अपने मौके के इन्तजार में हैं। शेख हसीना के बाद बांग्लादेश किस दिशा में आगे बढ़ेगा इसको लेकर चिंता करने की वाजिब वजहें भी हैं।
बहरहाल 50 साल पहले बांग्लादेश देश जैसे मुल्क का वजूद में आना ही इस उपमहादीप के लिए एक सबक की तरह था इसने विभाजन के सिद्धांत पर पानी फेर दिया था और अब पचास साल बाद एक बार फिर इस उपमहादीप खासकर भारत लिए एक सबक की तरह है कि कैसे कट्टरपंथ और धर्मान्धता को परे रखकर एक प्रगतिशील और सफल राष्ट्र के रूप में आगे बढा जा सकता है। हालाकि यह रास्ता कभी भारत का हुआ करता था लेकिन आजकल भारत विभाजन के “कु”तर्क को सही ठहराने और इतिहास के गोते लगाने में व्यस्त है जोकि दरअसल पाकिस्तान का रास्ता था।
बांग्लादेश की कहानी प्रगतिशील और विकासशील दक्षिण एशिया के कहानी का एक नया अध्याय है जिसका जश्न मनाया जाना चाहिए।