- यशश्विनी पाण्डेय
हिंदी सिनेमा या यूँ कहे पूरा भारतीय सिनेमा व समाज ही नायक प्रधान रहा है| वह हमेशा ऐसे नायक को प्रस्तुत करता रहा है जो सबकी बात करे, सबके लिए आदर्श हो व सबके लिए लड़े परन्तु बदलते समय के साथ-साथ सिनेमा के प्रतिमान भी बदले, बदलते समय के साथ नायिकाएं भी अपनी जगह बनाते चली गयीं हिंदी सिनेमा अपने प्रारम्भ से ही समाज में स्त्री की स्थिति और समय के साथ उसकी बदलती भूमिका,उसकी चुनौतियों को सकारात्मक व लगभग आदर्श रूप में सही पर प्रस्तुत करता रहा है| सिनेमा के प्रारम्भ में ऐतिहासिक ,धार्मिक और पौराणिक फिल्मों के अनुरूप ही स्त्री पात्र उन्ही पारंपरिक भूमिकाओं में रही|हर काल में समाज की समस्याएं बदल जाती हैं ठीक वैसे ही जैसे हर उम्र में हमारी समस्यायों का रूप अलग-अलग होता है|
हिंदी सिनेमा ने काफी सालों तक नारी की वही तस्वीर प्रस्तुत की जिस आदर्श की अपेक्षा पितृसत्तात्मक समाज को रहती है lनारी जीवन की सार्थकता इस बात में है कि वो प्रेम को महत्व न देकर संस्कारों और परम्पराओं को महत्व दे ,पति और बच्चों के लिए जीये l उनके लिए व्रत ,त्याग ,तपस्या करे l हर तरह से पति के लिए लॉयल और समर्पित रहे lहमारा समाज स्त्रियों की स्वच्छन्दता का घनघोर विरोधी और उनकी घरघुसरु किस्म की पर्दानशींनी का पक्षपाती रहा है l जो नारी इन मानकों के साथ अपना जीवन-यापन नहीं कर सकी उसे खलनायिका का रूप दे दिया गया l खलनायिका वो औरत भी होती थी जो जीवन को अपने शर्तों के मुताबिक जीती है ,क्लब या डिस्को में नाचती है ,पुरुषों से बात करती है ,उन्हें रिझाती भी है, छोटे कपड़े पहनती है और अपनी सेक्सुअली जरूरतों को प्राथमिकता देती है l इस तरह सिनेमा में दो तरह के चारित्रिक विशेषताओं के साथ नारी के चरित्र और उसके अच्छे बुरे होने का सर्टिफिकेट जारी कर दिया गया और फिल्मों में वैसा ही दिखाया जाने लगा |धीरे-धीरे ये दो मुख्य छवियाँ बदलने लगीं और नायिका कई छवियों में हमारे सामने आयीं l शिक्षा, राजनीति,सेरोगेसी ,लिव इन रिलेशनशिप, कार्पोरेट ,देह व्यापार ,मॉडलिंग ,खेल-जगत ,समलैंगिकता ,ऐतिहासिक घटनाएँ ,सेक्सुअलिटी, पत्रकारिका और भी ऐसे असंख्य विषय व विषय क्षेत्र में नायिका उभर कर आयीं व नायिका प्रधान फ़िल्में बनने लगीं व नायिकाओं की एक अपनी जगह बनी
भारतीय सिनेमा में स्त्री (नायिका) की भूमिका ,प्रवेश ,पदार्पण का विडंबनापूर्ण सच यही है कि भारत की पहली नायिका निजी जीवन में पुरुष थीं l बदलते समाज ,पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव ,स्त्री विमर्श ,साहित्य में क्रांतिकारी परिवर्तन ,उदारीकरण,आधुनिकता ने हर क्षेत्र को प्रभावित किया l पिछले कुछ अरसे से समाज में भारतीय स्त्री का अस्तित्व बहुत ही मुखर होकर उभरा है ,चाहे वो कला का क्षेत्र हो, साहित्य ,टेलीविजन या हिंदी सिनेमा का lआज सिनेमा में नायिका की ये स्थिति है की नायिका बनने की होड़ लगी है |अच्छे से अच्छे संभ्रांत परिवार से लड़कियां आ रही हैं अपने अभिनय का लोहा मनवाने के लिए ,कोई घर से विरोध करके चल पड़ा किसी ने घर ही छोड़ दिया ,कोई प्रशिक्षण लेकर आ रहा ,तो कोई विरासत में अभिनय लेकर आ रहा | प्रतियोगिता बढ़ गयी है अभिनय से लेकर ,नृत्य ,शारीरिक बनावट ,फिटनेस,भाषा ,से लेकर हर क्षेत्र में अलग चाहिए ,अपार प्रतिभा चाहिए l
पिछले कुछ दशक में सिनेमा ने नायिकाओं के इतने रूप स्वरूप दिखाए हैं कि ये एक नया विमर्श ही है जिस पर स्वतंत्र रूप से पुस्तक या असंख्य लेख लिखे जाने चाहिए और लिखे जाने की जरुरत है l समाज में महिलाओं के जितने मुद्दे हैं ,जितनी समस्याएं हैं उसके कुछ प्रतिबिम्बों को सिनेमा ने दिखाने की कोशिश की ही है l आज के नए सिनेमा में नायिकाओं का जो मुखर रूप सामने आया है वो न दर्शक कभी सोच सकता था न समाज l सिनेमा एक साथ सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व नही कर सकता l हर वर्ग के लिए अलग-अलग किस्म की फ़िल्में बनी हैं l
एक स्त्री के जीवन में कई समस्याएं होती हैं पति प्रेमी के साथ सामंजस्य, माँ बाप के साथ सामंजस्य ,समाज के साथ सामंजस्य ,कार्यस्थल पर कई तरह की समस्याएं ,घर में सम्मान और पहचान की समस्या ऐसे छोटे बड़े कई समस्याएं हैं l जिन पर कभी-कभी हमारा ध्यान भी नहीं जाता और हम उसके साथ अभ्यस्त हो जाते हैं l ऐसे कई समस्याओं और मुद्दों पर हिंदी सिनेमा ने न सिर्फ बात की है बल्कि बड़ी ही बारीकी से उन मुद्दों को उठाया भी है l खासतौर पर ये पिछले दस सालों के फिल्मों का अवलोकन किया जाये तो ऐसी-ऐसी फ़िल्में हमारे सामने आयीं जिनके बारे में पता तो सबको है पर कोई बात नहीं करता न स्वीकार l इन फिल्मों में हम इंग्लिश विन्ग्लिश,हाईवे ,क्वीन,पिंक ,पार्च्ड,पीकू,मरदानी, जज्बा ,नो वन किल्डजेसिका,चक दे इंडिया ,निल बट्टे सन्नाटा ,एनएच10,बॉबी जासूस ,नीरजा,मैरी कॉम आदि तमाम बायोपिक से लेकर सच्ची घटनाओं तक महिला केन्द्रित फ़िल्में आयीं l ये प्रयोग महिला प्रधान फिल्मों के रूप में सामने आये l
सिनेमा के सौ सालों में स्त्री ने कई यात्रायें की हैं,कई पड़ावों को पार किया है l समाज में जितने आंदोलन, परिवर्तन हुए सभी को हिंदी सिनेमा ने अपने कथ्य का आधार बनाया l सिनेमा ने अपनी जिम्मेदारी डिफ़ॉल्ट या बाई डिफ़ॉल्ट निभायी है l उसने कभी भी स्त्री और उसके सरोकारों से अपना पल्ला नही झाड़ा अपितु वह स्त्री के साथ सजग रहकर खड़ा रहा है l हिंदी फ़िल्में हर युग में बदलते परिस्थितियों के साथ भारतीय समाज के हर रूप और रंग को किसी न किसी रूप में प्रस्तुत करने में सफल हुई हैं l आज का दौर फिल्मों का ही दौर है l फ़िल्में ही मुख्य मनोरंजन और ज्ञान विज्ञान को संवृद्ध करने का कारगर साधन है | फिल्म प्रस्तुतिकरण की शैली में बदलाव अवश्य दिखाई देता है किन्तु इसके केंद्र में व्यक्ति और समाज के अंतरसंबंध ही रहे हैं l निश्चित रूप से फ़िल्में समाज को एक नई सोच देती हैं l हिंदी सिनेमा ने नारी और नारी शक्ति को नई पहचान दी,आवाज दी उसके अस्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी l आगे भी हिंदी सिनेमा के निर्देशक ,पटकथा लेखक व विचारक समाज की नायिकाओं के ऐसे असंख्य व संवेदनशील मुद्दों को समस्यायों को अपने विषयक्षेत्र व निर्माण क्षेत्र में शामिल करे तो आम जनता भी उन समस्याओं से रूबरू हो और कुछ क्षणों के लिए ही सही वो मुद्दे उनके मस्तिष्क में अंकित हो क्या पता किसी बदलाव व सुधार की तरफ कोई कदम बढेl
फ़िल्में बहुत कुछ स्त्रियों की छवि को पर्दे पर उभारने लगी हैं l स्वरा भास्कर ,कंगना रनौत,राधिका आप्टे ,ऋचा चड्ढा ,कल्कि कोचलिन, तापसी पन्नू जैसी सशक्त अभिनेत्रियाँ स्त्री मुक्ति के स्वर को परदे पर जीवंत कर दे रही हैं l यह और बात है स्त्री सिनेमा में ग्लैमर, सेक्स को भी उसी मात्रा से दिखाया भुनाया जाता है l सिनेमा की प्रगतिशील स्त्री व्यवहारिक ज़िन्दगी में नकार दी जाती है क्योंकि स्त्री जीवन का वास्तविक रूप कहीं अधिक कठोर मर्यादाओं नियमों में बंधा होता है | उम्मीद है कि भारतीय सिनेमा आने वाले दिनों में स्त्रियों के प्रति और उदार ,संवेदनशील ,मानवीय और ईमानदार होगा जिससे स्त्रियों की आवाज़ को धार ,बल और एक सशक्त माध्यम मिल सके |
लेखिका साहित्य की विभिन्न विधाओं में सृजनशील हैं|
सम्पर्क- +918306396839, yashaswinipathak@gmail.com
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