कठिन समय में गाँधी
सभ्यता के विकास-क्रम में आज मनुष्य जिस चौतरफा संकट से घिरा हुआ है, ऐसा इसके पहले कभी नहीं था। बाजारोन्मुख उपभोक्तावादी संस्कृति ने मनुष्य की मानसिकता को भोग-विलास की भावना से जिस कदर भर दिया है कि सादगी और सहजता मनुष्य के दुर्लभ गुण हो गये हैं। कानून सम्मत एक सचेत नागरिक लोकतन्त्र की मजबूत नींव और जीवन्त इकाई है। बाजार की बर्बरता ने सबसे पहले इसी जीवन्त इकाई को निष्प्राण कर दिया है। उसने अपने मायाजाल में मनुष्य को इस तरह से फांस लिया है कि मनुष्य को मुक्ति का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है।
चमक-दमक और शोर-शराबे वाले विज्ञापनों ने झूठ को सच की तरह पेश किया है और सच की जगह हाशिये पर भी सुरक्षित नहीं रह गयी है, बल्कि सच को परिदृश्य से ही बाहर कर देने की कार्रवाई जारी है। यह सर्वनाशी संस्कृति मौजूदा समय को ग्रसे हुए है। कला, साहित्य, संस्कृतिकर्म और राजनीति इस अवैध और अन्यायपूर्ण सांस्कृतिक आक्रमण के सामने लगभग बेवश है। कहने के लिए हम एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जी रहे हैं लेकिन लोकतन्त्र के चारों खम्भे (विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया) खास्ताहाल हो चुके हैं। लोकतन्त्र से लोक विलोपित हो गया है और तन्त्र का उसपर वर्चस्व है। ऐसे में लोकतन्त्र का भविष्य अन्धकारमय लगता है।
इस अँधेरे के खिलाफ जब भी हम कोई रचनात्मक पहल करेंगे गाँधी ही हमारे साथ होंगे। क्योंकि जीवन और जनतन्त्र को देखने का गाँधी का नजरिया इस अर्थ में औरों से अलग है कि उन्होंने अपने विचारों को जारी करने से पहले उसको जिया है। सत्य, अहिंसा, समता और सादगी के बारे में गाँधी ने कोई नयी बात नहीं की है, मोहनदास करमचन्द गाँधी के जन्म के पहले सदियों से हर युग में सत्य और अहिंसा की प्रतिष्ठा रही है। सत्य के नाम पर तो एक युग का ही नाम रखा गया ‘सतयुग’।
गाँधी ने नया और नायाब काम यह किया कि सत्य और अहिंसा के साथ उन्होंने निजी और सार्वजनिक जीवन में अद्भुत और अभूतपूर्व प्रयोग किया। सत्याग्रह, उपवास, असहयोग आन्दोलन और सिविल नाफरमानी के माध्यम से ही गाँधी ने अँग्रेजों से भारत की आजादी को सम्भव बनाया। इसलिए गाँधी महात्मा और राष्ट्रपिता बने। जीवन और जगत से जुड़ा शायद ही ऐसा कोई मुद्दा होगा जिस पर गाँधी ने विचार नहीं किया हो। ग्रामस्वराज, पंचायती राज, पर्यावरण, उद्योग, ऊर्जा, साम्प्रदायिक सदभाव, शासन और सरकार पर उनकी दृष्टि बिल्कुल स्पष्ट है। अहिंसा, सत्याग्रह और स्वराज गाँधी के तीन ऐसे सांस्कृतिक उपकरण थे जिसनेे न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया भर के लोगों को अपने अधिकार और अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी।
गाँधी का जन्म किसी गरीब, किसान या मजदूर परिवार में नहीं हुआ था, वे गुजरात के काठियावाड़ की एक रियासत के दीवान करमचन्द के बेटे थे। इसलिये बैरिस्टर बनने के लिए उनका ब्रिटेन जाना सम्भव हो सका। सम्पन्न और समृद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि के बावजूद वे शोषितों-पीडि़तों के पैरोकार बने यह उनके व्यक्तित्व की विशेषता थी। दक्षिण अफ्रीका जाकर ही गाँधी ने अच्छी तरह से यह समझा कि गुलामी का दंश क्या होता है? नस्लीय भेद भाव की अपमानजनक स्थिति ने भी उन्हें संघर्ष के लिए मजबूर कर दिया। रंगभेद के खिलाफ उन्होंने जो संघर्ष शुरू किया उसका विश्वव्यापी असर हुआ। गाँधी ने अपने राजनीतिक जीवन का शुरुआती प्रयोग दक्षिण अफ्रीका में ही कर लिया था, और वहाँ की सफलता ने उन्हें अहिंसा, सत्याग्रह और स्वराज के प्रयोग को भारत में कारगर तरीके से दोहराने के लिए बड़ा आत्मबल दिया।
गाँधी चाहते थे कि भारत की आजादी के बाद काँग्रेस पार्टी अपने को संसदीय राजनीति से अलग कर ले और रचनात्मक सामाजिक कार्यों में ही लीन रहे। लेकिन सत्ता के भूखे नेताओं को गाँधी की यह बात रास नहीं आई। गाँधी की हत्या (1948) के बाद तो गाँधी के विचारों की भी खुले आम उपेक्षा होने लगी। आजादी के 70 वर्षों बाद कृषि प्रधान देश में यदि खेती की ऐसी दुर्दशा है कि किसान आत्महत्या के लिए मजबूर है तो यह विश्वास किसी को कैसे हो सकता है कि देश गाँधी के बताए रास्तों पर चल रहा है। इन दिनों खेल के मैदान में लड़कियों (चीयर्स गर्ल्स) के उत्तेजक नृत्य का नया चलन प्रारम्भ हुआ है। बहुत दिन नहीं हुए जब चीयर्स गर्ल्स के एक समूह से कुछ लड़कियों को सिर्फ इसलिए निकाल दिया गया कि वे गोरी नहीं थीं। एक तो अपसंस्कृति का अत्यन्त ही अश्लील नमूना और उस पर गोरे और काले का अमानवीय भेदभाव यह निश्चित रूप से एक निम्न कोटि की सांस्कृतिक निर्ममता को ही दर्शाता है।
अभी भी रूप-सौन्दर्य के निर्धारण में गोरे रंग को महत्त्व देने की मानसिकता से समाज मुक्त नहीं हुआ है। इन सांस्कृतिक विसंगतियों पर गाँधी क्या सोच रहे होंगे? यही न कि रंगभेद के खिलाफ दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने जो लड़ाई शुरू की थी वह उनके ही देश भारत में अभी तक अधूरी पड़ी हुई है। इतना ही नहीं देश की शिक्षा, संस्कृति, चिकित्सा, कृषि, पर्यावरण, उद्योग और ऊर्जा नीति से भी वे निराश और हताश ही हो रहे होंगे। आवारा पूंजी ने विकास का ऐसा अराजक ढाँचा तैयार किया है जिसमें सिर्फ मनुष्य नहीं, तमाम जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, जड़ी-बूटी, जल, जमीन, जंगल, पहाड़ सभी नाश के कगार पर हैं। यदि सभ्यता को पूरी तरह नष्ट होने से हमें बचाना है तो गाँधी के तस्वीरों को सिर्फ सिक्कों और दफ्तरों में टाँगने से काम नहीं चलेगा, उनके विचारों का सिक्का भी हमें चलाना होगा।
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