अपने पुरखों में एक मौलाना हसरत मोहानी भी हैं
पाकिस्तान के करांची शहर में हसरत मोहानी नाम की एक बड़ी कॉलोनी है। वहाँ हसरत मोहानी नाम से एक बड़ी सड़क भी है। करांची में ही एक हसरत मोहानी मेमोरियल सोसाइटी है और एक हसरत मोहानी मेमोरियल लाइब्रेरी भी है। क़माल यह कि जिस हसरत मोहानी के नाम से पाकिस्तान में इतनी जगहों के नाम हैं, वह हसरत मोहानी पाकिस्तानी तो हरगिज़ न थे। वे न कभी पाकिस्तान बनने से पहले पाकिस्तानी थे और न पाकिस्तान बनने के बाद कभी पाकिस्तानी हुए। मौलाना हसरत मोहानी एक नपे-तुले हिन्दुस्तानी थे। क्या आज हमें उस हिन्दुस्तानी की याद है?
किसी को याद करने की कुछ वजहें होती हैं। हम किसी को याद इसलिए भी कर सकते हैं ताकि हम अपनी स्मृतियों के जरिये अपने जिन्दा होने का सबूत दे सकें। आज हम जिस हिन्दुस्तान में जी रहे हैं, उसमें स्मृतियों के ख़िलाफ़ एक भयंकर युद्ध चल रहा है। यहाँ गांधी और नेहरू जैसी शख़्सियत की यादों को कलंकित करने का भीषण अभियान चल रहा है और एक ख़ास मज़हब को शक की निग़ाहों से देखने व मुल्क़ के वास्ते उनसे उनकी वफ़ादारी का सबूत मांगने की रिवाज़ चल रही है। ऐसे में, हसरत मोहानी नाम के एक मौलाना की याद को बचा पाना या उन्हें यादगार बनाये रख सकना यकीनन पानी पर लकीर खींचने की क़वायद हो सकती है। फिर भी मौलाना हसरत मोहानी नाम की शख्सियत से कुछ ऐसी चीजें जुड़ी हुई हैं जिनकी वजहों से उन्हें याद करना उनकी भी विवशता है जिन्हें उनकी यादों से तकलीफ़ पहुँच सकती है।
अंग्रेजी राज में उन्नाव जिला उत्तर प्रदेश के मोहान क़स्बे में 1 जनवरी, 1875 को पैदा होनेवाले सय्यद फ़ज़ल-उल-सहन उर्फ़ हसरत मोहानी 13 मई, 1951 को उत्तरप्रदेश के ही लखनऊ शहर में आज़ाद हिन्दुस्तान की सरजमीं में दफ़न हैं। लगभग छिहत्तर साल की ज़िंदगी में हसरत मोहानी ने बड़ी मिहनत और ईमानदारी से ख़ुद को एक क़ाबिल इंसान बनाया था। वे ऐसी बहुमुखी प्रतिभा से लैश एक व्यक्तित्व थे जिन्हें किसी हद में रखकर ठीक से नहीं समझा जा सकता। उनके व्यक्तित्व के सम्पूर्ण गठन का बारीकी से मुआयना करने पर ही उनका सही मूल्यांकन हो सकता है।
1929 में ‛पब्लिक सेफ्टी बिल’ और ‛ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल’ के विरोध में भगत सिंह ने ब्रिटिश भारत की संसद में बम फोड़कर जिस ‛इंक़लाब जिन्दाबाद’ का नारा बुलंद किया था, वह नारा 1921 में हसरत मोहानी की ही कलम से उपजा था। भगत सिंह ने उस नारा को बुलंद कर इतना मशहूर कर दिया कि यह आज़ादी की लड़ाई का प्रमुख नारा बन गया और आज़ाद हिन्दुस्तान में आज भी ‛इंक़लाब जिन्दाबाद’ का नारा आन्दोलनों का प्रमुख नारा बना हुआ है। क्रान्ति का ऐसा जयघोष लिखने वाला व्यक्ति साधारण नहीं हो सकता!
हसरत मोहानी की पहचान एक अच्छे शायर के रूप में है। उनकी शायरी में रुमानियत भी बहुत है। उनकी कई ग़ज़लें बहुत चर्चित हुई हैं। उनमें ग़ुलाम अली द्वारा गायी हुई और निक़ाह फ़िल्म में शामिल वह ग़ज़ल ‛चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है, हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है’ तो काफ़ी चर्चित हुई है। हसरत मोहानी की शायरी में महज़ रुमानियत ही नहीं है बल्कि अपने समय की सामाजिक और राजनीतिक चिंता भी हिलोरें मारती हुई हैं। उनकी शायरी में अंग्रेजी शासन के ख़िलाफ़ इतना आक्रोश है कि शायरी की वज़ह से कई बार उन्हें कॉलेज से निष्कासित भी किया गया।
हसरत मोहानी के साथ एक दिलचस्प बात यह है कि एक मौलाना होने के साथ वे कृष्ण भक्त कवि भी थे। उन्हें कृष्ण से गहरा प्रेम था। हर बरस वे जन्माष्ठमी में मथुरा जाया करते थे। एक बार जेल में रहने के कारण जन्माष्ठमी में मथुरा नहीं जा सके, जिसका उन्हें काफ़ी मलाल था। इस कसक को उन्होंने अपनी एक कविता में प्रकट किया है। वे कृष्ण को प्रेम और सौंदर्य का देवता मानते थे। उनका यही रूप उन्हें काफ़ी आकृष्ट करता था। कृष्ण को वे ‛हज़रत अलैहिररहमा’ लिखा करते थे। उनका काव्य-संग्रह ‛कुल्लियात-ए-हसरत’ में कृष्ण-भक्ति से सम्बंधित कविताएँ और ग़ज़लें संग्रहित हैं।
1903 में अलीगढ़ के एंग्लो मोहम्मडन स्कूल जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के नाम से जाना गया, से बीए करने के साथ हसरत मोहानी ने दो बड़े काम किये। एक तो कि वे अलीगढ़ से ही ‛ उर्दू-ए-मुअल्ला’ नाम की पत्रिका निकाली और दूसरा कि 1904 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होकर राष्ट्रीय आन्दोलनों का हिस्सा बन गये। उनकी पत्रिका ‛उर्दू-ए-मुअल्ला’ ब्रिटिश सरकार की नीतियों के बिल्कुल ख़िलाफ़ थी। इसमें वे अंग्रेजी शासन के विरुद्ध लेख छापा करते थे। इस पत्रिका में कांग्रेस के बम्बई, कलकत्ता, सूरत आदि सत्रों की और दूसरी गतिविधियों की कई रपटें भी छापीं। 1907 में जब उन्होंने ‛उर्दू-ए-मुअल्ला’ में ‛मिस्त्र में ब्रितानियों की पॉलिसी’ नाम से लेख छापा तो यह अंग्रेजी सरकार को इतनी नाग़वार गुज़री कि हसरत मोहानी को गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया और पत्रिका को भी बन्द करा दी। पत्रिका बन्द होने की वज़ह से उन्हें काफ़ी आर्थिक नुक़सान सहना पड़ा।
हसरत मोहानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होकर बाल गंगाधर तिलक के काफ़ी नज़दीकी हो गये थे। वे बालगंगाधर तिलक को बड़े अदब के साथ ‛तिलक महाराज’ कहा करते थे। 1907 के सूरत कांग्रेस सत्र में वे बतौर प्रतिनिधि शामिल हुए थे। इसमें कांग्रेस के बीच दो धारा पैदा हो गयी, एक शांति पसन्द नरम दल और दूसरी पूर्ण स्वराज्य चाहनेवाले गरम दल। हसरत मोहानी ने पूर्ण स्वराज्य का समर्थन किया और बाल गंगाधर तिलक के साथ कांग्रेस से अलग हो गये। किन्तु पूर्ण स्वराज्य का अलख आख़िर तक जगाये रखा। 1921 में अहमदाबाद के कांग्रेस अधिवेशन में हसरत मोहानी ने ही कांग्रेस के सामने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव लाया था किन्तु महात्मा गांधी के इनकार कर देने की वज़ह से यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। इस अधिवेशन में युवा क्रान्तिकारी अशफ़ाक उल्ला खान और रामप्रसाद बिस्मिल भी शामिल थे।
मौलाना हसरत मोहानी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से भी एक थे। वे कम्युनिस्ट पार्टी के पहले अधिवेशन की स्वागत समिति के अध्यक्ष भी रहे। कम्युनिस्ट पार्टी से अलग होने के बाद वे मुस्लिम लीग से भी जुड़े किन्तु मुस्लिम लीग द्वारा धार्मिक आधार पर द्वि-राष्ट्रवाद के विचार से असहमत होकर बहुत जल्दी उससे अलग भी हो गये। हसरत मोहानी ने पाकिस्तान के निर्माण का जमकर विरोध किया था। वे कभी भारत विभाजन के पक्षधर नहीं रहे। इसलिए पाकिस्तान बनने के बाद भी उन्होंने हिन्दुस्तान में रहना क़बूल किया।
मौलाना हसरत मोहानी आज़ादी के बाद संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) के प्रतिनिधि के तौर पर 1946 में भारत की संविधान सभा के सदस्य बने। संविधान सभा को उन्होंने कई महत्वपूर्ण सुझाव दिये। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के समर्थक थे। इसलिए संविधान में धार्मिक आधार पर किसी प्रकार के भेद या विशेषाधिकार के विषय पर उन्होंने तीखा विरोध दर्ज़ किया था। 17 अक्टूबर 1949 को संविधान सभा के सदस्य व नेहरू सरकार के मंत्री एन. गोपालस्वामी आयंगर ने भारत की संविधान सभा में अनुच्छेद 306(ए) जो वर्तमान में अनुच्छेद 370 है, को पेश किया था। जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्ज़ा देने वाले इस अनुच्छेद 370 को लागू करने पर संविधान सभा में जब विचार-विमर्श शुरू हुआ तो इस अनुच्छेद के ख़िलाफ़ बोलने वाले अकेला मौलाना हसरत मोहानी ही थे। संविधान सभा में उन्होंने सवाल किया था कि भेद-भाव करनेवाला यह अनुच्छेद संविधान में क्यों जोड़ा जा रहा है? उनके विचारों में यह धारा देश को बाँटनेवाली थी। संविधान में अनुच्छेद 370 को शामिल किये जाने पर विरोध दर्ज़ करनेवालों में हमेशा हसरत मोहानी का नाम अकेला लिया जायेगा।
मौलाना हसरत मोहानी अमन और एकता पसन्द एक ऐसे इंसान थे जिनके लिए हिन्दुस्तान ही सर्वोपरि था। वे एक बड़े अदीब, शायर, पत्रकार, स्वतंत्रता सेनानी, इस्लाम के ज्ञाता, कृष्ण-भक्त कवि, राजनीतिज्ञ, समाज सेवक, भारतीय संविधान के निर्माता के रूप में और इंकलाब जिंदाबाद के नारों के दरम्यान आज भी हमारी यादों में जिन्दा हैं।
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