हिन्दी के अजब दीवाने थे बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री
आमतौर पर खड़ी बोली हिन्दी का जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र को ही समझा जाता है। निश्चित ही भारतेंदु हरिश्चन्द्र को खड़ी बोली की गद्य-भाषा का स्वरुप स्थिर करने और गद्य की विविध विधाओं को स्थापित करने का श्रेय है। इसलिए उन्हें भारतीय नवजागरण का अग्रदूत भी कहा जाता है। खड़ी बोली के विकास में कलकत्ता का फोर्ट विलियम कॉलेज, जॉन गिलक्राइस्ट, लल्लू लाल, सदल मिश्र, मुंशी सदासुखलाल, इंशाअल्ला खां, राजा शिव प्रसाद ‛सितारे हिन्द’, राजा लक्ष्मण सिंह से लेकर भारतेंदु और उनके मंडल के लेखकों, भारतेंदु मंडल से बाहर के लेखकों और फिर उनके बाद के भी लेखकों को बखूबी याद किया जाता है। परन्तु अयोध्याप्रसाद खत्री को हिन्दी में लगभग भुला ही दिया गया है। जबकि अयोध्याप्रसाद खत्री के बिना खड़ी बोली आन्दोलन का इतिहास अधूरा है।
उन्हें भुलाने में उनके समकालीनों को उतना दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि उनके समकालीनों ने उनका जोरदार विरोध करके ही सही, उन्हें मान्यता तो दी ही थी। परन्तु उनके तुरन्त बाद की पीढ़ी के इतिहास लेखकों को जिनके ऊपर आधुनिकता के आविर्भाव की अन्तर्धाराओं का गहन अवलोकन करने का दायित्व था, उन्होंने हिन्दी के प्रति खत्री जी की निष्ठा, दूरदर्शिता और योगदान की इतनी उपेक्षा की कि अभी तक अयोध्याप्रसाद खत्री हिन्दी पाठकों के सामान्य-बोध का हिस्सा नहीं बन सके हैं। अब जब खड़ी बोली गद्य की तरह खड़ी बोली का पद्य भी आधुनिक हिन्दी में ऊंचे आसन पर विराजमान है तब खड़ी बोली हिन्दी, ख़ासकर हिन्दी पद्य के विकास की दिशा में अयोध्याप्रसाद खत्री के किये कार्यों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है।
जब खड़ी बोली भारतेंदु हरिश्चंद्र के हाथों में आकर गद्य-भाषा के रुप में आकार ग्रहण कर रही थी तब गद्य जैसी महत्व की चीज नयी थी। नयेपन के साथ यह गद्य काम की भी चीज लग रहा था। इसलिए गद्य-भाषा के रुप में खड़ी बोली को गर्व के साथ अपनाया गया। ठीक इसके विपरीत व्यवहार खड़ी बोली के पद्य के साथ हुआ। पद्य नयी चीज नहीं था, सम्भवतः इसीलिए पद्य-भाषा के रुप में खड़ी बोली को स्वीकृति नहीं मिल रही थी। अवधी और ब्रजभाषा में पद्य इतनी ऊँचाई पा चुका था कि अवधी और ब्रजभाषा के गर्व और मोह से निकलना कठिन लग रहा था। शायद इसलिए भी खड़ी बोली गद्य के जन्मदाता भारतेंदु हरिश्चंद्र आदियों ने खड़ी बोली में पद्य रचने से हाथ खड़ा कर लिया होगा और गद्य के लिए खड़ी बोली तथा पद्य के लिए अवधी और ब्रजभाषा की दोहरी नीति अपना ली होगी। गद्य और पद्य की भिन्न भाषा की इस नीति का विरोध हुआ। ब्रजभाषा से अलग पद्य की अपनी भाषा हिन्दी के पक्ष में आन्दोलन खड़ा हुआ। ब्रजभाषा के पैरोकारों ने इसका जमकर विरोध किया। परन्तु इस आन्दोलन की धार कभी कमजोर नहीं हुई क्योंकि इसका झंडा बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री के हाथों में था।
लम्बा कद, दुबली-पतली देह, तुतलाहट के साथ जल्दी-जल्दी बोलने की आदत, बात-बात में नुक्ताचीनी, बड़ी-बड़ी आंखों पर चांदी की कमानीवाले चश्मे को लम्बी नाक पर लटकाए, अस्तव्यस्त कपड़ों में दिखनेवाले बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री का जन्म बिहार के मुज़फ्फरपुर में ठीक गदर के साल सन 1857 ई. में हुआ था। वे तीन भाइयों में दूसरे स्थान पर थे। बड़े भाई वकील थे और छोटे व्यवसायी। इनके पिता जगजीवनलाल खत्री पेशे से व्यवसायी थे। उनकी मुज़फ्फरपुर में ही किताबों की दुकान थी। खत्री जी की शिक्षा मुज़फ्फरपुर के स्कूल में सम्पन्न हुई थी। उनके समय में स्कूलों और कचहरियों की भाषा उर्दू और फ़ारसी हुआ करती थी। इसलिए उनकी आरंभिक शिक्षा हिन्दी, उर्दू, फ़ारसी के साथ अंग्रेजी की भी हुई। खत्री जी जब इंट्रेंस क्लास में थे तब इनके पिता की अचानक मृत्यु हो गयी और इन्हें स्कूल की पढ़ाई छोड़नी पड़ी। कुछ दिनों तक पिता की किताब की दुकान पर भी बैठे। इसी क्रम में इन्होंने एक आन्दोलन शुरु किया कि सस्ती और अशुद्ध छपी किताबें न बेची जायें। वे जहाँ भी जाते इस बात का प्रचार करते। इसी आन्दोलन के साथ उनकी दुकान की स्थिति खराब होती चली गयी और किताब दुकान का व्यापार ठप हो गया।
किताबों के व्यापार से सदा के लिए छुट्टी लेकर खत्री जी मुज़फ्फरपुर के कुढ़हनी माइनर स्कूल में हिन्दी शिक्षक नियुक्त हुए। स्कूलों में हिन्दी की पढ़ाई कुछ दिनों पहले 1870 ई. में शुरू हुई थी, इसलिए शिक्षकों के सामने पाठ्यपुस्तकों का अभाव सबसे बड़ी चुनौती थी। खत्री जी ने बच्चों की अच्छी पाठ्यपुस्तकों के लिए आन्दोलन शुरु किया और इन्होंने स्वयं तबतक के प्रकाशित सभी व्याकरणों से सहज ‘हिन्दी व्याकरण’ लिखा। शिक्षक के रुप में दूसरी मुश्किल का सामना इन्हें पाठ्यपुस्तकों की लिपि को लेकर करना पड़ा। तब पाठ्यपुस्तकें कैथी लिपि में तैयार की जाती थीं। इसका इन्होंने विरोध किया और बंगाल के लाट को पत्र लिखा कि प्राइमरी और मिडिल स्कूल की पाठ्यपुस्तकों को देवनागरी लिपि में छापी जाए। शिक्षक रहते खत्री जी ने शिक्षा के माध्यम के रुप में हिन्दी की मान्यता के सम्बन्ध में भी महत्वपूर्ण कार्य किया। पर कुछ दिनों बाद शिक्षक का पद छोड़ दिया और 1886 ई. में मुज़फ्फरपुर कचहरी में लिपिक के पद पर बहाल हो गए। बाद में वे कलक्टर का पेशकार भी बने और मुज़फ्फरपुर शहर के लिए बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री ‘पेशकार साहेब’ हो गये। दस वर्षों तक पेशकार के पद पर ईमानदारी से रहे। अंत में, 4 जनवरी 1905 को प्लेग की बीमारी से महज़ अड़तालीस साल की उम्र में मुज़फ्फरपुर में ही खत्री जी का निधन हो गया।
बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री के साथ सदी गुजर गयी लेकिन उनके बाद हिन्दी का कोई ऐसा दीवाना नहीं हुआ। उन्होंने खड़ी बोली के लिए बहुत त्याग किया था। उनके निधन के बाद ‘सरस्वती’ में श्री पुरुषोत्तमप्रसाद वर्मा ने लिखा कि ‘खड़ी बोली के प्रचार के लिए खत्री जी ने इतना द्रव्य खर्च किया कि राजा महाराजा भी कम करते हैं।’ उन्होंने खड़ी बोली के पद्यों के संकलन अपने रुपयों से छपवाया और उसका बिना मूल्य वितरण भी किया। वे मुज़फ्फरपुर में ब्राम्हणटोली में रहते थे। उन्होंने ब्राम्हणों के बीच यह घोषणा कर दी थी कि जो पण्डित अपने यजमानों के यहाँ सत्यनारायण कथा खड़ी बोली में बाँचेंगे, उन्हें हर कथा-वाचन के लिए दस रुपये देंगे, बशर्ते उन्हें अपने यजमानों से कथा-वाचन का प्रमाण-पत्र लाना होगा। जो ऐसा करते, उन्हें वे स्वयं दस रुपये दिया करते थे। खत्री जी ने कर्मकांड की अनेक पुस्तकों का खड़ी बोली में अनुवाद कराया था और उन पुस्तकों का निःशुल्क वितरण भी किया।
खड़ी बोली पद्य के प्रति उनका ऐसा अनुराग था कि ‘चंपारण-चंद्रिका’ में उन्होंने एक सूचना दी कि जो श्री रामचंद्र के यश का खड़ी बोली में पद्यबद्ध वर्णन करेगा उसे प्रति पद्य एक रुपया दिया जायेगा। रामचरितमानस का भी खड़ी बोली में अनुवाद करने के लिए प्रति दोहे और चौपाई एक रुपया देने की घोषणा की थी। वे खड़ी बोली में कविता करनेवाले को हर कविता पर पाँच रुपये का पुरस्कार अपने पास से देते थे। खड़ी बोली पद्य के प्रति खत्री जी के अदम्य अनुराग का ही नतीजा है कि आज हिन्दी गद्य के बराबर हिन्दी कविता अपने मुकाम पर खड़ी है। जैसे हिन्दी गद्य को भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपनी उंगली पकड़कर आगे बढ़ाया, वैसे ही हिन्दी पद्य को अयोध्याप्रसाद खत्री ने आगे बढ़ाया है। परन्तु इसका श्रेय कवियों और संपादकों को मिला, जिसके वाज़िब हक़दार बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री हैं।
भारतेंदु ने खड़ी बोली में गद्य तो बहुत लिखा पर कविता ब्रजभाषा में ही की। वे खड़ी बोली को कविता की भाषा नहीं बना सके। अयोध्याप्रसाद खत्री ने 1888 ई. में ‘खड़ी बोली आन्दोलन’ नाम की एक किताब प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने बल देकर कहा कि अबतक की कविता ब्रजभाषा की कविता है, खड़ी बोली की कविता नहीं है। जो यह मानकर चलते थे कि खड़ी बोली में कविता हो ही नहीं सकती, उन्हें कवियों से खड़ी बोली में कविता लिखवाकर दिखाया कि खड़ी बोली में कविता हो सकती है और अच्छी कविता हो सकती है। उनकी इस राय की ब्रजभाषा-काव्य के प्रति मोह रखनेवालों ने जमकर विरोध किया। परन्तु खत्री जी इस बात को कायदे से समझ रहे थे कि जबतक पद्य यानी कविता की भाषा खड़ी बोली नहीं होगी तबतक उत्तर भारत की असली स्वाभाविक भाषा का स्वरूप स्थिर नहीं हो सकता। आज जिसे व्यापक अर्थों में हिन्दी कहते हैं, उस समय इसे ही खड़ी बोली कहते थे। इसलिए खत्री जी अवधी और ब्रजभाषा को हिन्दी नहीं मानते थे। वे अवधी और ब्रजभाषा को ‘भाखा’ कहते थे। खड़ी बोली पद्य का प्रचार करते हुए वे कहते थे कि ‘अभी हिन्दी में कविता हुई कहाँ? सूर, तुलसी, बिहारी आदि ने जिसमें कविता की है, वह तो ‘भाखा’ है, हिन्दी नहीं।’ इसलिए खत्री जी ने हिन्दी में कविता के पक्ष में एक जोरदार आन्दोलन खड़ा किया।
खत्री जी के हिन्दी कविता के आन्दोलन को देखें तो इसके दो दौर हैं, स्वयं खत्री जी ने भी इसे स्वीकार किया है। पहला दौर 1877 से 1887 के बीच का है। इस दौर की शुरुआत 1877 ई. में ‘हिन्दी व्याकरण’ लिखने के साथ होती है। इस व्याकरण की रचना इस मान्यता के साथ की गयी थी कि हिन्दी और उर्दू में सिर्फ लिपि का फ़र्क है। यदि उर्दू को फ़ारसी लिपि में न लिखी जाये तो उर्दू भी हिन्दी ही है। यह मात्र 36 पृष्ठों की पुस्तक है जिसका मुद्रण बिहारबंधु प्रेस, बांकीपुर, पटना से हुआ था। इसी क्रम में 1887 ई. में हिन्दी के छंदशास्त्र पर उनकी दूसरी पुस्तक ‘मौलवी स्टाइल की हिन्दी का छंद भेद’ प्रकाशित हुई। इसमें मौलवी स्टाइल की हिन्दी को पंडित स्टाइल की हिन्दी से बेहतर घोषित किया गया है। खत्री जी की तीसरी पुस्तक अलंकारशास्त्र पर 1887 ई. में ‘मौलवी साहब का साहित्य’ शीर्षक से आया। इस पुस्तक में अरबी साहित्य परम्परा से प्राप्त उन अलंकारों के लक्षण-उदाहरण हैं जो उर्दू काव्य में घुलमिल गये हैं। इस किताब के पीछे भी खत्री जी का उद्देश्य मुंशी स्टाइल की हिन्दी को ही स्थापित करना लगता है।
खत्री जी का सबसे महत्वपूर्ण काम ‘खड़ी बोली का पद्य-पहिला भाग’ डब्लू. एच. ऐलेन एण्ड को., 13 वाटरलू प्लेस, लन्दन से 1888 ई. में छपकर आया। इसमें उनकी लिखी भूमिका मात्र है, रचनाएँ दूसरों की हैं। रचनाओं का संग्रह और संपादन खत्री जी ने किया है। इसकी भूमिका में उन्होंने ठेठ हिन्दी, पण्डित जी की हिन्दी, मुंशी जी की हिन्दी, मौलवी साहब की हिन्दी और यूरेशियन हिन्दी के रूप में खड़ी बोली को पाँच वर्गों में बाँटकर देखा है। इन पाँच रूपों की हिन्दी में खत्री जी के लिए मुंशी जी की हिन्दी ही आदर्श हिन्दी है। इस हिन्दी में न तो संस्कृत के कठिन शब्दों की बहुलता होती है न अरबी-फारसी के भारी-भरकम शब्दों की भरमार। इसमें दूसरी भाषाओं के आम शब्दों को स्वीकार करने के दरवाजे भी खुले हैं। आगे चलकर, खत्री जी की इसी मुंशी हिन्दी को प्रेमचंद और महात्मा गांधी ने हिदुस्तानी कहते हुए अपनाने की बात की है।
इस ‘खड़ी बोली पद्य-पहिला भाग’ में खत्री जी ने उन कवियों की कविताएं शामिल की हैं जो उनके खड़ी बोली पद्य का आन्दोलन खड़ा होने से पहले खड़ी बोली में कुछ कविताएँ कर चुके थे। जब खत्री जी ने खड़ी बोली पद्य का आन्दोलन शुरु किया तब इन्हीं में से कुछ कवियों ने खत्री जी का विरोध करना शुरु कर दिया। इस संदर्भ में खत्री जी की एक और महत्वपूर्ण किताब की चर्चा आवश्यक है। वह किताब ‘खड़ी बोली आन्दोलन’ नाम से खत्री जी द्वारा संकलित है जो उनके हिन्दी कविता आन्दोलन के दूसरे दौर की है। इसमें खड़ी बोली पद्य से सम्बन्धित साहित्यिक वाद-विवाद संकलित हैं जो हिंदोस्थान के नवम्बर 1887 से अप्रैल 1888 ई. अंकों में ब्रजभाषा और खड़ी बोली के पक्षधरों के वाद-विवाद के रूप में चला था। इस वाद-विवाद में मुख्य रूप से अयोध्याप्रसाद खत्री और श्रीधर पाठक खड़ी बोली पद्य के पक्ष में और राधाचरण गोस्वामी एवं प्रतापनारायण मिश्र ब्रजभाषा पद्य के पक्ष में खड़े थे। खड़ी बोली पद्य के आन्दोलन को धारदार बनाने में इस किताब की सार्थक भूमिका है।
यहाँ उस खड़ी बोली पद्य आन्दोलन के विरोध के रहस्य को समझना बेहद ज़रूरी है जिसका अगुआ अयोध्याप्रसाद खत्री थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जब स्वयं स्वीकार किया है कि ‘मुझसे खड़ी बोली में अच्छी कविता नहीं हो सकी, इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि खड़ी बोली में कविता हो ही नहीं।’ तब ज़ाहिर है कि भारतेंदु जी ने भी खड़ी बोली में कविता की थी। यह अलग बात है कि उनकी दृष्टि में खड़ी बोली में अच्छी कविता नहीं हो पाई और उन्होंने ब्रजभाषा की राह अपना ली। किन्तु खड़ी बोली कविता से उनका कोई विरोध भाव नहीं था। जिन लोगों ने भारतेंदु जी की ब्रजभाषा कविता की दुहाई देकर खत्री जी की खड़ी बोली कविता के आन्दोलन का जमकर विरोध किया था, उनमें से बहुतों ने खड़ी बोली में कविता की थी। उनकी कविताओं को स्वयं खत्री जी ने ही ‘खड़ी बोली पद्य-पहिला भाग’ में संपादित किया है। आख़िर जो कवि खड़ी बोली में कविता करता है और खड़ी बोली गद्य का समर्थन करता है वही जब खत्री जी की खड़ी बोली कविता के आन्दोलन का मुखर विरोध करता हो, तब यह यह पड़ताल करना जरूरी जान पड़ता है कि कहीं खत्री जी के आन्दोलन में ही तो कोई ऐसा तत्व नहीं था जो विरोध का कारण बन रहा था।
खत्री जी के समर्थकों को या स्वयं खत्री जी को भी अपने विरोधियों के विरोध का रहस्य समझना चाहिए था, किन्तु ऐसा प्रयास नहीं दिखता। ठीक यही बात उनके विरोधियों के साथ भी थी कि उनके द्वारा भी अपने विरोध के वास्तविक कारण को समझने का कोई प्रयत्न नहीं हुआ था। ऐसा लगता है कि पद्य को लेकर खड़ी बोली और ब्रजभाषा का विवाद कोई स्थूल रूप में नहीं था और न खत्री जी का विरोध मात्र विवाद का कारण था। विवाद का कारण ब्रजभाषा में कविता का लिखा जाना या नहीं लिखा जाना और खड़ी बोली में कविता का लिखा जाना या नहीं लिखा जाना भी नहीं था। किन्तु विवाद इस हद तक पहुंच चुका था कि किसी का ध्यान विवाद के वास्तविक कारणों की ओर कभी गया ही नहीं। इसलिए वह विवाद मोटे तौर पर खड़ी बोली बनाम ब्रजभाषा का विवाद बनकर रह गया। इस विवाद को मोटे तौर पर न देखकर, इसकी तह में जाने की जरुरत है।
बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री ने जब अपनी पहली किताब ‘हिन्दी व्याकरण’ लिखा तब उसमें यह स्थापना दी थी कि हिन्दी और उर्दू में महज़ लिपि का फ़र्क है। यदि उर्दू को फ़ारसी लिपि में न लिखी जाय, तब वह हिन्दी ही है। उन्होंने छंदशास्त्र पर दूसरी किताब ‘मौलवी स्टाइल का छंद भेद’ लिखा, जिसमें पंडित स्टाइल की हिन्दी से मौलवी स्टाइल की हिन्दी को अच्छा बताया। अलंकारशास्त्र पर तीसरी किताब ‘मौलवी साहब का साहित्य’ लिखा, जिसमें अरबी साहित्य से प्राप्त उन अलंकारों के लक्षण-उदाहरण हैं जो उर्दू काव्य में समाहित हो गये हैं। इस किताब के पीछे भी उनका मक़सद था, मुंशी स्टाइल की हिन्दी को स्थापित करना जिसमें बोलचाल के तत्सम शब्दों के साथ उर्दू के आम शब्दों के लिए भी गुंजाइश थी। खत्री जी की चौथी और महत्वपूर्ण किताब ‘खड़ी बोली का पद्य-पहिला भाग’ है जिसकी भूमिका में उन्होंने ठेठ हिन्दी, पंडित जी की हिन्दी, मुंशी जी की हिन्दी, मौलवी साहब की हिन्दी और यूरेशियन हिन्दी के रूप में खड़ी बोली को पाँच भागों में बांटकर मुंशी जी की हिन्दी को सबसे अच्छी हिन्दी माना है।
संभवतः खत्री जी के खड़ी बोली पद्य आन्दोलन के विरोध की वास्तविक भावभूमि पद्य-भाषा के लिए खड़ी बोली नहीं है, बल्कि यही मुंशी स्टाइल की खड़ी बोली है जिसकी स्थापना का यत्न वे अपनी सभी किताबों में करते हुए दिखते हैं। वे जिस मुंशी स्टाइल की खड़ी बोली को स्थापित करना चाहते थे उसमें उस उर्दू के लिए संस्कृत के बराबर जगह है जो अरबी का व्याकरण, छंदों और अलंकारों को अपने में समाहित किये हुए है। खत्री जी के विरोधियों के अवचेतन में कहीं न कहीं यही बात थी कि खड़ी बोली कविता के बहाने अयोध्याप्रसाद खत्री जिस खड़ी बोली को स्थापित करना चाहते हैं, उसमें व्याकरण, अलंकारों और छंदों की समस्त शुद्ध संस्कृत परंपराओं के लिए खतरा है। उनके लिए उस खड़ी बोली को स्वीकार करना कठिन था जिसमें अरबी के व्याकरण, छंदों, अलंकारों आदि को सन्निहित किया गया हो। इसलिए विरोधियों की दृष्टि में उर्दू अन्य भाषा हो गयी और ब्रजभाषा अपनी भाषा। अन्य भाषा और अपनी भाषा की दृष्टि के पीछे उन लेखकों का प्रबल साम्प्रदायिक मनोभाव काम कर रहा था। खड़ी बोली पद्य आन्दोलन के विरोध के पीछे के इस मनोविज्ञान को अनदेखा किया गया और इसलिए भी खत्री जी का मूल्यांकन सही तरीके से नहीं हो पाया है।
बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री की भाषा-दृष्टि बहुत व्यापक थी। उनकी कल्पना में एक ऐसी भाषा थी जिसकी स्वीकृति व्यापक जनसमुदाय के बीच हो। वह भाषा जो साहित्य के प्रमुख अंग पद्य की भी भाषा हो और गद्य की भी। वे ब्रजभाषा से कविता की मुक्ति यूँ ही नहीं चाहते थे। ब्रजभाषा के लिए खत्री जी का प्यारा नाम ‛गँवारी बोली’ था। काशी नागरी प्रचारिणी सभा के गृह प्रवेशोत्सव में महामहोपाध्याय पंडित सुधाकर द्विवेदी ने सर डिग्ग्स लाटूश का स्वागत ब्रजभाषा में किया था। इस सम्बंध में खत्री जी ने श्री चंद्रधर शर्मा से मिलने पर पूछा कि ‘एड्रेस गँवारी बोली में क्यों दिया गया, यदि वह खड़ी बोली में होता तो हम मुसलमानों को भी अनुकूल कर सकते थे।’ खत्री जी के इस कथन से खड़ी बोली आन्दोलन के आशय को बखूबी समझा जा सकता है। वे उस हिन्दी भाषा को स्थापित करना चाहते थे जिस पर सब अपना समान अधिकार समझ सकें। वे भारत की भावी भाषा का रूप गढ़ रहे थे। परन्तु खड़ी बोली पद्य आन्दोलन के विरोधियों ने उनका इतना विरोध किया था कि वे भी ब्रजभाषा के विरोध में खड़े दिखने लगे। आगे वे कहते हैं, ‘जबतक यह गँवारी हमारे सभ्य साहित्य का पल्ला न छोड़ेगी तबतक इसकी उन्नति न होगी।’ ब्रजभाषा के प्रति खत्री जी की कटु राय खड़ी बोली पद्य आन्दोलन के विरोध का भी नतीजा थी और खड़ी बोली के व्यापक स्वरूप को स्थापित करने की ईमानदार बेचैनी का भी।
आज खड़ी बोली और ब्रजभाषा का कोई विवाद नहीं है। ब्रजभाषा उस तरह से अब काव्य भाषा भी नहीं रही। फिर भी, ब्रजभाषा के संदर्भ में यह स्वीकार करना आवश्यक है कि ब्रजभाषा में कविता अपने शिखर तक विकसित हुई है। ठीक उसी तरह, यह भी स्वीकार करना आवश्यक है कि खड़ी बोली भी अब खड़ी बोली नहीं रही, खड़ी बोली भी अब व्यापक अर्थों में हिन्दी है। परन्तु खड़ी बोली जिस रास्ते हिन्दी बनने की दिशा में आगे बढ़ी, वह रास्ता बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री का रास्ता है। जो हिन्दी आज गद्य और पद्य दोनों में स्वीकृत है, वह खत्री जी की मुंशी स्टाइल की हिन्दी है। इस मुंशी स्टाइल की हिन्दी के लिए बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री ने क्या-क्या न किया, उन पर किस-किसने न हँसा, वे किसका-किसका विरोध न सहे! मुज़फ्फरपुर वाले ‘पेशकार साहेब’ जब बनारस खड़ी बोली में कविता के लिए साहित्य के मठाधीशों के पास जाते तो बनारस वाले ‘खड़ी बोली वाला’ कहकर उनका उपहास करते! खत्री जी सब के उपहासों और विरोधों का सामना करते हुए खड़ी बोली के आन्दोलन को ओढ़ते-बिछाते रहे। इस खड़ी बोली की दीवानगी ने उन्हें भिखारी बना दिया था। आज जब उनकी खड़ी बोली ही आगे बढ़ी तथा उनके विरोधी पीछे छूट गये और आज जब खड़ी बोली अखिल भारतीय भाषा हिन्दी का रूप अख़्तियार कर चुकी है, तब एक बार फिर इस बात का मूल्यांकन बेहद जरूरी जान पड़ता है कि जिस परिमाण में खत्री जी ने हिन्दी के लिए अपना सबकुछ लुटाया, क्या हम उस अनुपात में खत्री जी को कभी हिन्दी में जगह दे सकेंगे!
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